अमेरिका से प्राप्त विशेष व्यवहार से कब तक बचेगा पाकिस्तान ? मीनाज मर्चेंट
0
टिप्पणियाँ
1947 के बाद से ही पाकिस्तान
ने अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों के अनुसार भूरणनीतिक कार्य किये हैं । यह
अलग बात है कि दशकों से उसका एक आतंकवादी राज्य के रूप में पतन भी हुआ है।
पाकिस्तान की
सेना इस्लामपरस्त है और पश्चिम ने 2001 के बाद से ही अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका के नेतृत्व
वाले नाटो सैनिकों का भारी जानी नुकसान उठाया है।
इसके बाद भी क्या
कारण है कि पश्चिम अभी भी पाकिस्तान को पैसा, हथियार और राजनयिक सुरक्षा प्रदान करता है?
ध्यान देने योग्य
बात है कि अमेरिका ने परमाणु उपकरण निर्माण का दुस्साहसिक प्रयत्न करते ही ईरान पर
कठोर प्रतिबंध लगा दिए थे ।
यहाँ तक कि मजबूत
जातीय संबंधों के बाद भी क्रीमिया और पूर्वी यूक्रेन पर हमले के बाद रूस पर भी प्रतिबंध
लगाया गया ।
उसने सूडान,
सीरिया और ईरान को "आतंकवाद प्रायोजक राज्य"
घोषित किया किन्तु पाकिस्तान को नहीं, जबकि वह भी बैसे ही घातक अपराधों में लिप्त
है।
क्यों है पाकिस्तान अपरिहार्य ?
आखिर पाकिस्तान को
यह विशेष व्यवहार क्यों प्राप्त है? इसका एक ही उत्तर
है, वह है पाकिस्तान का भूरणनीतिक महत्व
।
यह मध्य एशिया और
पश्चिम एशिया दोनों का प्रवेश द्वार है, साथ ही अफगानिस्तान पर नियंत्रण रखने में
उपयोगी है ।
इसके अलावा पाकिस्तान,
काकेशस में रूसी विस्तारवाद के लिए बड़ी रुकावट है।
आज भी शीत युद्ध
के तर्कवितर्क वाशिंगटन और लंदन की नजर में महत्वपूर्ण हैं । लेकिन वे दिनों दिन
कमजोर भी हो रहे हैं ।
पश्चिम द्वारा पाकिस्तान
के समर्थन का असली कारण है उसका निजी स्वार्थ ।
अमेरिकी विदेश
नीति लंबे समय से सैन्य औद्योगिक परिसर military-industrial complex (एमआईसी) द्वारा संचालित है।
अमेरिका द्वितीय
विश्व युद्ध के बाद 1939 में अपने एक दशक
लंबे डिप्रेशन से उभरा।
मंदी के दौर में
फंसे अमेरिकी कारखानों में उत्पादन पुनः शुरू हुआ । यह युद्ध ही हैं, जिन्होंने अमेरिका
को पुनः पटरी पर लाया, और उसकी विकासगाथा लिखी गई ! कुछ युद्ध तो सामने ही हैं,
जैसे - कोरिया (1950-1953), वियतनाम (1965-1975),
ईरान-इराक (1980-1988), कुवैत (1990-91), बाल्कन (1999), अफगानिस्तान ( 2001-16),
इराक (2003- 16) और सीरिया (2011-16)।
युद्ध से पनपता है अमेरिका ।
अमरीका का रक्षा
बजट (570 बिलियन $), संयुक्त राष्ट्र
सुरक्षा परिषद के अन्य चार स्थायी सदस्यों, चीन, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन के
संयुक्त रक्षा बजट से भी बड़ा है।
इसका मतलब यह
नहीं कि अमेरिका केवल अपने सैन्य औद्योगिक परिसर की खातिर युद्ध करता है। वह युद्ध
करता है दुनिया पर अपनी बादशाहत कायम रखने के लिए ।
वाशिंगटन ने सोवियत
संघ के साथ तो आँखों में आँखें डालकर लगातार 40 से अधिक वर्षों तक सतत संघर्ष किया ।
अंततः अमेरिका के
नेतृत्व वाली नाटो सेना और सोवियत नेतृत्व में हुई वारसा संधि ने महाशक्तियों के
दशकों पुराने संघर्ष पर विराम लगाया, जो समूचे पूर्वी यूरोप का सबसे ज्वलंत मुद्दा
था ।
25 साल पहले सोवियत
संघ के पतन के साथ साम्यवाद के खिलाफ शीतयुद्ध पर तो विराम लगा, किन्तु अमेरिका
रणनीतिक सोच में उसका स्थान इस्लामी आतंकवाद और चीन के उदय ने ले लिया ।
अमेरिका वैश्विक
सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में इस्लामी आतंकवाद को देखता है।
यही प्रमुख कारण है
की उसे पाकिस्तान जैसा आतंकवादी देश भी बर्दाश्त है।
1993 में, राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पाकिस्तान को एक
आतंकवादी देश घोषित करने के एकदम नजदीक पहुँच गए थे ।
लेकिन इस्लामाबाद
ने वॉशिंगटन की सबसे महंगी पैरवी फर्मों को अपने लिए नियुक्त किया और साफ़ बच निकला
