वह जलता चला गया, पर बढ़ता चला गया !

 



यह कहानी है, भारत के सबसे कम उम्र में परमवीर चक्र पाने वाले जांबाज बहादुर सेनानी अरुण खेत्रपाल की ! 14 अक्तूबर, 1950 को पूना में जन्मे अरुण को फ़ौजी संस्कार घुट्टी में ही मिले थे ! अरुण के परदादा सिख सेना में कार्यरत थे और 1848 में उन्होंने ब्रिटिश सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी। उनका मोर्चा चिलियाँवाला में हुआ था। अरुण के दादा जी पहले विश्व युद्ध के सैनिक थे तो पिता जी ब्रिगेडियर मदन लाल खेत्रपाल अतिविशिष्ट सेना मेडल (AVSM) से नवाजे गए थे ।

तो अरुण की कहानी की शुरूआत थोडा बाद से करते हैं । उनके बलिदान के भी बाद से, उनके परमवीर चक्र प्राप्त कर लेने के भी बाद से ! हैं न उल्टी बात ? किन्तु यही तो खासियत होती है, महानायकों की, कि उनकी गाथा उनके जाने के बाद जन्म लेती है !

तो हुआ कुछ यूं कि बेटे की शहादत के कुछ समय बाद ही अरुण के पिता ब्रिगेडियर मदन लाल खेत्रपाल को पाकिस्तान से सन्देश मिला कि कोई उनसे मिलना चाहता है। ऐसे सन्देश का आना भारत और पाकिस्तान के बीच शांति प्रक्रिया स्थापित करने वाली 'ट्विन ट्रैक डिप्लोमेटिक एफर्ट' इकाई द्वारा हुआ था, जिसमें सन्देश भेजने वाले की पहचान सामने नहीं आती और ना ही मिलने की इच्छा का कारण स्पष्ट होता ! अतः खेत्रपाल ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। बात आई गई हो गई। 

अरुण खेत्रपाल का पैतृक परिवार सरगोधा से जुड़ा हुआ था, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया। पद मुक्त हो जाने के बाद क़रीब अस्सी वर्ष की आयु में अरुण के पिता की इच्छा हुई कि वे अपनी पितृ भूमि सरगोधा जाकर कुछ समय बिताएँ। अब परमवीर चक्र विजेता के बुजुर्ग पिता की इच्छा का सम्मान कैसे न रखा जाता ? वीसा आदि जारी किया गया। पाकिस्तान सरकार ने भी उनकी सरगोधा में रहने की व्यवस्था देखने के लिए एक जिम्मेदार फौजी अधिकारी को तैनात किया । उस अधिकारी ने उन्हें जितना भाव भीना सत्कार तथा गहरी आत्मीयता दी वह उनको गहरे तक प्रभावित कर गई। उन्हें उस व्यक्ति ने अपने परिवार में अंतरंगता पूर्वक स्थान दिया। यह वर्ष 2001 की बात है। जब अरुण की वीरगति को तीस वर्ष बीत चुके थे और वह परमवीर चक्र से सम्मानित किए जा चुके थे। 

शत्रु पक्ष भी हुआ वीरता का क़ायल

पाकिस्तान में जिस अधिकारी को ब्रिगेडियर मदनलाल खेत्रपाल का आतिथ्य कार्य सौंपा गया था, वह पाक सेना की 13 लैंसर्स के ब्रिगेडियर के. एम. नासर थे। इनके अंतरंग आतिथ्य ने खेत्रपाल को काफ़ी हद तक विस्मित भी कर दिया था। जब खेत्रपाल की वापसी का दिन आया तो नासर परिवार के लोगों ने खेत्रपाल के परिवार वालों के लिए उपहार भी दिए और ठीक उसी रात ब्रिगेडियर नासर ने ब्रिगेडियर खेत्रपाल से कहा कि वह उनसे कुछ अंतरंग बात करना चाहते हैं। फिर जो बात उन्होंने खेत्रपाल से कि, वह लगभग हिला देने वाली थी। ब्रिगेडियर नासर ने खेत्रपाल को बताया कि 16 दिसम्बर 1971 को शकरगढ़ सेक्टर के जारपाल के रण में वह ही अरुण खेत्रपाल के साथ युद्ध करते हुए आमने-सामने थे और उन्हीं का वार उनके बेटे के लिए प्राण घातक बना था। खेत्रपाल स्तब्ध रह गए थे। नासर का कहना जारी रहा था। नासर के शब्दों में एक साथ कई तरह की भावनाएँ थी। वह उस समय युद्ध में पाकिस्तान के सेनानी थे इस नाते अरुण उनकी शत्रु सेना का जवान था, और उसे मार देना उनके लिए गौरव की बात थी, लेकिन उन्हें इस बात का रंज भी था कि इतना वीर, इतना साहसी, इतना प्रतिबद्ध युवा सेनानी उनके हाथों मारा गया। वह इस बात को भूल नहीं पा रहे थे।

