कसौटी पर मोदी नीति - 4 दिसंबर 2014 को प्रकाशित श्री ब्रह्मा चेलानी के एक संग्रहणीय आलेख का अनुवाद



मोदी की विदेश नीति भारत को अधिक प्रतिस्पर्धी, विश्वस्त और सुरक्षित देश के रूप में नए सिरे से तैयार करने में सक्षम प्रतीत होती है । यद्यपि मजबूत विदेश नीति की बुनियाद मजबूत घरेलू नीति ही होती है |
भारत – जहाँ सम्पूर्ण विश्व का छठवा भाग निवास करता है – अपनी शक्ति से बहुत कम प्रहांर करता है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह नियम-निर्माता नहीं नियम मानने वाला देश है। 2013 में 'भारत की कमजोर विदेश नीति” शीर्षक से “जर्नल फॉरेन अफेयर्स” पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित हुआ था, जिसमें इस बात पर ध्यान केन्द्रित किया गया था कि किस प्रकार भारत स्वयं अपनी प्रगति में बाधक है, किस प्रकार राजनैतिक बहाव ने उसे खुद के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में बदल दिया है ।
25 साल पहले बर्लिन की दीवार गिरने के बाद दुनिया ने बहुत थोड़े समय में बहुत गहरे तकनीकी, आर्थिक और भू राजनीतिक परिवर्तन देखे । दुर्भाग्य से भारत के समग्र प्रभावशाली आर्थिक विकास के बावजूद, पिछले 25 साल अधिकांशतः राजनीतिक प्रवाह कमजोरी का रहां । उदाहरण के लिए, 1989 और 1998 के बीच, भारत में लगातार कमजोर सरकारें रहीं । यदि यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि विगत दो बार का प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कार्यकाल रणनैतिक द्रष्टि से "विलुप्त दशक" रहा ।

क्षेत्रीय प्रभाव की अधोगति 

लंबे समय तक रहे नेतृत्व संकट के परिणाम स्वरुप भारत की क्षेत्रीय और अतिरिक्त क्षेत्रीय शक्ति में तेजी से कमी आई । चीन और भारत के मध्य शक्ति और प्रभाव का अंतर काफी बढ़ गया । अंततः चौथाई शताब्दी में चीन काफी आगे निकल गया ।
भारत के लिए अधिक परेशानी की बात यह रही कि उसके सामरिक महत्व के नजदीकी क्षेत्रों में वह कमजोर हो गया । यहां तक कि छोटा सा मालदीव भारत को ठुकरा कर उससे दूर हो गया । उसने ठोकर मारकर राजधानी माले में कार्यरत भारतीय एयरपोर्ट ऑपरेटर बाहर निकाल दिये तथा बिना किसी परिणाम की चिंता किये सार्वजनिक रूप से भारतीय राजदूत के कपड़े उतरवा दिए । नेपाल में भी भारत ने स्वयं को चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में पाया, और श्रीलंका में तो भारत की स्थिति चीन की तुलना में दोयम दर्जे की हो गई ।
अजीब विरोधाभास था कि एक ओर तो भारत की अर्थव्यवस्था विकसित हो रही थी किन्तु भारत का क्षेत्रीय प्रभाव कम हो रहा था । इससे यही प्रगट होता है कि ठोस, सामरिक लक्ष्यों के अभाव में जीडीपी विकास दर मजबूत विदेश नीति में रूपांतरित नहीं होती, उसके लिए एक गतिशील और दूरंदेशी नेतृत्व आवश्यक है । इंदिरा गांधी के समय भारत आर्थिक रूप से कमजोर था किन्तु विदेश नीति बहुत मजबूत थी, जिसके कारण कोई पड़ोसी उसके साथ गड़बड़ करने का साहस नहीं जुटा पाता था ।
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, नरेंद्र मोदी का राजनीतिक उदय पांसा पलट सकता है, क्योंकि उनकी विशेषता सुनिश्चितता है । देश के आर्थिक विकास और सैन्य सुरक्षा को पुनर्जीवित करने पर उन्होंने ध्यान दिया है।
किसी भी पिछले भारतीय प्रधानमंत्री ने श्री मोदी के समान कार्यालय संभालने के पहले ही महीने में इतनी बहुपक्षीय उच्च स्तरीय और द्विपक्षीय शिखर बैठकों में भाग नहीं लिया। निश्चय ही भूराजनीति की भव्य बिसात पर श्री मोदी का ध्यान राष्ट्रीय हितों को बल देना होगा |
मोदी की विदेश नीति विचारों से संचालित है किसी विचारधारा से नहीं । दरअसल, श्री मोदी ने बहुत खूबी से अपने उच्चस्तरीय विचारों को सामान्य रूप देकर प्रस्तुत किया और जनमत को पक्ष में किया । घरेलू मोर्चे पर भी वे विचारों की शक्ति का उपयोग कर रहे है जैसे कि “स्वच्छ भारत” । सामरिक क्षेत्र में वे अपने “मेक इन इंडिया” मिशन को बहुतायत से आयात पर निर्भर रक्षा क्षेत्र में ले जा रहे हैं । अंततः श्री मोदी की क्षमता की असली परीक्षा उनके विचारों को परिवर्तनकारी उपलब्धियों में रूपांतरित होता देखने पर होगी।
उन्होंने फुर्तीली विदेश नीति प्रदर्शित की है जिसकी बानगी उनकी व्यवहारिकता है। यह उनकी प्राथमिकताओं में स्पष्ट झलकता है | विगत नौ वर्षों से अमरीका उन्हें बीजा न देकर अपमानित करता रहा, किन्तु अमेरिका के साथ संबंधों को बहाल करने में व्यक्तिगत रोष ज़रा भी आड़े नहीं आया । गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में श्री ओबामा की निर्धारित यात्रा भारत और अमेरिका के सम्बन्ध नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने का समन्वित प्रयास है | इससे श्री मोदी की बाजार समर्थक आर्थिक नीति तथा रक्षा आधुनिकीकरण के प्रति प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है ।
अमेरिका पहले से ही किसी अन्य देश की तुलना में भारत के साथ अधिक सैन्य अभ्यास आयोजित करता रहा है । और हाल के वर्षों में, यह चुपचाप भारत को सबसे अधिक हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में रूस से आगे निकल गया है ।