।
अफगानिस्तान में
आतंकवाद के खिलाफ जंग तथा 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों में
नाटकीय परिवर्तन आया ।
अमरीकी राष्ट्रपति
जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को धमकी दी कि अगर 11 सितंबर, 2001, आतंकी हमले में मारे गए 3,000 अमेरिकियों के हत्यारों के शिकार में सहयोग नहीं किया तो
पाकिस्तान को “प्रस्तर युग” में पहुंचा दिया जाएगा और मजा देखिये कि आतंक का सबसे
बड़ा अपराधी इस्लामाबाद "आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भागीदार" की नई
भूमिका में रूपांतरित हो गया ।
स्वार्थ की पराकाष्ठा
पाकिस्तान और
पश्चिम दोनों ही महान छलिया हैं । इस्लामाबाद का एक सूत्री एजेंडा है भारत के
खिलाफ छद्म आतंकी युद्ध किन्तु उसे सहजता से भारत के समान ही आतंक पीड़ित होने का
दर्जा मिल गया ।
पाकिस्तान की
अर्थव्यवस्था, भारत की तुलना
में महज 10 फीसदी है, दोनों की कोई
बराबरी ही नहीं है ! पाकिस्तान यह भी जानता है कि वह भारत की सैन्य क्षमता का कभी
मुकाबला नहीं कर सकता । इसलिए पाकिस्तानी नीति-निर्माताओं द्वारा समय-समय पर
परमाणु युद्ध की गीदड़ भभकी दी जाती है ।
पाकिस्तान के स्वनिर्मित
आतंकवादी ढांचे ने उसे एक विफल राष्ट्र बना दिया है। आईएसआईएस की तरह उसकी सेना ने
भी आतंक को एक व्यापार मॉडल के रूप में स्वीकार लिया है व उससे राजस्व प्राप्त
किया जा रहा है ।
आईएसआईएस धमकी
देकर टेक्स बसूलता है और अपने नियंत्रण वाले इराक और सीरिया के इलाके में से तेल
चुरा रहा है।
जबकि पाकिस्तानी
सेना रियल एस्टेट, खनन, विनिर्माण और तस्करी में बेनामी कारोबार चलाती
है।
वह इन अवैध
कारोबारों को चलाने के लिए दाऊद इब्राहिम जैसे अपराधियों का उपयोग करती है और बदले
में उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है।
सेना की प्रेरणा
और शह से ही हाफिज सईद जैसे आतंकवादी मदरसों और सेवा कार्यों की आड़ में पंजाब
स्थित जेहादी समूहों के माध्यम से भारत में आतंकी हमलों की योजना बनाते हैं ।
पाखण्डी
यह जानामाना तथ्य
है कि पश्चिम ने 2001 के बाद से
आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अपने 4,000 से अधिक सैनिकों को खोया – इनमें से कई इस्लामाबाद द्वारा प्रायोजित आतंकवादी
समूहों के हमलों के शिकार हुए हैं – लेकिन इसके बावजूद वाशिंगटन की पाकिस्तानपरस्ती
जारी है।
इस्लामाबाद एक ऐसा
धूर्त जुआरी है जो हमेशा अपने पास तीन इक्के रखता है:
एक, इस्लामी आतंकवादियों जिन पर उसका नियंत्रण भी है और जो उसके
निर्देश पर ही कार्य करते हैं;
दो, चीन, जिसके कारण पश्चिम को सदा यह आशंका रहती है कि कहीं पाकिस्तान उसके साथ न चला
जाए;
और तीन, खाड़ी में एक ऐसा भूरणनीतिक स्थान है जो वाशिंगटन
के चिर प्रतिद्वंद्वी रूस के कारण महत्वपूर्ण है।
जैसी कि संभावना
है, अगर पाकिस्तान बलूचिस्तान,
पख्तूनिस्तान और सिंध में विभाजित हो जाता है, 110 मिलियन (उत्तर प्रदेश का आधा) की आबादी के साथ, पाकिस्तान पंजाबिस्तान भर रह
जाएगा, फिर जिहादी आतंकवादियों को इस्लामाबाद की सुरक्षा भी ख़तम हो जाएगी ।
अतः वाशिंगटन का
मानना है कि रोग का इलाज रोग से भी बदतर है। अमरीका सोचता है कि हक्कानी आतंकी
समूह शिकारी कुत्ता है, जबकि पंजाब मूल के आतंकी महज खरगोश और पाकिस्तान इसी अमेरिकी
पागलपन का लुत्फ़ ले रहा है ।
पता नहीं कि पश्चिम
ने पेशावर, क्वेटा और कराची की
दीवारों पर लिखे सांप्रदायिक लेखन को पढ़ा या नहीं ?
पाकिस्तान पश्चिम
का सहयोगी बहुत सीमित उद्देश्य के लिए बना हुआ है, पश्चिम को समझना चाहिए कि बोतल
से बाहर आये आतंक के जिन्न को वापस बोतल में धकेलना असंभव है।
अंत में पाकिस्तान को उसी
पल का सामना करना है ।
सौजन्य: डेली मेल
के लेख का हिंदी रूपांतर
Tags :
लेख
एक टिप्पणी भेजें