भोपाल में आयोजित लोक मंथन का समापन, श्री चन्द्र प्रकाश द्विवेदी का उद्बोधन !


लोकमंथन के समापन कार्यक्रम में अंतिम उद्बोधन हुआ आयोजन समिति के कार्याध्यक्ष डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी का ! उन्होंने कहा कि शास्त्र कहता है दूसरा कोई नहीं है। कबीर ने भी कहा कि प्रेम गली अति सांकरी, जा में दुई न समाए। अत: यहाँ सभागार में दूसरा कोई है ही नहीं। अत: प्रिय आत्मन सबसे पहले विचार करते हैं कि दासता क्या होती है ! साथ ही यह कि कभी कोई विदेशी दासता से मुक्ति की इच्छा भी जगी क्या ?

सिकंदर के सामने एक दिन उसका एक सैनिक “कोयनस” आकर खड़ा हो गया और बोला – हमें अपनी मातृभूमि वापस लौटना है ! उसकी पीड़ा यह थी कि जो वस्त्र वह पहन रहा है, वे जीते हुए प्रदेशों के हैं, उसकी मातृभूमि के नहीं ! उसे जीते हुए प्रदेशों के वस्त्र भी स्वीकार नहीं थे ! अब अपने अंतस में झांककर अंतर देखें !

एक अन्य उदाहरण – दांडायन ऋषि जंगलों में रहते थे, अलेक्जेंडर का सेनापति उनके पास पहुंचा और जंगल में रहने का कारण पूछा, ऋषि ने उत्तर दिया – इस घर को सबसे कम मरम्मत की जरूरत है ! ऐसे ही एक ऋषि सेलेटस के पास अलेक्जेंडर का दूसरा सिपाही पहुंचा ! ऋषि निर्वस्त्र एक शिला पर लेटे थे ! ऋषि ने पूछा क्या चाहिए ? सैनिक बोला, आपसे ज्ञान चर्चा करनी है। ऋषि ने कहा कि वस्त्र उतार और मेरे पास शिला पर लेट जा। वस्त्र उतारने के लिए तैयार नहीं तो मन पर पड़े पर्दे कैसे उतारेगा।

पिछले तीन दिन में हमने इस लोकमंथन में मन पर पड़े पर्दे उतारने की कोशिश की है। सवाल यह है कि इसकी उपयोगिता क्या ? इससे समाज को कुछ मिलेगा क्या ? बुद्ध की एक कथा है – बुद्ध के एक शिष्य को लगा कि उसे ज्ञान प्राप्त हो गया है ! गलियों चौराहों पर जाकर प्रवचन करने लगा ! आने जाने वाले मुसाफिरों को रोककर ज्ञान का उपदेश देता ! बात बुद्ध तक पहुंची, उन्होंने शिष्य को बुलाया और कहा – क्या गायों को गिनने से दूध मिल जाएगा ? शिष्य ने कहा नहीं, गायों की सेवा करनी होगी, उन्हें चारा खिलाना होगा, तब दूध मिलेगा ! सवाल उठता है कि क्या सिर्फ बौद्धिक विमर्श से समाज को अमृत मिल जाएगा? इस विमर्श को आगे ले जाना होगा, परिवार में, समाज में, सब जगह,यह मंथन जारी रखना होगा।

विचार एक बीज है, अनुकूल वातावरण मिलने पर पल्लवित होकर वृक्ष बन सकता है ! इस विचार को कर्म में उतारना होगा ! हमें कर्मशील बनना होगा ! स्वयं से प्रारम्भ होगा, तभी समाज तक पहुंचेगा ! लोकमंथन के अधिकाँश वक्ताओं का संकेत अध्यात्म की ओर था ! यह तो वही पुरातन वृक्ष है, जिसे माधवाचार्य, आदि शंकराचार्य, याज्ञवल्क्य, मधुसूदन शास्त्री, यहाँ तक कि दारा शिकोह ने भी सींचा था, विवेकानंद जी ने तो शिकागो में जाकर इसका उद्घोष किया था !

ध्येय को बीच में छोड़ने के दो कारण होते हैं, असफलता का भय या मृत्यु ! लोग क्या कहेंगे, अपमान करेंगे आदि आदि ! उत्तरदायित्व लेंगे तो क्या नहीं हो सकता ? इतिहास में हर महापुरुष का अपमान हुआ है ! चाणक्य को घनानंद की सभा में से फेंका गया ! एक अकिंचन शिक्षक ने संकल्प लिया, इस देश को एक होना होगा और वह मैं करूंगा ! महात्मा गांधी को भी ट्रेन से फेंका गया था, परिणाम सब जानते हैं ! चाणक्य का ही कथन था – अनुयाईयों की कमी नहीं है, योजकों की, दिशा देने वालों की कमी है !

कुछ लोग कहते हैं, साधन नहीं हैं, वह मैं कैसे प्राप्त करूंगा ? तुलसीदास तो जन्म से ही अमंगली मानकर मातापिता द्वारा छोड़ दिए गए थे ! वह वाल्यावस्था में भीख मांगकर पलता है, बढ़ता है ! जीवन का उद्देश्य ढूंढता है, तो भारत का इतिहास बदलकर रख देता है ! वाल्मीकि कृत रामायण भारत का पहला और तुलसी रचित रामचरित मानस भारत का अंतिम महाकाव्य है ! विवेकानंद के शिकागो जाने में भी तो संकल्प ही मुख्य था !

सम्मान की आशा छोड़ दो ! ऋग्वेद में कहा गया है – बुद्धिमान को चाहिए की वह सम्मान को विष समझकर उससे दूर भागे, क्योंकि अपमान पौरुष और बल देगा ! यम नचिकेता संवाद में नचिकेता कहता है – मुझे धन नहीं चाहिए, क्योंकि धन की प्यास कभी नहीं बुझने वाली ! मुझे तो सत्य बताओ !

जब भी हम अपने अंतस में झांककर सत्य की खोज करते हैं, वह भी मंथन होता है ! मंथन घर में भी हो सकता है, परिवार में भी ! मंथन में बहुत अधिक लोगों की आवश्यकता नहीं होती, भीड़ में मंथन नहीं होता । गीता का अमृत कृष्ण और अर्जुन के संवाद से निकला। सवाल उठता है की कृष्ण ने इसके लिए अर्जुन को क्यों चुना, युधिष्ठिर को क्यों नहीं ? क्योंकि वे जानते थे कि युद्ध का परिणाम बदलने की सामर्थ्य केवल अर्जुन में है ! इसलिए विश्व के सर्वश्रेष्ठ वक्ता ने सर्वश्रेष्ठ श्रोता चुना !


कठोपनिषद में कहा गया है – उठो, जागो, और तब तक मत रुको, जब तक कि अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लो ! पंडित मदन मोहन मालवीय ने कहा है कि मुझे विश्व की चिंता है, इसलिए भारत की चिंता करता हूं। क्योंकि विश्व के सभी प्रश्नों का उत्तर भारत से मिलेगा। वहीं, गुरु गोलवलकर जी ने कहा है कि दुर्जनों की सक्रियता से उतनी हानि नहीं हुई जितनी सज्जनों की निष्क्रियता से हुई है। 
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