ममता ने चुना मुस्लिम तुष्टीकरण का घिनौना मार्ग - मिन्हाज़ मर्चेंट


लेखक परिचय – टाईम्स ऑफ़ इंडिया तथा इण्डिया टुडे से अपना पत्रकार जीवन प्रारम्भ करने वाले मिन्हाज़ मर्चेंट राजीव गांधी तथा आदित्य बिड़ला की आत्मकथाओं के लेखक भी हैं ! उनकी गणना देश के ख्यातनाम लेखकों में होती है ! उनकी नवीनतम पुस्तकें The New Clash of Civilizations: How the Contest Between America, China, India और Islam Will Shape Our Century चर्चित हैं !

मैं तब एक अल्पवयस्क किशोर ही था, जब ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच हो रहे डेविस कप टेनिस मैच देखने के लिए पहली बार मैं कोलकता गया । उस मैच में विजय अमृतराज ने 17 वर्षीय स्वीडिश खिलाड़ी ब्योर्न बोर्ग को 3-2 से पराजित कर जीत हासिल की ! खुशी से झूमते भारतीय दर्शकों से भरे उस मैदान में मेरे साथ बैठे मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा – मार्क मेरे शब्द लिखकर रख लो कि एक दिन यह हारा हुआ खिलाड़ी ही विंबलडन जीतेगा ! और सच में ही दो वर्ष बाद 1976 में 19 वर्षीय बोर्ग ने वह कारनामा कर दिखाया ।

इतिहास

कोलकाता तब एक सुखद शहर था। कम्युनिस्टों के क्रूर विनाशक पंजे तब वहां नहीं थे । ममता बनर्जी उन दिनों कांग्रेस (आई) की एक युवा छात्र नेता थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने मास्टर डिग्री के लिए जो विषय चुना, वह था - इस्लामी इतिहास ।

40 साल बाद अब, जबकि वह पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप में अपना छः वर्षीय कार्यकाल पूर्ण कर रही हैं, बनर्जी ने राज्य पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली है। किन्तु उन्होंने यह किया है पश्चिम बंगाल में अभूतपूर्व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माध्यम से ।

अपनी ताकत को मजबूत करने के लिए, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने बंगाल के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को नष्ट भ्रष्ट कर दिया है । विडंबना यह है कि स्वयं को धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप प्रचारित करने वाली ममता बैनर्जी, योजनाबद्ध तरीके से सांप्रदायिक राजनीति करने वाली सबसे सनकी और प्रबल कर्ताधर्ता है।

यूं तो जनगणना के आंकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की आबादी 27 प्रतिशत है, किन्तु अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण आज पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की वास्तविक आवादी 30 फीसदी के करीब हो चुकी है । ममता बनर्जी ने इस आवादी को ही अपनी सत्ता की सीढी बनाया हुआ है । ऐसा नहीं है कि उन्होंने इन लोगों के जीवन स्तर में कोई सुधार किया हो, अथवा इनका कोई विकास किया हो, हां मदरसों को मुक्त हस्त से दान देकर और नौकरियों में आरक्षण के झांसे से उन्होंने इन लोगों को अपने साथ किया हुआ है ।

ममता के बंगाल में मुसलमान खस्ताहाल ही हैं, गरीबी और भुखमरी से जूझते हुए । उनमें अगर कोई खासियत है तो केवल यह कि वे सामूहिक रूप से वोट देते हैं । भले ही वे कुल आवादी का महज 30 फीसदी ही हैं, किन्तु बहुसंख्यक हिन्दूओं के विभाजन के कारण चतुर सुजान ममता ने उन पर अपनी पकड़ मजबूत की हुई है ।

पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी जबरदस्त जीत हैरतअंगेज है । गरीबी और सांप्रदायिकता उसकी मुख्य ताकत हैं ।

बंगाल के बाहर के शायद ही किसी व्यक्ति ने दो हफ्ते पहले तक धौलागढ़ का नाम सुना हो । हावड़ा जिले का यह छोटा सा औद्योगिक और व्यापार केंद्र उस समय कुख्यात हुआ, जब मुस्लिम आतताईयों की भीड़ ने हिंदुओं पर हमला किया और उनके घरों को जला दिया। कहा जाता है कि हिंदुओं के एक समूह द्वारा पैगंबर के जन्मदिन ईद-ए-मिलाद, पर मुस्लिम संगठनों द्वारा निकाले जाने वाले जुलूस पर आपत्ति जताने के बाद ये हमले शुरू हुए ।

