कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा रणनीति , मुद्दे और संभावनाएं - संजय तिवारी
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उत्तर प्रदेश की नयी विधानसभा का चेहरा कैसा होगा , यह चिंता सभी को सता रही है। चुनाव का बिगुल बज़ चुका है लेकिन सेनाओ का आकर प्रकार अभी तक साफ़ नहीं हो सका है। कुल 14 .16 करोड़ मतदाताओ वाले इस प्रदेश के चुनाव पर सभी की नज़र है क्योकि इसका सीधा असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना तय है। लेकिन अफ़सोस का है कि तक सत्तारूढ़ खानदानी पार्टी का पिता-पुत्र संघर्ष अभी भी जारी है। इसके कारण कांग्रेस से उसके गठबंधन का गणित भी अभी बिना हल हुए ही खड़ा है। इस बार यहाँ सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार भारतीय जनता पार्टी की सभी परिवर्तन यात्राएं तो ख़त्म हो चुकी है लेकिन पार्टी के प्रत्याशियों की घोषणा नही हो पायी है। यानी टिकट के बाद मचने वाली रार और अंर्तकलह का अंदाजा अभी से लगाया भी नहीं जा सकता। हां , बसपा ने जरूर अपने सभी 403 उम्मीदवार मैदान में उतार दिए है। वह भी सामान्य ढंग से नहीं , बल्कि बाकायदा जाति ,समुदाय और धर्म के आधार की घोषणा के साथ। जहा तक सपा में मचे घमासान की बात है तो यह अब साफ़ है कि यदि मुलायम और अखिलेश अलग अलग लड़ते है तो भी और साथ लड़ते है तब भी ,अब तक बहुत कुछ गवा चुके है। पहले से ही जमीन पर पड़ी कांग्रेस फिलहाल अखिलेश की प्रतीक्षा कर रही है।
इससे पहले कि पार्टियों और सीट पर नज़र डाली जाय , एक बात स्पष्ट है कि इस बार जनादेश ऐसा रहने वाला जिसको किसी दल अथवा एजेंसी को अंदाजा भी नहीं होगा। इसकी वजह यह है कि जनता के मन में ख़ास निश्चय है जिसको अभी लिखना उचित नहीं। जनता सब देख रही है लेकिन उसकी कोई प्रतिक्रिया न होना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वह अपने वोट बेकार नहीं करने वाली। हो सकता है की जनादेश ऐसा एक पक्षीय हो जिसकी उम्मीद किसी को न रही हो। जिस तरह बसपा ने एक समुदाय विशेष को लेकर अतिउत्साह दिखाया है वह उसको बहुत उलटा भी पड़ सकता है। इसकी वजह यह भी है कि देश के वर्त्तमान घटनाक्रम और राष्ट्रीय नेतृत्व से अभी भी जनता को बहुत आशा है। देश में बदलाव की बयार को वह और तेज करने के इरादे रखती है , ऐसा अब तक के सर्वे और गाव गिराव की बतकही से मालूम हो रहा है। उत्तर प्रदेश में जिस तरह से जाती और सम्प्रदाय की राजनीति की गयी है उससे यहाँ के लोग अब ऊब चुके है और वंश वाद तथा भाई भतीजावाद की राजनीति में भीषण ठण्ड में राजनीति की गर्मी सभी महसूस कर रहे है। दीं हीं दिख चुके मुलायम सिंह की भर्राई आवाज़ सभी सुन रहे है - सबकुछ तो दे दिया , अब क्या बचा है मेरे पास।
ताजा हालात पर नजर डालें तो चुनाव को लेकर तैयारियों के मामले में प्रत्याशी चयन से लेकर कार्यक्रमों तक में बहुजन समाज पार्टी ने सभी पार्टियों को पीछे छोड़ दिया है .भाजपा ने अभी तक प्रचार अभियान खूब किया है, पर प्रत्याशी चयन नहीं कर सकी है, वहीं कांग्रेस गठबंधन की आस में बैठी है. सबसे बुरा हाल समाजवादी पार्टी का है, जो अभी यह तय करने में व्यस्त है कि आखिर पार्टी है किसकी। सबसे बुरे हाल में प्रदेश में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी है। अब तक तैयारियों में सबसे आगे चल रही समाजवादी पार्टी के कुनबे की कलह को लेकर अब तो यहां तक भ्रम है कि पार्टी का चुनाव चिन्ह क्या होगा। ऐसे में सोशल मीडिया से लेकर झंडे बैनर को लेकर फिलहाल भ्रम है। आलम यह है कि समाजवादी पार्टी के जिन प्रत्याशियों को टिकट मिल गया था वह उन्होंने रद कर दिया । झगड़ा सुलझने तक सारे आर्डर कैंसल कर दिए गये। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सरकार बनने के बाद से ही समाजवादी पार्टी की सोशल मीडिया विंग को मजबूत करने के दिशा में कदम उठाएं। तय हुआ कि मुम्बई से सोशल नेटवर्किंग साइट के विशेषज्ञों की सेवा ली जाएगी और विक्रमादित्य मार्ग स्थित लोहिया ट्रस्ट के प्रथम तल से इसका संचालन होगा। ऐन चुनावों के पहले यह परवान चढ़ना था। पर समाजवादी परिवार के संग्राम चलते इनका सोशल मीडिया कुनबा बिखर गया। जो अब सिर्फ अखिलेश के कार्यक्रमों के व्यक्तिगत प्रचार प्रसार तक ही सीमित हो कर रह गया । पहले लोहिया ट्रस्ट में 10 से 12 लोगों की टीम सोशल मीडिया में अखिलेश के कार्यक्रमों को प्रमोट करने में जुटी रहती थी। चुनाव के पहले इसी टीम को और मजबूत करने की तैयारी थी। यह मुम्बई के रहने वाले अखिलेश के एक करीबी फिल्म निर्देशक के निर्देशन में होना था। वर्तमान में यह सिर्फ अखिलेश यादव के प्रतिदिन के होने वाले कार्यक्रमों को प्रमोट करने तक ही सीमित हो गया । बीच में एक विदेशी एजेंसी की सेवाएं लेने की चर्चा भी हुई थी। वह भी रफ्तार नहीं पकड़ सकी। बात करें पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट, फेसबुक और टिवटर हैंडिल की तो सपा परिवार में विवाद के पहले इस पर अपडेट होने वाली सामग्री को ही पार्टी समर्थक अपने व्हाटसएप ग्रुप से सोशल मीडिया में विधानसभा स्तर तक प्रसारित करते थे। पर परिवार में महीनों से चल रहे विवाद के कारण यह भी ठप पड़ गया है। