प्रजातंत्र के चतुर्थ स्तम्भ में लगी दीमक को समाप्त करना ही होगा !



सन 2012 में अंतर्राष्ट्रीय विधि अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक तथा अमेरिका में डेनवर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर वेद नंदा भोपाल आये ! एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिका के लोगों में ध्यान, योग तथा आयुर्वेद के प्रति जिज्ञासा का भाव है तथा वे उसे सीखना चाहते हैं | वहां सम्पन्नता और समृद्धि होते हुए भी शून्य महसूस किया जा रहा है, वे कुछ आध्यात्मिक ज्ञान चाहते हैं | किन्तु दुर्भाग्य से भारत के विषय में बहुत से मनगढ़ंत किस्से प्रचलित होते हैं | सती प्रथा व दलितों के साथ व्यवहार के कस्से नमक मिर्च के साथ सुने सुनाये जाते हैं | इसका मुख्य कारण यह है कि भारत के अंग्रेजी समाचार पत्र जो जहर फैलाते हैं, उसके कारण वहां की प्रेस भी प्रभावित होती है | कुछ समाचारों पर आपत्ति करने पर न्यूयार्क टाईम्स के एक पत्रकार ने व्यक्तिगत चर्चा में इन्डियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाईम्स आदि की प्रतियां बताई जिनके आधार पर अपमानजनक कहानी प्रकाशित हुई थी |

आखिर हमारे पत्रकार ऐसा लेखन क्यों करते हैं ? इसका उत्तर एक ही है, कि आजादी के बाद देश के औसत चरित्र में आया मूलभूत परिवर्तन ! आखिर पत्रकार भी तो आमजन में से ही हैं ! नेतृत्व या कुछ लोगों के आचरण-व्यवहार की तुलना में आम नागरिकों का चरित्र राष्ट्र को अधिक प्रभावित करता है ! चरित्र एक मानसिकता है ! कोई क्या खाता पीता है, क्या पहनता है, रहन सहन या महिलाओं के प्रति दृष्टि ही चरित्र नहीं है ! जीवन मूल्य, समाज और देश के कार्य करने की सिद्धता भी उसके अंतर्गत आती है !

किन्तु एक बात और भी विचारणीय है वह यह कि चरित्र गोड गिफ्ट नहीं है ! इसे प्रयत्न पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है ! मां के दूध, पिता की शिक्षा, वातावरण और परिवेश से जो व्यक्तित्व बनता है, उसे ही उस व्यक्ति का चरित्र कहते हैं ! कई बार परिस्थितियाँ भी व्यक्ति के चरित्र को बदल देती हैं ! जैसे डाकू से संत बने वाल्मीकि में आया बदलाव ! क्लाईव इंग्लेंड में एक गुंडा था जिससे सब परेशान थे ! अंग्रेज जब भारत में आये तब उससे छुटकारा पाने के लिए उसे भी भारत भेज दिया गया ! किन्तु उसने यहाँ आकर अंग्रेज साम्राज्य की नींव मजबूत की और लोर्ड की उपाधि से सम्मानित हुआ !

चरित्र के भी दो पहलू हैं – व्यक्तिगत और सामाजिक ! मेरे कार्य का देश और समाज पर क्या प्रभाव होगा इसे स्मरण रखकर कार्य करना, इसे कहेंगे सामाजिक चरित्र !

आज सामाजिक चरित्र के मामले में दुनिया के अन्य देश हमसे आगे हैं, इसीलिए वे प्रगति कर रहे हैं ! कांधार विमान अपहरण के समय देश की मीडिया ने कैसे कैसे दृश्य लोगों को दिखाए ! परिजनों का रोना चीखना, बच्चों का विलाप ! राजनेताओं ने भी ज्यादा सोचा नहीं ! उग्रवादी छोड़े और विमान को बापस ले आये ! जैसे दुनिया जीत ली हो ! अविभाजित रूस के चेचन्या में उग्रवादियों ने सिनेमाघर में दर्शकों को बंधक बना लिया ! रणनीति बनाई गई, झुके नहीं ! अंदर जो उग्रवादी थे उन्हें गैस छोडकर बेहोश किया गया ! कुछ आम नागरिक भी मरे, किन्तु किसी पत्रकार ने छाती नहीं कूटी !