मुख्यधारा के मीडिया ने आम तौर पर धौलागढ़ हिंसा के मामले को अनदेखा किया है । किन्तु स्वराज्य मैगजीन ने हिंसक घटनाओं की जो तस्वीर पेश की है, वह इस प्रकार है - " ईद-ए-मिलाद का सार्वजनिक अवकाश वास्तव में 12 दिसंबर को था, और वह मनाया भी जा चुका था, किन्तु इसके बाद भी मुसलमानों का एक जुलूस 13 दिसंबर को लाउडस्पीकरों द्वारा हिंदी फिल्म संगीत के कानफाडू शोर के साथ निकाला गया, जबकि उस दिन देश के अन्य भागों की तरह धौलागढ़ गाँव के हिन्दू भी मार्गशीर्ष पूर्णिमा के धार्मिक अनुष्ठान आदि कर रहे थे । स्वाभाविक ही हिंदुओं ने लाउडस्पीकर की आवाज कम करने हेतु आग्रह किया, क्योंकि उसके कारण धार्मिक अनुष्ठानों में बाधा हो रही थी ।

हिंसा

"बस फिर क्या था, जुलूस में शामिल लोग नाराज हो गए और उन्होंने हिंदू घरों और दुकानों पर हमला शुरू कर दिया। स्थानीय लोगों के मुताबिक, हमलावर मुसलमान स्थानीय नहीं थे। हिंदू घरों और दुकानों को लूटकर उनमें आग लगा दी गई ! जब पुलिस दल ने गांव में पहुंचकर दंगाइयों को रोकने की कोशिश की, तो उस पर बमों से हमला किया गया । "

कल्पना कीजिए कि अगर इस प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा किसी भाजपा शासित राज्य में होती, तो क्या होता ? निश्चय ही यह समाचार एक दिन नहीं, बल्कि कई दिनों तक मीडिया की सुर्ख़ियों में जगह बनाता, अग्रलेख लिखे जाते । धौलागढ़ के मामले में मीडिया कवरेज न के बराबर रहा । स्वाभाविक ही सोशल मीडिया के युग में घटना छुप नहीं सकी और सोशल मीडिया पर हुई तल्ख़ टिप्पणियों के बाद अंततः, दर्जनों हिंदू घरों की भीषण आगजनी के समाचारों को प्रसारित करने हेतु टेलीविजन एंकर और अखबार के संपादकों को विवश होना पड़ा ।

हिंसक टीएमसी कार्यकर्ताओं द्वारा उकसाया गया धौलागढ़ काण्ड तो उस सांप्रदायिक हांडी का महज एक चावल है जिसमें पश्चिम बंगाल झुलस रहा है । अगर सीपीआई (एम) ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर देश को ठगा, तो टीएमसी तो खुलेआम सांप्रदायिक क्रूरता की पराकाष्ठा है। दंगा ही उसका पसंदीदा आदर्श जीवन दर्शन है ।

युद्ध क्षेत्र 

वेबसाइट “CatchNews” ने इस वर्ष के प्रारम्भ में प्रकाशित किया था - "पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के कार्यकाल के दौरान सांप्रदायिक हिंसा की चुभन कुछ ज्यादा ही महसूस की जा रही है । 2013 में कुख्यात लूटपाट और दंगों की सांप्रदायिक घटनाएं बढ़कर 106 हो गई, जबकि इसके पूर्व के पांच वर्षों में यह संख्या महज 12-40 सांप्रदायिक घटनाएं ही हुई । इसका मुख्य कारण है ममता द्वारा अपनाई गई तुष्टीकरण की राजनीति, जिसके चलते उसके सत्ता में आने के बाद पश्चिम बंगाल में मुस्लिम कट्टरपंथियों को प्रोत्साहन मिला है । "

ममता बनर्जी स्वयं को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करना चाहती हैं । जैसा कि पहले अरविंद केजरीवाल, मुलायम सिंह यादव और शरद पवार जैसे लोग करते आये हैं, ममता ने भी शीर्ष पर पहुँचने के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण का घिनौना मार्ग अपना लिया है । इन लोगों को यही लगता है कि मुसलमानों को खुश करने से ही राजनैतिक ताकत मिलती है ।

गैर सरकारी संगठन हों, चाहे मानवाधिकार कार्यकर्ता, बे भारत में कहीं भी अन्यत्र होने वाली सांप्रदायिक हिंसा की निंदा करने में फुर्ती दिखाते हैं, किन्तु धौलागढ़ के मामले में चुप्पी साधे हुए हैं । उन्हें बंगाल की तरफ भी ध्यान देना चाहिए । इस सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं कि बंगाल को चाहिए एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष मुख्यमंत्री ।

सौजन्य: DailyO

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