ब्रिगेडियर नासर ने कहा कि 'बड़े पिण्ड' की लड़ाई के बाद ही लगातार अरुण के पिता से सम्पर्क करना चाह रहे थे। बड़े पिण्ड से उसका संकेत उसी रण से था, जिसमें अरुण मारा गया था। नासर को इस बात का दुख था कि वह ऐसा नहीं कर पाए, लेकिन यह ऊपर वाले की महरवानी रही कि अंततः इस बहाने ब्रिगेडियर खेत्रपाल से भेंट हो ही गई। नासर और खेत्रपाल की इस बातचीत के बाद, दोनों के बीच सिर्फ सन्नाटा रह गया था। लेकिन खेत्रपाल के मन में इस बात का संतोष और गौरव ज़रूर था कि उनका बेटा इतनी बहादुरी से लड़ता हुआ शहीद हुआ कि शत्रु पक्ष भी उसे भूल नहीं पाया और शत्रु के मन में भी उनके बेटे को मारने का दुख बना रहा, भले ही यही उसका कर्तव्य था।

क्या थी वह बेमिसाल बहादुरी ?


अरुण खेत्रपाल जब फौज में नियुक्त हुए उस समय भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की भूमिका बन रही थी। पूर्वी पाकिस्तान की बंगाली जनता पश्चिमी पाकिस्तान के हुक्मरानों की बर्बरता का निरीह शिकार हो रही थी और भारत की सीमा में त्राहि त्राहि करते बांग्ला भाषी शरणार्थी बढ़ते जा रहे थे। अंतत: 3 दिसंबर 1971 को युद्ध की रणभेरी बज ही गई । अरुण की ड्यूटी पश्चिमी पाकिस्तान के शकरगढ़ सेक्टर में लगी हुई थी ! भारतीय सेना पाकिस्तान को रोंदती हुई, उसकी सीमा में दस किलोमीटर से अधिक पहुँच गई थी ! रावलपिंडी जीतना भी कोई मुश्किल नहीं लग रहा था ! ऐसे में पाकिस्तान की सीमा के अन्दर से 10 दिसंबर 1971 को अरुण ने अपने पिता को एक पत्र लिखा –

'डियर डैडी, हमें बहुत आनन्द आ रहा है। हमारी रेजिमेंट की बहादुरी का सिक्का दुनिया भर से ऊपर है। हम जल्दी ही यह लड़ाई खत्म कर देंगे।'


16 दिसम्बर 1971 को अरुण खेत्रपाल एक स्क्वेड्रन की कमान संभालते हुए ड्यूटी पर तैनात थे तभी एक-दूसरे स्क्वेड्रन का सन्देश आया कि उन्हें दुश्मन की सशक्त सेना का सामना करने के लिए मदद की जरूरत है ! सन्देश मिलते ही अरुण खेगपाल अपनी टुकड़ी लेकर के जरपाल पर तैनात उस स्क्वाड्रन की मदद के लिए चल पड़े । 

एक टेंक पर वे स्वयं सवार थे और दुश्मन की गोलाबारी से बेपरवाह उनके टैंकों को बर्बाद करते जा रहे थे। किन्तु तभी उनका टैंक भी निशाने पर आ गया और उसमें आग लग गई। किन्तु अरुण को परिस्थिति की गंभीरता का अहसास था कि उनका डटे रहना दुश्मन को रोके रखने के लिए कितना जरूरी है। 

वह जलता चला गया पर गोले बरसाता हुआ बढ़ता चला गया !

उन्होंने अपनी जान बचाने के लिए हट जाना मंजूर नहीं किया और अपने से सौ मीटर दूर दुश्मन के एक टैंक को और बर्बाद कर दिया। जलते हुए टैंक से भी बरसते हुए गोले देखकर पाकिस्तानी फ़ौजी हैरत में थे, और भयभीत भी, साथ ही इस जांबाज नौजवान की हिम्मत की दाद भी दे रहे थे ! तभी उनके टैंक पर एक और गोला आकर गिरा और वह बेकार हो गया। इसके साथ ही रणबांकुरा अरुण मातृभूमि की गोद में सो गया ! और छोड़ गया अपनी बहादुरी और देशभक्ति की अमर दास्तान ! उसकी शहादत ने भारतीय सेनानियों को इतने जोश से भर दिया कि फिर तो वे भी सर पर कफ़न बांधकर बहादुरी से दुश्मन पर टूट पड़े।

भारत पाकिस्तान का युद्ध तो 17 दिसम्बर 1971 को खत्म हुआ, किन्तु अरुण खेत्रपाल तो एक दिन पूर्व ही यानी 16 दिसम्बर 1971 को उसे जीतकर हँसी-हँसी महायात्रा पर निकल चुके थे। अरुण खेत्रपाल की बहादुरी और जोश के चर्चे तो देश भर में कहे गए और आज भी कहे जाते हैं, लेकिन उनकी असली बहादुरी तो दुश्मन द्वारा उनकी चर्चा में सामने आती है।