उपरोक्त दोनों उदाहरण, हमारे सामाजिक सोच पर प्रश्न चिन्ह हैं ! आज़ादी के पूर्व महर्षि अरविंद ने ६१० रु. की नौकरी छोडकर एक समाचार पत्र में ६० रु, की नौकरी की ! लोकमान्य तिलक जी ने केसरी का प्रकाशन तीन भाषाओं में किया, मराठी, हिन्दी तथा अंग्रेजी ! 1910 में इसके प्रकाशन के मूल में राष्ट्रवाद की परिकल्पना थी ! 1933 में गांधी जी ने हरिजन का तथा बाद में नेहरू जी ने नेशनल हेराल्ड का प्रकाशन किया, तो उनका मकसद भी भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन को बल देना था !

आज जो राष्ट्र सशक्त दिखाई दे रहे हैं, उन्हें सशक्त बनाने में उस देश की मीडिया ने प्रमुख भूमिका अदा की है ! कहा जाता था कि किसी जमाने में युनियन जैक कभी सूर्यास्त का सामना नहीं करता था, पूरे विश्वमें उसके इतने उपनिवेश थे ! इंग्लेंड की इस शक्ति में बीबीसी की भी भूमिका थी ! 31 अक्टूबर 1984 को जब हमारी सशक्त प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की ह्त्या हुई, तब इस समाचार पर लोगों ने तब तक विश्वास नहीं किया, जब तक कि बीबीसी द्वारा पुष्टि नहीं कर दी गई !

सीएनएन सदैव अमेरिकन हितों का ध्यान रखता है ! इसी प्रकार अलजजीरा गल्फ देशों का, बीबीसी इंग्लेंड का, प्रावदा रूस के हितों को ध्यान में रखता है ! किन्तु भारत में अभी तक भारत के हित देखने वाली, भारत के द्रष्टिकोण से देखने वाली मीडिया का अभाव है !

9 – 11 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को जहाज टकराकर क्षति ग्रस्त कर दिया गया, अमेरिकी मीडिया ने आलोचना की तो यह की कि अरब देशों का हाथ होने के बाबजूद सऊदी अरब को प्रतिबंधित क्यों नहीं किया गया ! सोचिये भारत में ऐसा कुछ हुआ होता तो क्या होता ? रवीश कुमार, राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त सबके सब शोर मचाकर इसे दुर्घटना प्रमाणित करने में जुट जाते ! जेएनयू टोली का एक ही मकसद है कि भारत कैसे खोखला हो !

अब सवाल उठता है कि आजादी के पहले की ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कहाँ खो गई ? दरअसल बाजारवाद की बाढ़ ने वह जमीन ही डुबो दी, जिस पर राष्ट्रवाद की फसल लहलहाया करती थी ! आज भारतीय मीडिया विशेषकर अंग्रेजी मीडिया पर फोरहन फंडेड NGO का अत्यधिक प्रभाव है | कांग्रेस सरकार में इन्हें खुली छूट मिल गई थी | इस फंडिंग का प्रभाव विश्वविद्यालयों व अन्य संस्थाओं पर भी स्पष्ट दिखाई देता है | ये लोग समस्याओं को सनसनीखेज बनाकर परोसते हैं, किन्तु समस्या के समाधान के चिंतन में इनकी कोई रूचि नहीं होती | मलेरिया के मरीज को बीमार है बीमार है चिल्ला चिल्ला कर निमोनिया की दवा दिलवाने का काम आज का मीडिया कर रहा है |

पत्रकारों की स्वतंत्रता का भी हनन हुआ है, कलम की स्वतंत्रता मीडिया घरानों के यहाँ गिरवी रखी है ! पेड न्यूज़ का बोलबाला है ! विज्ञापनों के आधार पर चलने वाले समाचार पत्र पत्रिकाएं अपनी स्वाधीनता कैसे बचा कर रख सकती हैं ?

यह तो हुई समस्या की चर्चा, पर इसका समाधान क्या ? देश में आमजन का औसत चरित्र, मीडिया का कार्य व्यवहार देश की वर्तमान स्थिति में अधिक सुसंगत बने कैसे ? मार्क्स का एक प्रसिद्ध वाक्य सब जानते हैं – गुलाम को गुलामी का अहसास करा दो, वह विद्रोह कर देगा !

समस्या की सार्थक चर्चा भी समाज को आइना दिखाने जैसा ही है ! आचार्य बिनोबा का कथन है कि सार्थक विचार के बीज बिखेर देने चाहिए, वे हवा में घूमते रहेंगे, सही भूमि, पानी और वातावरण मिलेगा, तो वे उगेंगे !