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद शिवपाल यादव कार्यालय के प्रथम तल पर सोशल मीडिया विंग को मजबूत करने के लिए जरूरी व्यवस्थाएं करने में जुटे थे। पर इसी बीच सपा परिवार में एक बार फिर विवाद खड़ा हो गया। फिलहाल मौजूदा समय में अखिलेश—रामगोपाल गुट के नरेश उत्तम को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और पार्टी पर उनका कब्जा हो गया । इस तरह यह भी शुरू होने से पहले ठप हो गया। अखिलेश की सोशल मीडिया टीम भी लोहिया ट्रस्ट से माल एवेन्यू स्थित एक निजी बिल्डिंग में शिफ्ट हो गई। इधर मुलायम सिंह यादव बार बार प्रेस से कहते है की वही सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष है , शिवपाल प्रदेश अध्यक्ष है और अखिलेश सी एम। कई दिनों से प्रतिदिन सुलह की कोशिशें होती है और देर शाम तक कुछ हासिल नहीं होता ऐसे में अब सपा के परंपरागत वोटर भी कंफ्यूज दिख रहे हैं.अब चुनाव आयोग कब फैसला लेगा, सपा किसकी होगी, चुनाव निशान किसका होगा, सब इसी का इंतजार कर रहे हैं. बहरहाल, मुलायम सिंह यादव की तरफ से पार्टी 403 प्रत्याशी घोषित किए जा चुके हैं, जबकि अखिलेश यादव गुट ने अपने 235 प्रत्याशी घोषित किए हैं. पार्टी यादव और मुस्लिम वोट बैंक के साथ ही अखिलेश की छवि पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है.रामगोपाल यादव कहते हैं कि उनकी पार्टी ही असली है, और कोई गठबंधन नहीं होगा. 403 सीटों पर अखिलेश टीम ही चुनाव लड़ेगी।
प्रचार में आगे, प्रत्याशी चयन में पीछे है भाजपा
वहीं भाजपा ने अभी तक एक भी प्रत्याशी घोषित नहीं किया है. संगठन स्तर पर उसने तमाम परिवर्तन यात्राएं, युवा सम्मेलन, पिछड़ा वर्ग सम्मेलन, महिला सम्मेलन आदि किए हैं. प्रधानमंत्री मोदी खुद रैलियां कर चुके हैं, यही नहीं राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ केंद्रीय मंत्रियों और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की टीमें प्रदेश भर में कई जगह कई बार दौरा भी कर चुकी हैं.लेकिन प्रत्याशी घोषित नहीं किए जाने और सीएम पद का उम्मीदवार सामने नहीं आने के कारण ताजा स्थिति में भाजपा पिछड़ती ही नजर आ रही है.इस बारे में बीजेपी के महामंत्री विजय बहादुर पाठक ने कहा कि पार्टी जल्द ही प्रत्याशियों के लिस्ट को जारी कर देगी. 17 जनवरी को पहले फेज का नामांकन होना है इसलिए उससे पहले लिस्ट भी आ जाएगी. उन्होंने कहा कि फिलहाल पार्टी बूथ लेवल कार्यकर्ताओं को आचार संहिता को लेकर वर्कशॉप करवा रही है. हमारी तैयारी पूरी है और जीत बीजेपी की ही होगी.
कांग्रेस - सपा गठबंधन: डिंपल-प्रियंका और अखिलेश-राहुल एक साथ कर सकते हैं प्रचार
उतर प्रदेश में डिम्पल यादव और प्रियंका गाँधी के बीच कुछ खिचड़ी
पक रही है, जो अब शायद तैयार भी हो चुकी है । विधान सभा
चुनाव से पहले
सपा-कांग्रेस में गठबंधन हो सकता है।
माना जा रहा है कि अलायंस के बाद दोनों पार्टियां साथ इलेक्शन कैम्पेन शुरू कर
सकती हैं। कैम्पेन में अखिलेश और डिंपल यादव के साथ राहुल और प्रियंका गांधी भी
शामिल होंगे। ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं कि इस बार के चुनाव में प्रियंका काफी
एक्टिव रहेंगी। ये पहला मौका होगा, जब 27 साल से यूपी की सत्ता से दूर कांग्रेस सपा से गठबंधन करेगी।
कांग्रेस की रैलियों के लिए स्ट्रैट्जी प्रशांत तैयार करेंगे
सपा में लड़ाई के चलते गठबंधन में देरी
सपा में चल रही वर्चस्व की लड़ाई के चलते गठबंधन के एलान में देरी हो रही है। दरअसल, अखिलेश चाहते हैं कि पहले ये तय हो जाए कि समाजवादी पार्टी और
उसके चुनाव चिन्ह साइकिल पर उनका अधिकार है या नहीं। समाजवादी पार्टी के दोनों
खेमे पार्टी पर अपना हक जताते हुए चुनाव आयोग जा चुके हैं। माना जा रहा है कि 13 जनवरी तक आयोग अपना फैसला सुना देगा।अगर फैसला अखिलेश के पक्ष
में आता है तो उसी दिन कांग्रेस से गठबंधन का एलान कर दिया जाएगा।
शीला पहले ही सीएम कैंडिडेट की रेस से हटने को तैयार
कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद ने 'सेक्युलर ताकतों' से आग्रह
करते हुए कहा है कि वे एकजुट हों। आजाद के इस बयान को
कांग्रेस-सपा के संभावित गठबंधन के संकेत के तौर पर भी देखा जा रहा है। इसके
अलावा यूपी में कांग्रेस की सीएम कैंडिडेट शीला दीक्षित भी पहले ही संकेत दे चुकी
हैं कि वह अखिलेश और राहुल के लिए पीछे हटने को तैयार हैं।
गठबंधन पर भी मुलायम-अखिलेश में रार
प्रदेश की 403 सीटों में
से कांग्रेस ने गठबंधन की सूरत में 105 सीटों पर
दावेदारी जताई है , लेकिन 90 सीटों पर बात बनी है। सपा के कांग्रेस से गठबंधन को लेकर
अखिलेश और मुलायम एकमत नहीं हैं। अखिलेश को लगता है कि कांग्रेस से गठबंधन चुनाव
में मदद करेगा, जबकि मुलायम
ऐसा नहीं मान रहे हैं। अखिलेश पहले ही कह चुके हैं कि अगर कांग्रेस के साथ गठबंधन
होता है तो चुनाव में 300 से ज्यादा
सीटें जीती जा सकती हैं। सपा-कांग्रेस का मानना है कि गठबंधन के जरिए वे मुस्लिम
वोट को अपने पक्ष में कर सकेंगे। इसकी कोशिश मायावती भी कर रही हैं। कहा जा रहा है
कि बीएसपी की काट के लिए ही सपा-कांग्रेस एक साथ आना चाहते हैं। गठबंधन से सपा के
वोटर माने जाने वाले मुस्लिमों और यादवों के उसके समर्थन में एकजुट रहने की
संभावना है। अब तक जारी बीएसपी कैंडिडेट्स की लिस्ट में भी मुस्लिम उम्मीदवारों
को ज्यादा टिकट दिए गए हैं।
डिप्टी सीएम फेस प्रमोद तिवारी?
