हमारा जन्म क्योँ ? - वैदिक पं. योगेश शर्मा

हम जीवात्माएं अनादि काल से सुख प्राप्ति की कामना से शरीर धारण कर्मानुसार करते आ रहे हैं, कौन सी आत्मा कितने वर्षों से इस यात्रा में है यह तो परमात्मा के अतिरिक्त किसी जीवात्मा के लिए जानना असंभव है।
ईश्वर ने हम जीवात्माओं के प्रति न्याय करते हुए हमें संसार का उपभोग करने और मोक्ष को प्राप्त करने के निमित्त यह अद्भुत संसार प्रकृति से बनाकर दिया।

गुण कर्मो के विभाग किये गए और सब को स्वकर्मानुसार शरीर प्रदान किये, किसी को पक्षी योनि प्राप्त हुई, किसी की पशु, कोई वृक्ष कोई वनस्पति कोई दृश्य जगत का निवासी हुआ तो कई अदृश्य जगत के हुए। परंतु इन सब योनियों में जो श्रेष्ठ शरीर था, जिसमे कर्म करने की स्वतंत्रता हो, आत्मा ज्ञान प्राप्त कर सके, कुछ नवीन सृजन कर सके वह मानव चोला ईश्वर ने दिया और उन मानव जाति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उनके अन्त:करण में ईश्वर ने कर्तव्य-अकर्तव्य, धर्म-अधर्म, विधि-निषेध आदि के ज्ञान हेतु परम पावन 'वेद' ज्ञान दिया।

वेद में सभी प्रकार की विद्याओं का भण्डार ईश्वर ने भरकर दे दिया। अब हमारा उत्तरदायित्व है कि हमने जन्म पाकर क्या किया ? जन्म तो हमने सैध्दांतिक रूप से दो ही उद्देश्यों के लिए प्राप्त किया संसार का सुख भोग और मोक्ष के लिए। परंतु क्या हम संसार का सुख भोग पा रहे हैं ? यह विचारणीय है। कितने अंशों मे हम संसार का सुख ले रहे है और किस विधि से ले रहे हैं, यह चिंतन का विषय है।

प्रायः हम व्यक्तिगत सुख भोग हेतु समष्टिगत हानि कर रहे होते हैं, क्या दूसरों को दुःख देकर स्वयं सुख भोगना मानव के लक्षण है क्या ? संभवत: यह तो पशुता है, पिशाच वृत्ति है। और यही पिशाच तथा पशुता मानव समाज को जीवंत नर्क सा वातावरण बना दिया। जो शरीर सभी योनियों मे श्रेष्ठ था, आज उस योनि को पाकर प्रायः यह मानव दुःख भोग रहा है, क्यों ? क्योंकि पूर्व के मानवों ने एन केन प्रकारेण सुख को ही धर्म समझा चाहे वह किसी भी प्रकार से प्राप्त हो, और इस सुख प्राप्ति की लालसा ने मानव का दूसरा धर्म दीर्घकालीन सुख अर्थात मोक्ष अर्थात ईश्वर की प्राप्ति को भुला दिया।

इन सबके जो मूल मे था वह था ईश्वर ने मानव सृष्टि के समय जो ज्ञान रूप वेद दिया उसके सन्दर्भ की अनभिज्ञता। हमने जन्म लिया और संसार को ही लक्ष्य करके उसी को गुरु मानकर उसी की प्राप्ति के किये चल पड़े। जरा विचार करें, यह संसार तो जड़ है, भला जड़ क्या मार्ग प्रशस्त करेगा। ईश्वर ने जो चेतन सत्ता के अंदर वेद ज्ञान दिया हमने उसकी अवहेलना की। परिणाम स्वरुप हमने जो सुखमय संसार की व्यवस्था बनाए रखनी थी उसकी दुःखमय बना दिया।

किसी ने कहा- बीती ताहि विसार दे, आगे की सुध ले।

क्या पूर्णतया बीती हुयी घटनाओं का विस्मरण हो जाना चाहिए ? नहीं। उदाहरण है वह हमारे अकर्तव्यता का। उनसे शिक्षा लेकर और पुनः ईश्वर के ज्ञान वेद की ओर अग्रसर होकर हमें, सुख प्राप्ति के पथ पर चलना होगा। व्यक्ति से व्यक्ति, और व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र को जोड़ना होगा साथ लेकर चलना होगा, क्यों ? क्योंकि हम सभी का लक्ष्य तो एक ही है वह है सुख। और सुख तभी मिलेगा जब हम अपने साथ अन्यों को भी सुख के पथ पर चलने के लिए सहयोग और प्रेरणा करेंगे।

कारण क्योंकि हम सबका पिता तो एक ही है, भला किसी पिता की एक संतान सुखी हो और दूसरी नहीं तो क्या पिता को यह स्वीकार्य है कि एक बेटे ने अपने निजी सुख के लिए दूसरे बेटे को दुःख दिया। ऐसे सहोदर को आप क्या कहेंगे जो निजी स्वार्थ के लिए अपने ही भाई की दुःख पहुंचाये। सुख प्राप्त करना है तो अपने आसपास सुखमय बातावरण बनाना होगा। वह तभी होगा जब हम एक वेद ज्ञान को एक ईश्वर को धारण करेंगे। क्योंकि वही है जिसने "विश्वबंधुत्व" का हमें सन्देश दिया, वही है जिसने कहा कि "यह भूमि मैं आर्यों" को देता हूँ और आर्य कौन है ? जो श्रेष्ठ है जो अपने साथ औरों के भी हित की चिंता करता है, वही "ईश्वर का पुत्र है"।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने वेद को जानकार सुख का सूत्र हमें दिया और कहा:-

हमें अपनी ही उन्नति मे संतुष्ट नहीं होना चाहिए अपितु सबकी उन्नति मे अपनी उन्नति समझनी चाहिए।

तो आइये सुख प्राप्ति के लिए
-चलें वेदों की ओर।

जन्म को सार्थक बनाइये इस संसार को सुख दीजिये, संसार आपको सुख देगा।

एक सिद्धांत जीवन मे बनाइये।

"बिना दिए कुछ लो मत" और जिसका लिया है उसको भूलो मत।

नमस्ते।

प्रस्तुति - वैदिक संस्थान, शिवपुरी।

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