खाद्य सुरक्षा के मुद्दे

श्री मोदी के कार्यों ने खुद बोलना शुरू कर दिया है - जापान और इजरायल के साथ मजबूत भागीदारी निर्माण की दिशा में बढाए अपने कदम से उन्होंने पाकिस्तानी गोलाबारी और संघर्ष विराम का करारा जबाब दिया है | भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए केंद्रीय खाद्य-एकत्रीकरण मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में उनका दृढ निश्चय स्पष्ट दिखाई देता है ।
मानसून पर निर्भर व सूखा प्रभावित भारत के लिए किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से भोजन एकत्रीकरण 1960-शैली की अपमानजनक स्थिति के विरुद्ध बीमा पॉलिसी के रूप में कार्य करता है, जब नई दिल्ली अमेरिका के सम्मुख पी एल-480 कार्यक्रम के तहत विदेशी खाद्य सहायता हेतु कटोरा लेकर खडी थी । हालांकि, डॉ सिंह सरकार ने बाली में नर्मी से खाद्य एकत्रीकरण पर समझौते से व्यापार सुविधा समझौते को अलग किया । किन्तु संभावित परिद्रश्य यह है कि एकत्रीकरण मुद्दे पर 2017 के बाद सहमति देकर उन्होंने तय समयसीमा के बाद भारत की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया । श्री मोदी डॉ. सिंह द्वारा किये गए इस पक्के सौदे को समाप्त करने में सफल हुए | इसके अंतर्गत जब तक कोई स्थाई समाधान न निकले तब तक विकासशील देशों के 'खाद्य-एकत्रीकरण कार्यक्रम’ को विश्व व्यापार संगठन की किसी चुनौती का सामना नहीं करना होगा, इस प्रकार उन्हें दबाब से अनिश्चित काल के लिए मुक्ति मिल गई ।
श्री मोदी अपने पूर्ववर्ती नेताओं से भिन्न हैं, वे राजनयिक प्रतीकों को प्रमुख महत्व देते है । उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) शिखर सम्मेलन का उदघाटन संयोग से मुंबई आतंकी हमलों के दुखद सालगिरह के दिन हुआ, वहां उन्होंने उस घटना के मास्टरमाईंड पर मुकदमा चलाने से मना करने वाले पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ को पूरी तरह अनदेखा किया । केवल अगले दिन धुलीखेल रिट्रीट के अवसर पर ही श्री मोदी ने श्री शरीफ के साथ हाथ मिलाया। वास्तव में व्यापक क्षेत्रीय और वैश्विक एजेंडे पर ध्यान केंद्रित कर श्री मोदी ने पाकिस्तान को एक प्रकार से किनारे कर दिया | श्री मोदी ने हर अवसर पर पाकिस्तान को भारी दुविधा में डाला कि वह किसके साथ जुड़े ? राजनीतिक रूप से सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा कद कम करने के बाद श्री शरीफ जनरलों के कंधों पर बैठे एक तोते की तरह है जो भारत को हकलाते हुए उनकी प्रतिध्वनी सुनाने का प्रयत्न कर रहे थे ।