प्रमोद तिवारी हमेशा से सपा से सही तालमेल बिठाए जाने के लिए
जाने जाते हैं। कुछ दिन पहले प्रमोद तिवारी सपा की मदद से ही राज्यसभा पहुंचे थे।
कांग्रेस इस बार यूपी में ब्राह्मण फेस पर दांव लगाना चाहती है और प्रमोद को बड़ा
ब्राह्मण चेहरा माना जाता है। रीता बहुगुणा जोशी और प्रमोद तिवारी दोनों में से एक
को चेहरा बनाने को लेकर कांग्रेस में मतभेद था। अब रीता बीजेपी में हैं। ऐसे में
प्रमोद तिवारी ही पार्टी के पास ऑप्शन हैं। सूत्रों की मानें तो प्रशांत के
गठबंधन पर सहमति न करा पाने के बाद प्रमोद तिवारी ने ही कांग्रेस की तरफ से गठबंधन
का मोर्चा संभाला है।
असमंजस :
कांग्रेस ने चुनाव की तैयारियों के रूप में खाट सभा से जोरदार
शुरुआत की थी लेकिन उसके बाद पार्टी की रणनीति में काफी बदलती दिख रही है. पार्टी
अकेले चुनाव में जाएगी या सपा आदि से गठबंधन करेगी, इस पर ही फैसला नहीं किया जा सका है. जाहिर है जब ये ही तय नहीं
तो प्रत्याशियों का चयन तो दूर की बात है.कांग्रेस नेताओं की इस समय पूरी नजर
सिर्फ और सिर्फ समाजवादी पार्टी में हो रहे डेवलपमेंट पर है. पार्टी की सीएम
कैंडीडेट शीला दीक्षित भी चुनाव को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं दिख रहीं, यही कारण है कि अधिकतर रैलियों में शीला दीक्षित शामिल ही नहीं
हुईं.शीला दीक्षित खुद कह रही हैं कि गठबंधन पर दो से चार दिन में फैसला हो जाएगा.
उन्होंने कहा कि पार्टी से सीएम पद का प्रत्याशी पार्टी हाईकमान ने उन्हें बनाया, गठबंधन पर भी फैसला हाईकमान को ही लेना है.वहीं यूपी प्रभारी
गुलाम नबी आजाद कहते हैं कि हम 403 सीटों पर
प्रत्याशी उतारने की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन ये भी सही है कि सेक्युलर पार्टियों
पर काफी दबाव है, कांग्रेस पर
भी दबाव है. जल्द ही सब साफ हो जाएगा.
गठबंधन हुआ तो मगर आगे नहीं बढ़ पा रही रालोद
राष्ट्रीय लोकदल की बात करें तो अजीत सिंह की अगुवाई में पार्टी
ने अभी तक प्रत्याशियों का चयन नहीं किया है. बिहार की जेडीयू के साथ लोकदल के
गठबंधन का ऐलान तो हो चुका है लेकिन कई महीनों से इसमें कोई भी सुगबुगाहट तक नहीं
दिख रही. अजीत सिंह एक बार समाजवादी पार्टी से भी गठबंधन की कोशिशें कर चुके हैं
लेकिन वह सफल नहीं रहे। उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व
किसी भी बड़े दल का बिहार की तर्ज पर गठबंधन नहीं हो सका है, लिहाजा हर दल अकेले ही मैदान में उतरेगा. हां रालोद ने जनता दल
यूनाइटेड से गठबंधन जरूर किया है, लेकिन सपा
और बसपा के इसमें शामिल न होने से इसका महत्व उतना नहीं रह जाता। ऐसे में इस बार
सपा, बसपा, बीजेपी और कांग्रेस में सीधी टक्कर देखने को मिलेगी. केंद्र में
पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद जिस तरह से
बीजेपी को दिल्ली और बिहार में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है. वैसे में उत्तर
प्रदेश का चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है.