अभी पिछले दिनों की ही बात है, जब अक्टूबर में यह समाचार सामने आया कि प्रसिद्ध टीवी एंकर अर्नब गोस्वामी टाइम्स छोड़ने जा रहे हैं, तब उनके प्रशंसकों को लगा कि निश्चय ही अर्नब जल्द ही किसी नए प्रकल्प के साथ सामने आयेंगे जो पत्रकारिता के नए स्वरुप का प्रतीक होगा । 

यह अनुमान सत्य भी निकला, जब जयपुर में एक हिंदी दैनिक “दैनिक भास्कर” द्वारा आयोजित एक समारोह में गोस्वामी ने अपने नए प्रकल्प "रिपब्लिक" की घोषणा की ! उन्होंने इस विषय में अपने विचार रखते हुए कहा कि पत्रकारिता राजनैतिक प्रभावों से मुक्त होनी चाहिए । 

उन्होंने एक घटना का भी वर्णन किया कि 1996 में जब वे पश्चिम बंगाल के सीपीएम कार्यालय में ही तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु का साक्षात्कार लेकर लौट रहे थे, तब कार्यालय के प्रवेश द्वार पर सीपीएम के एक कार्यकर्ता ने उनसे बदसलूकी की, हाथापाई की, मुझे धक्का दिया, मेरा सर दीवार से टकराया, मुझ से मेरा कैमरा छीन लिया ! 

इसके बाद जब मैंने वापस जाकर नेताओं से इसके लिए माफी माँगने को कहा, तो मुझे जबाब मिला कि यह आपकी निजी लड़ाई है, आपको स्वयं लड़ना चाहिए ।मैंने माकपा कार्यालय के बाहर भूख हड़ताल शुरू कर दी, कि जब तक माफी नहीं मांगी जाती, मैं वहीं बैठा रहूँगा । अंततः मेरे हाथों में माफीनामा आ ही गया ! इस प्रकार की घटनाओं ने मुझे "रिपब्लिक" शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया । 

राजनेता समाचार चैनलों और पत्रकारों को विज्ञापन देते हैं और साथ में गालियाँ भी । 'रिपब्लिक' प्रारम्भ करने के पीछे मूल विचार है पत्रकारिता के दृष्टिकोण को बदलने का । 

उन्होंने कहा कि मैंने जब टाईम्स नाऊ छोड़ा था, तब कई लोग खुश हुए थे कि अब मैं कुछ नया करूंगा, अब वे मेरी “रिपब्लिक” के साथ वापिसी से निश्चित ही संतुष्ट हुए होंगे । हालांकि लोगों ने मुझसे यह भी पूछा कि इन बड़ी बड़ी कंपनियों के सामने आप कैसे ठहरेंगे ? पैसा बहुत बड़ी ताकत है, जबकि आपके पास तो वह है नहीं । 

मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं एक व्यापारी नहीं हूँ, जबकि आज की पत्रकारिता उद्योग है । किन्तु मेरा नजरिया कुछ अलग है, मैं इस देश पर विश्वास करता हूँ । इसीलिए मैंने अपने उद्यम का नाम 'रिपब्लिक' रखा है । इसका सीधा अर्थ है “लोगों के लिए”, मैं इस भावना को मंद नहीं पड़ने दूंगा और लोगों के दिलों तक पहुचूँगा । यदि मुझमें सचाई है, तो मैं जानता हूँ कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे ।

अर्नब जैसे पत्रकार आशा बंधाते हैं, कि अभी सब कुछ बिगड़ा नहीं है, सुधार की संभावना कायम है ! ऐसे में आमजन को क्या करना चाहिए ? आज सोशल मीडिया की जन पत्रकारिता ने काफी हद तक बुराई को थामा है ! अपना काम विचार का अलख जगाना है, अलख जगाते हुए घूमते रहना है. लिखते रहना है ! प्रजातंत्र में पत्रकारिता सत्ता सापेक्ष या सत्ता विरोधी पाटों में पिसने के स्थान पर समाज परिवर्तन की धुरी बने, लोक केन्द्रित हो, यही आदर्श स्थिति होगी ! जब तक नहीं हुई, तब तक प्रयत्न जारी रखना होगा ! आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में पत्रकारिता का देश और समाज हितैषी रूप देखने को मिलेगा !

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