यह भी सच है कि श्री मोदी के सम्मुख प्रमुख क्षेत्रीय चुनौतियों हैं, भारत के आसपास के प्रतिशोधी वा क़ानून का मजाक बनाने वाले देश जिन्हें असफलता का घेरा भी कहा जा सकता है । भूगोल के इस अत्याचार के कारण भारत को अपनी कूटनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से और अधिक गतिशील और नवीन दृष्टिकोण विकसित करना होगा । भारत को प्रभाव बढाने के लिए सक्रिय रूप से क्षेत्रीय स्तर पर खुद को शामिल करना होगा, जोकि श्री मोदी करने के प्रयत्न में हैं । दरअसल, उनकी प्राथमिकता तब ही स्पष्ट हो गई थी जब उन्होंने अपने शपथग्रहण में क्षेत्रीय नेताओं को आमंत्रित किया था – भारत अपने भूतकाल में खोई जमीन को पुन: प्राप्त करना चाहता है ।
सार्क के काठमांडू सम्मेलन में जिस प्रकार पाकिस्तान ने अपनी अड़ंगेबाजी प्रदर्शित की, उससे निकट भविष्य में सार्क का महत्व कम होने की संभावना है। अतः भारत को अपने अन्य पड़ोसियों के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंधों का निर्माण करते समय, अपने पूर्व की ओर अधिक ध्यान देने की नीति को मजबूत करना चाहिए। भारत जब अपने पश्चिम की ओर देखता है तो उसे केवल और केवल मुसीबत ही दिखाई देती है। सीरिया से लेकर पाकिस्तान तक का पूरा क्षेत्र वास्तव में अस्थिरता और अतिवाद से भरा चाप सा है। अतः उसके पास अपने पूर्व की ओर ध्यान केन्द्रित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है । पूर्व की ओर ध्यान देकर भारत कहीं अधिक आर्थिक गतिशीलता में सहभागी हो सकता है ।
भले ही मोदी को पूर्व से विदेश नीति का कोई अनुभव न रहा हो, किन्तु उन्होंने विश्व के नेताओं के साथ वार्ता में प्रभावशाली राजनयिक कौशल का प्रदर्शन किया है। साहसिक नई दिशा में कदम बढाए हैं। भारत की खोई सामरिक ताकत को पुनः प्राप्त करने के लिए उनके पास दूरंदेशी दृष्टि है, और वे क्षेत्रीय दुश्मनों द्वारा की जाने वाली भड़काऊ गतिविधियों का जवाब देने में सक्षम हैं । अपने सक्रिय दृष्टिकोण और तत्परता से श्री मोदी ने पारंपरिक विदेश नीति के तौर तरीकों को झकझोर कर रख दिया है ।
इन सबके बीच मोदी की विदेश नीति भारत को दुनिया में अपनी सही जगह पर पहुँचाने का अटूट विश्वास लिए दिखाई देती है और भारत की सुरक्षा और संप्रभुता को नए सिरे से परिभाषित कर रही है । एक मजबूत विदेश नीति और साथ साथ मजबूत घरेलू नीति से श्री मोदी भारत को बदल सकते हैं, लेकिन उन्हें अभी यह साबित करना होगा ।

(ब्रह्मा चेलानी एक जाने माने रक्षा विशेषज्ञ व लेखक हैं।)

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