मुख्यमंत्री चेहरे को सामने न लाकर एक बार फिर बीजेपी ने पीएम मोदी के चेहरे पर
दांव खेला है. इसका कितना फायदा उसे इन चुनावों में मिलेगा वह 11 मार्च को सामने आ ही जाएगा। इस बार उत्तर प्रदेश चुनावों में
समाजवादी पार्टी में मचे घमासान के अलावा प्रदेश की कानून व्यवस्था, सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी और
विकास का मुद्दा प्रमुख रहने वाला है. जहां एक ओर बीजेपी और बसपा प्रदेश की कानून
व्यवस्था को लेकर अखिलेश सरकार को घेर रहीं हैं, वहीं विपक्ष केंद्र की मोदी सरकार द्वारा नोटबंदी के फैसले को
भी चुनावी मुद्दा बनाने में जुट गया है। 2012 के विधानसभा
चुनावों में समाजवादी पार्टी ने 224 सीट जीतकर
पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी. पिछले चुनावों में बसपा को 80, बीजेपी को 47, कांग्रेस को
28, रालोद को 9 और अन्य को 24 सीटें मिलीं थीं।
नारे और गानों में भी टक्कर
उत्तर प्रदेश में टक्कर सिर्फ पार्टियों की नहीं उनके नारों और
गानों की है। कांग्रेस ने जहां सबसे पहले 27 साल यूपी
बेहाल का नारा देकर सबको लेपेटे में लिया वहीं सपा ने अपना काम बोलता का नारा नारा
और ट्विटर हैंडल तक बना दिया। बताया जा रहा है कि उन्होंने ही '#काम बोलता है', समाजवादी
पेंशन और सर्वहित बीमा योजना के प्रचार से जुड़ा वीडियो बनवाया। पर बीते साल 12 सितम्बर को शुरू हुए विवाद के बाद इस राह पर साइकिल आगे नहीं
बढ़ सकी। इसके अलावा माथ माथ चंदन लहराएगा, यूपी में
विकास बढ़ता जाएगा जैसे गानों से माहौल बनाने में टीम अखिलेश कोई कमी नहीं कर रही
है। खास बात है कि पिछला चुनाव सपा ने मन से हैं मुलायम और इरादे लोहा के नारे पर
लडा था अब नारों में अखिलेश का जिक्र कहीं ज्यादा दिख रहा है। वहीं भाजपा ने अपने
नारों में परिवर्तन को प्रमुखता दी है जिसमें उन्होने परिवर्तन लाएगे कमल खिलाएंगे
जैसे ध्यानखींचू नारे लिखे हैं। बसपा ने अपने नारे गाने सब समर्थक प्रत्याशियों के
तरफ से गढे और प्रचलित किए हैं पार्टी के स्तर पर कुछ नहीं किया गया है।
बहरहाल तैयारी के अंतिम वक्त में जहां सब अपने हथियारों को सान
दे रहे हैं वहीं समाजवादी पार्टी की स्थिति को भ्रम ने बहुत बिगाड दी है। अब
इस दौड़ में एक राउंड पिछड़ जाने के बाद सपा किस तरह दौडेगी यह भी दिलचस्प होगा।
बसपा पूरी तरह तैयार
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बसपा पूरी तरह तैयार दिखने
लगी है। सभी सीटों पर टिकट वितरण का काम हो चुका है। बसपा ने टिकटों में मुस्लिमों
का कोटा इस बार बढ़ाया है। ब्राह्मण, दलित और
ओबीसी कोटे में कटौती की है। क्षत्रियों को पिछले चुनाव से अधिक महत्व दिया है।
बसपा विधानसभा की 85 सुरक्षित
सीटों के अलावा दो अन्य क्षेत्र से भी अनुसूचित जाति के उम्मीदवारहैं। मुस्लिमों
को 97 व 106 सीटों पर टिकट ओबीसी वर्ग को देने का फैसला किया गया है। सवर्णों
को 113 टिकट दिए, इसमें 66 ब्राह्मण, 36 क्षत्रिय और 11 अन्य (कायस्थ
वर्ग व पंजाबी) हैं। बसपा के मुकाबले भाजपा अभी प्रचार में जुटी है। सपा में
घमासान से चुनाव चिह्न साइकिल पर संकट मंडराने से पार्टी प्रत्याशी असमंजस में
हैं। कांग्रेस और रालोद को चुनावी गठबंधन का इंतजार है।
बसपा की जीत का समीकरण
मायावती का मानना है कि प्रदेश में 19 प्रतिशत मुस्लिम व 21 फीसद दलित
एकजुट होगा तो बसपा को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने से कोई नही रोक पाएगा। मायावती ने भाजपा को रोकने के लिए
मुस्लिमों को दलितों के साथ आने का समीकरण भी समझाया। उनका कहना था किसी भी सीट पर
दलित वोट 40 हजार से कम
नहीं और बहुतेरी सीटों पर गिनती एक लाख तक है। यादव समाज के वोट मात्र पांच-छह
प्रतिशत है जो कि शिवपाल व अखिलेश खेमों में बंट गए हैं। बसपा सुप्रीमो ने भाजपा
को रोकने की खातिर अन्य जातियों से भी साथ देने की अपील की। उनका कहना था कि
दलितों का पुख्ता वोटबैंक जीत की गारंटी है। यदि अन्य बिरादरियों के प्रत्याशियों
को अपने समाज का समर्थन मिल जाए तो अगली सरकार बसपा की होगी।
बसपा
उम्मीदवारों का जातीय आंकड़ा
जाति/ वर्ग
वर्ष 2012
2017
दलित
88
87
मुस्लिम 85
97
ओबीसी
113
106
ब्राह्मण
74 66
ठाकुर
33 36
अन्य
10
11
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दागियों को आगे किया-
सहारनपुर की बेहट सीट से मो. इकबाल: 9 केस दर्ज
मुजफ्फरनगर की चरथावल सीट से नूर सलीम राणा: 2 केस दर्ज
बागपत की छपरौली सीट से राजबाला: 2 से ज्यादा केस दर्ज
गाजियाबाद की साहिबाबाद सीट से अमरपाल शर्मा: कई केस दर्ज
बुलंदशहर से अलीम खान: गंभीर धाराओं में केस दर्ज
बिजनौर की चांदपुर सीट से मो. इकबाल: गंभीर धाराओं में कई केस दर्ज
मेरठ की किठौर सीट से गजराज सिंह: कई केस दर्ज
सीटिंग की जगह नए चेहरे
सहारनपुर
बेहट:सिटिंग एमएलए- महावीर सिंह, वर्तमान कैंडिडेट- मो. इकबाल
नकुड़: सिटिंग एमएलए- डॉ. धर्म सिंह सैनी, वर्तमान कैंडिडेट- नवीन कुमार
मुजफ्फरनगर
मीरापुर: सिटिंग एमएलए- जमील, वर्तमान कैंडिडेट- नवाजिस आलम खान
बागपत
बागपत: सिटिंग एमएलए- हेमलात चौधरी, वर्तमान कैंडिडेट- अहमद हमीद
हाथरस
हाथरस (एसपी):सिटिंग एमएलए- गेंदा लाल चौधरी, वर्तमान कैंडिडेट- बृजमोहन राही
कासगंज
अर्मापुर: सिटिंग एमएलए- ममतेश, वर्तमान कैंडिडेट- देव प्रकाश
आगरा
फतेहाबाद: सिटिंग एमएलए- छोटे लाल वर्मा, वर्तमान कैंडिडेट- उमेश सैथिया
बिजनौर
नजीबाबाद: सिटिंग एमएलए- तस्लीम, वर्तमान कैंडिडेट- जमील अहमद अंसारी
बढ़ापुर: सिटिंग एमएलए- मो. गाजी, वर्तमान कैंडिडेट- फहद यजदानी
नहटौर(एससी): सिटिंग एमएलए- ओम प्रकाश, वर्तमान कैंडिडेट- विवेक सिंह
अनाउंस किए जातिगत आंकड़े
मायावती ने सभी 403 विधानसभा
सीटों पर बीएसपी कैंडिडेट्स के जातिगत आंकड़े अनाउंस किए थे। इसमें 87 (21%) दलित, 97 (24%) मुस्लिम, 106 (26%) ओबीसी और 113 (28%) (ब्राह्मण 66, ठाकुर 36, बनिया-वैश्य-कायस्थ
11) सवर्ण कैंडिडेट्स शामिल हैं। बसपा का अब तक का गणित यही रहा है
कि दलित और मुस्लिम एकजुट होकर अगर उसके पक्ष में वोट करते हैं तो दूसरे दलों को
परेशानी उठानी पड़ सकती है। उत्तरप्रदेश में करीब 19 फीसदी मुस्लिम और 22 फीसदी दलित
हैं। वहीं, कुल 54 फीसदी पिछड़ी जाति का वोट बैंक है। 70 विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिमों की संख्या 20 फीसदी से ज्यादा है। ईस्ट यूपी की 20, वेस्ट यूपी की 10, सेंट्रल यूपी
की 5 और बुंदेलखंड की एक सीट पर मुस्लिम
वोटर्स की संख्या 55 से 60 फीसदी है।
83% सीटों पर जाति तय करती है सरकार किसकी बनेगी
यूपी के बारे में एक कहावत चर्चित है कि यहां वोटर वोट नेता को
नहीं, जाति को
देते हैं। यहां जिस पार्टी को 30% से ज्यादा
वोट मिलेंगे, जीत उसकी तय
है। लेकिन ये 30% वोट 4 बड़ी जातियों के बीच फंसे हैं। 23% अगड़ी जाति के हैं तो 41% पिछड़ी जाति
के। 21.1% दलित हैं तो
19.3% मुस्लिम। मुलायम यहां यादवों के रहनुमा
बने हुए हैं तो मायावती दलितों की। पिछड़ों के लिए भाजपा ने केशव मौर्य को अध्यक्ष
बनाया है तो ब्राह्मणों के लिए कांग्रेस ने शीला दीक्षित को आगे किया। जाति के इस
खेल को खुलकर मायावती ही स्वीकार करती हैं। माया ने सभी प्रत्याशियों की जातिवार
सूची जारी करके ये साबित भी कर दिया। जाति के इसी चक्रव्यूह के कारण कांग्रेस 27 साल से सत्ता से बाहर है, वहीं भाजपा 14 साल से।
भाजपा
सवर्ण, गैर यादव ओबीसी, अन्य अति पिछड़े, और गैर जाटव दलित पर भाजपा की अच्छी पकड़ है। एक सर्वे के मुताबिक सवर्ण वोट बैंक में भाजपा को 56% ब्राह्मण, 3 फीसदी क्षत्रिय, 1.5% वैश्य वोट मिलते हैं। अति पिछड़ों में लोध 7%, कुशवाह (मौर्य, शाक्य, कोरी, कांछी, सैनी)- 14%, कुर्मी 3% भाजपा के परंपरागत वोटर हैं। गैर जाटव में वाल्मीकि, धोबी, खटीक, कोल, गोड़, खरवार पर पकड़ है।
फ्लोटिंग:
लेकिन सवर्ण, गैर यादव ओबीसी, अति पिछड़े और गैर जाटव दलित वोटर्स मौका देखकर बसपा, सपा में शिफ्ट होते रहे हैं। लोध नेता कल्याण सिंह, ओबीसी नेता रामकुमार वर्मा ने पार्टी छोड़ी तो यह वोटबैंक भी छिटका। इसी तरह मायावती के ब्राह्मण कार्ड के दौरान ब्राह्मण वोटर बसपा में चले गए।
फॉर्मूला:
सरकार बनाने
के लिए 60% सवर्ण, गैर यादव, गैर जाटव, पिछड़े वर्ग के वोट में से 32फीसदी वोट
प्राप्त करना होगा।
रणनीति:
यूपी में भाजपा ने 23 जिलों में पिछली जाति से ताल्लुक रखने वाले, तीन में दलितों को अध्यक्ष बनाया है। एक आदिवासी समेत तीन पिछड़ी जाति के क्षेत्रीय अध्यक्ष है। अति पिछड़े वर्ग के नेता केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है।
समाजवादी पार्टी
मुस्लिम और यादव परंपरागत वोटर हैं। एक ट्रेंड के मुताबिक 80 फीसदी यादव वोट सपा को जाते हैं। जबकि
50 फीसदी मुस्लिम वोटर सपा के साथ हैं।
इसके अलावा राजपूत, ब्राह्मण, कुर्मी और अन्य पिछड़ी जातियों (पासी, धानुक, गोड़, कोरी आदि अलग-अलग दलों में बंटती रहीं
हैं) पर भी सपा की पकड़ है।
फ्लोटिंग:
मुस्लिम वोट सपा और बसपा में बंटता रहा है। मुस्लिम उसी दल
को वोट देता है जो भाजपा को हराने की स्थिति में है। यादव वोट न के बराबर स्विंग
होता है। पर लोकसभा चुनाव में 54% यादव
भाजपा के साथ गए थे। फॉर्मूला:
दोबारा सत्ता में आने के लिए 65 फीसदी यादव-मुस्लिम वोट, 14% ब्राह्मण, 30% गैर यादव ओबीसी वोट प्राप्त करना
होगा।
रणनीति:
यादव-मुस्लिम
और गैर यादव ओबीसी के फार्मूले पर प्रत्याशी उतारने का इरादा। इसके अलावा अगड़ी
जातियों के वोट खींचने की कोशिश।
बहुजन समाज पार्टी
एससी और अल्पसंख्यक परंपरागत वोटर हैं। जाटव एससी का एकमुश्त वोट बसपा जाता है। साथ ही चार फीसदी गैर जाटव दलित का भी वोट मिलता है। अति पिछड़े वोटर में अच्छी पकड़ है। इसके अलावा 40% मुस्लिम वोट पर पकड़ है।
फ्लोटिंग:
पिछली बार 2007 के चुनाव में मायावती ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोटर के
कॉम्बिनेशन से सत्ता मिली। पर 2012 में समीकरण फेल।
फॉर्मूला
सत्ता में काबिज होने के लिए 60 फीसदी दलित-मुस्लिम वोट, 10% ब्राह्मण, 27% अति पिछड़े वोट प्राप्त करने होंगे।
रणनीति:
45% सीटों पर दलित और मुस्लिम
उम्मीदवार उतारे और 66 सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवार
उतारे। 66 ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे हैं।
कांग्रेस
यूपी में कांग्रेस जनाधार खो
चुकी है। 27 साल से सत्ता से दूर है। पार्टी का अगड़ी, दलित और मुस्लिम वोटबैंक खिसक
चुका है। बावजूद इसके कांग्रेस का एक परंपरागत वोटर है। उसे हर विधानसभा चुनाव में
औसतन 9 फीसदी वोट मिलते हैं। करीब औसतन 24 सीटों पर कब्जा है।
रणनीति : सवर्ण, पिछड़े और मुस्लिम वोटबैंक पर फोकस। हालांकि उसका फोकस सपा के साथ गठबंधन कर अपनी स्थिति मजबूत करने पर है। क्योंकि सपा को औसतन 25% वोटबैंक है। यदि इसमें कांग्रेस का 9% वोट जोड़ दिए जाए तो 34% होता है। यह सत्ता में पहुंचने का सबसे सरल और सीधा गणित है।
फॉर्मूला :सवर्ण 65% सवर्ण-दलित वोट, 17% ओबीसी और 50% मुस्लिम वोट पाकर सत्ता में पहुंच सकती है।
सिंहासन पर कौन
विमुद्रीकरण
के ठीक पहले तक के सर्वे यह बता रहे थे कि भाजपा को सूबे के विधानसभा चुनाव में 210-230 सीटें हासिल हो सकती हैं। दूसरे नंबर पर
समाजवादी पार्टी थी। हालांकि मुस्लिम मतदाताओं में उहापोह की स्थिति थी। दूसरे
पायदान पर कौन पार्टी रहेगी यह मुस्लिम मतों के मिजाज पर ही तय हो रहा था। सर्वे
के दौरान समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन की अटकलें तेज थी।
नतीजतन, गठबंधन की
स्थिति में सपा और कांग्रेस की बहुमत के आसपास पहुंचते दिख रहे थे। लेकिन मुलायम
सिंह यादव ने यह ऐलान कर कि सपा किसी से गठबंधन नहीं करेगी इस तरह के सारी अटकलों
पर विराम लगा दिया। समाजवादी
पार्टी को आपसी कलह का भी बडा नुकसान हुआ है। हालांकि अखिलेश सरकार के कामकाज से 54 फीसदी संतुष्ट हैं। असतुष्ट लोगों की संख्या 40 फीसदी है लेकिन केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से 77 फीसदी लोग संतुष्ट हैं सिर्फ 18 फीसदी लोग असंतुष्ट हैं। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि नरेंद्र
मोदी के नोटबंदी के फैसले से सहमति जताने वालों की तादाद 77 फीसदी है जबकि असहमति जताने वालों कि संख्या सिर्फ 19 फीसदी है। हालांकि नोटबंदी के बाद बैंको के कामकाज से 93 फीसदी लोग नाराज हैं। 8 दिसंबर तक
के आंकडे बताते हैं कि लोग इसे राजनैतिक तौर पर भी भाजपा के लाभकारी कदम के तौर पर
देख रहे थे पर 8 दिसंबर के
बाद नोटबंदी के फैसले से उत्पन्न संकट ने नोटबंदी को लेकर लोगों के नज़रिए
में बदलाव ला दिया है।
नोटबंदी के बाद चुनाव और महंगे होंगे नोटबंदी के बाद भारतीय
जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरती दिख रही है उसे 133 से 150 सीटे मिल
सकती है। भाजपा को पूर्वी उत्तर प्रदेश की 257 सीटों में
से 83 सीटों पर
बढ़त मिल सकती है। जबकि पश्चिम उत्तर प्रदेश की 146 सीटों में से भाजपा को सिर्फ 50 सीटें हासिल हो रही है। इस इलाके में सपा के गढ़ वाला इलाका भी
आता है। नतीजतन, यहां से सपा
से एक सीट ज्यादा मिलती दिख रही है। जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी
को 75 सीटें मिल
रही हैं। उम्मीद से ठीक उलट पश्चिमी बसपा का प्रदर्शन बुरा दिख रहा है और उसे
सिर्फ 30 सीट मिल रही
है। जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाके में उसे 82 सीटें मिल रही हैं। रालोद को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 6-7 सीटें मिल सकती हैं। कांग्रेस को पश्चिम में 05 सीट और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 9 सीट मिल पा रही है। उसे भारी घाटा हो रहा है इस विधानसभा में
उसकी 22 सीटें हैं।
कौमी एकता दल को दो, पीस पार्टी
को 1 सीट मिल
सकती है जबकि 5 सीटों पर
निर्दल उम्मीदवार जीतते दिख रहे हैं। अक्टूबर से 15 दिसंबर के बीच कराए गए इस सर्वे में हर विधानसभा के तकरीबन 2000 लोगों से बातचीत की गयी। हालांकि लोगों
में यह उम्मीद दिखी कि नरेंद्र मोदी जरुर कुछ न कुछ ‘करिश्मा’ करेंगे।
अगड़ी जातियां भाजपा के पक्ष में नजर आईं तो नोटबंदी के बाद भाजपा का पारंपरिक
व्यापारी मतदाता अलग राह तक निहारता नज़र आ रहा है। पिछडे वर्ग के मतदाताओं ने अलग
अलग इलाकों में अलग अलग राह पकड़ रखी है। हालांकि यादव मतदाता अब भी मजबूती से सपा
के पीछे लामबंद नज़र आ रहा है। दलित मतदाता में जाटव मतदाता भी मयावती के पीछे इसी
तरह खड़ा दिख रहा है। अल्पसंख्यक
मतदाताओं की पहली पसंद आज भी समाजवादी पार्टी ही है। सर्वे के मुताबिक तमाम कोशिश
और जद्दोजेहद के बाद भी कांग्रेस के साथ कोई नया मतदातावर्ग जुड़ता नहीं दिख रहा
है उल्टे उनकी जमीन खिसकने के आसार हैं। यह अनुमान
लगाया जा रहा था कि विमुद्रीकरण के बाद आगामी विधानसभा चुनाव में कम पैसे खर्च
होंगे लेकिन सर्वे के निष्कर्ष ठीक उलट कहानी बयां कर रहे हैं। नतीजों के मुताबिक
विमुद्रीकरण के ठीक बाद उम्मीदवारों ने चुनाव में काम आने वाली वस्तुओँ के लिए
अग्रिम भुगतान कर दिया है। यह भी तथ्य हाथ लगें हैं कि चुनावी पैसा जनधन खातो में
भी ड़ाला गया है।
इंडिया टुडे-एक्सिस का सर्वे
भाजपा को 216 सीटें पर
सीएम तो अखिलेश यादव ही पसंद
यूपी के चुनावी महासमर से ठीक पहले इंडिया टुडे-एक्सिस
द्वारा कराए ओपीनियन पोल के मुताबिक सपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। इस
सर्वे में भाजपा को 216 तक सीटें
मिलने का अनुमान जताया गया है। इनके बाद बसपा और कांग्रेस हैं। 12 से 24 दिसंबर के बीच फील्ड वर्क के बाद यह
रुझान सामने आया है।
संभावित सीटों पर जीत
सर्वे में भाजपा के 206 से 216 सीटें जीतने की संभावना जताई गई है।
बसपा को 79 से 85 सीटें, सपा को 92 से 97 सीटें, कांग्रेस 5 से 9 सीटें और अन्य दलों को 7 से 11 सीटें मिलने की उम्मीद है।
25 फीसदी वोटर 18 से 24 साल के
यहां 403 सीटों पर चुनाव होने हैं। सत्ता का
जादुई आंकड़ा 203 है। 84 सीटें अनुसूचित जाति और पहली बार 2 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए
आरक्षित की गई हैं। जातीय समीकरण अहम है। यहां 41% ओबीसी और 21.1% दलित हैं। यही किंगमेकर भी हैं।
यहां की सियासत पिछड़ी जातियों पर निर्भर है। यही वजह है कि पिछड़े और दलित वोटों की
सियासत करने वाली पार्टी पिछले तीन बार से दलित और ओबीसी सीएम बन रहे है। 1989 के बाद कोई ब्राह्मण सीएम नहीं बना
है। कुछ समय भाजपा से राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह सवर्ण सीएम बने। यहां सबसे
ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं। आबादी में 18% मुस्लिम हैं।
इसलिए बहुत जरुरी है यू पी और
पंजाब में भाजपा की विजय
राजनीतिक
रूप से सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश समेत देश के 5 राज्यों में फरवरी-मार्च में होने
वाले चुनाव पर सभी की निगाहें हैं। खासतौर पर यूपी पर कि पिता-पुत्र की विवाद के
बीच कौन सरकार बनाएगा। लेकिन इस चुनाव में जीत के साथ ही एक और बात है जो नरेंद्र
मोदी या बीजेपी के लिए भी जरूरी है। वह है राष्ट्रपति चुनाव। अगर बीजेपी उत्तर
प्रदेश और पंजाब जीतने में नाकाम रही तो उसे अपनी पसंद के बजाए दूसरे दलों के लिए
भी मान्य शख्स की ओर जाना पड़ेगा। मौजूदा हालात में एनडीए के पास करीब 4.52 लाख वोट हैं। अपने कैंडिडेट को
सीधे चुनाव जिताने के लिए उसे करीब एक लाख और वोटों की जरूरत है। जिन राज्यों में
चुनाव हो रहे हैं वहां 1,03,756 वोट दांव पर हैं। इसमें सबसे
ज्यादा यूपी में 83,824 वोट हैं। बीजेपी के यूपी और पंजाब चुनाव हारने की स्थिति में भी
मोदी सरकार राष्ट्रपति चुनाव में अपना उम्मीदवार जिताने में कामयाब हो जाएगी। बस
फर्क यह आ जाएगा कि फिर अपनी पसंद के बजाए सर्वस्वीकार्य कैंडिडेट की ओर जाना
होगा। यानी कि ऐसा शख्स जो सभी दलों को मान्य हो।
जुलाई में
राष्ट्रपति चुनाव
जुलाई में
होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, एआईएडीएमके, बीजू जनता दल और तेलंगाना
राष्ट्रसमिति जैसी पार्टियों का रुख अहम होगा।एनालिस्ट और भारतीय भाषा कार्यक्रम के
निदेशक अभय कुमार दुबे के मुताबिक, 'पांचों राज्यों के चुनाव मोदी
सरकार के लिए कई मायनों और कारणों से खास हैं। एक बड़ा कारण राष्ट्रपति चुनाव भी
है। अगर राष्ट्रपति पद के कैंडिडेट को जिताने के लिए जरूरी संख्या नहीं होगी तो
फिर अन्य क्षेत्रीय दलों से बात करनी होगी। ऐसे में अन्य दलों का एनडीए के
उम्मीदवार पर सहमत होना जरूरी है। इस स्थिति में एनडीए को अपने कैंडिडेट का चयन
सोच-समझकर से करना होगा। राष्ट्रपति पद का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से आनुपातिक
प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत किया जाता है। इसमें लोकसभा, राज्यसभा के चुने हुए सांसद और सभी
राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित विधायक हिस्सा लेते हैं। विधायकों के
वोट का मूल्य 1971 की आबादी के आधार पर एक निश्चित अनुपात में तय किया जाता है।
सभी राज्यों और दिल्ली-पुड्डुचेरी विधानसभाओं के कुल मतों के बराबर लोकसभा के 543 और राज्यसभा के 238 मेंबर्स के वोटों का मूल्य होता
है। फिलहाल एनडीए के पास करीब 4.52 लाख वोट हैं, जिसमें से अकेले बीजेपी के पास
करीब 3.68 लाख वोट हैं।वहीं, यूपीए के पास 2.30 लाख वोट हैं जिसमें से कांग्रेस के
पास 1.5 लाख वोट हैं।
वंशवाद की राजनीति और राजनीति में
वंशवाद
देश के
प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी कहते है कि टिकट देने में वंशवाद और भाई भतीजावाद नहीं
चेलेगा। देश की सर्वोच्च अदालत का आदेश है कि जाति और धर्म के आधार पर कोई
राजनीतिक गतिविधि नहीं होगी। लेकिन उत्तर प्रदेश की सियासत के खिलाड़ियों को इन
दोनों ही फरमानों से कोई सरोकार नहीं दिख रहा। प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी में 32 लालबत्तियां हैं। मुलायम सिंह यादव
के कुनबे सरकार और अब उसमे छिड़े घमासान के बीच यह एक कड़वी सचाई है कि
यूपी में दो फैक्टर बहुत काम करते हैं। जातिवाद और परिवारवाद। जो इसका विरोध
करते हैं, अमल भी सबसे ज्यादा वही करते हैं। 403 विधानसभा सीटों के लिए इस बार भी
कई बड़े नेता अपने परिवार वालों को टिकट दिलाने में जुटे हैं। हर दल की स्थिति देखें
तो करीब 40 प्रतिशत सीटें ऐसी हैं, जहां कोई बेटे के लिए तो कोई पोते
या पत्नी के लिए टिकट मांग रहा है। इनमें भाजपाई भी हैं, कांग्रेसी भी और सपा-बसपाई भी। उतर
प्रदेश में वंशवाद की राजनीति और राजनीति में वंशवाद की तो प्रयोगशाला ही स्थापित
दिखती है।
केंद्र में
मंत्री, सांसद भी अपने रिश्तेदारों के लिए कर रहे पैरवी
भाजपा में 12 नेता सक्रिय नेता दावेदार
कलराज मिश्र - अमित (बेटा )
कल्याण सिंह - संजीव (पोता)
रामशंकर कठेरिया - पत्नी
जगदंबिका पाल - पत्नी/बेटा
लालजी टंडन - बेटा
स्वामी मौर्या - बेटा या बेटी
रीता बहुगुणा जोशी - मयंक (बेटा )
हुकुमसिंह - मृगांका (बेटी)
ब्रजेश पाठक - पत्नी
कांग्रेसी भी इस दौड़ में
नेता दावेदार
सलमान खुर्शीद पत्नी
श्रीप्रकाश जायसवाल भाई
अम्मार रिजवी बेटा
प्रमोद तिवारी आराधना ( बेटी)
राजेशपति त्रिपाठी ललितेश (बेटा)( प्रपौत्र स्व.कमलापति त्रिपाठी)
एससी महेश्वरी बेटा
अमीर हैदर बेटा
जफरअली नकवी बेटा
सपा में
परिवारों की लंबी लाइन
नेता दावेदार
आजम खान अब्दुल्ला (बेटा )
बेनी वर्मा राकेश वर्मा ,पुत्र
नरेश अग्रवाल नितिन (बेटा)
बलराम यादव संग्रामसिंह (बेटा)
वकार अहमद यासिर खान (बेटा)
रमेश यादव आशीष (बेटा)
रेवती रमण उज्जवल
(बेटा)
कामेश्वर
उपाध्याय आशुतोष (बेटा )
विजय मिश्र बेटा
सुरेंद्र
पटेल बेटा
माया की
बसपा भी पीछे नहीं
बसपा के बड़े
नेता रामवीर उपाध्याय के परिवार में उनके भाई और पत्नी दोनों राजनीति में हैं। पिछली सरकार में रामवीर उपाध्याय
मंत्री थे, भाई मुकुल उपाध्याय एमएलसी और पत्नी सीमा उपाध्याय सांसद। बसपा का
मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के परिवार के तीन लोग
राजनीति में किस्मत आजमा चुके हैं।
इनका दावा : वंशवाद नहीं ,सक्रिय राजनीति
पंकज सिंह
पुत्र राजनाथ सिंह
पंकज सिंह
भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता और वर्तमान में देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह
के पुत्र हैं। वर्ष 2001 में राजनीति में सक्रिय हुए। 2004 में उन्हें बीजेपी युवा मोर्चा की
यूपी प्रदेश कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। 2007 में उन्हें भाजपा युवा मोर्चा का
प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। 2010 में उन्हें यूपी बीजेपी का सचिव
बनाया गया। ये 2012 में यूपी बीजेपी के महासचिव पद तक पहुंचे। 2013 में उन्हें दूसरी बार महासचिव
बनाया गया। वर्तमान में जुलाई 2016 से तीसरी बार महासचिव के पद पर कार्य
कर रहे है। इनके पिता राजनाथ सिंह अपने पुत्र के लिए लखनऊ की किसी भी विधानसभा से
टिकट की मांग कर रहे हैं।
अमित मिश्र
पुत्र कलराज मिश्र
अमित मिश्र
वर्तमान में केंद्र में सूष्म एवं लघु उद्योग मंत्री कलराज मिश्र के पुत्र हैं।
कलराज मिश्र अपने पुत्र को विधायक बनते देखना चाहते हैं। पुत्र मोह में फंसे कलराज
मिश्र अपने बेटे अमित के लिए टिकट का दावा कर चुके हैं। हालांकि अभी उन्होंने
किसी विधानसभा को लेकर कोई खुलासा नहीं किया है। लेकिन वह देवरिया की किसी सीट से
बेटे को उम्मीदवार बनवाना चाहते हैं।
अब्दुल्लाह
आजम खान पुत्र आजम खान
अब्दुल्लाह
आजम खां समाजवादी पार्टी के मुस्लिम फेस मोहम्मद आजम खां के पुत्र हैं। पेशे से
इंजीनियर अब्दुल्लाह आजम खां के सबसे छोटे बेटे हैं। यह रामपुर की जौहर
यूनिवर्सिटी के सीईओ भी हैं। इन्हें पार्टी ने आजम खां की पैरवी पर स्वार टांडा
विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाने का मन बनाया है।
अफजाल
सिद्दीकी पुत्र नसीमुद्दीन सिद्दीकी
अफजाल
सिद्दीकी बहुजन समाज पार्टी के कद्दावर नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के पुत्र हैं।
मायावती ने इन्हें हाल ही में मुस्लिम भाईचारा कमेटी की कमान सौंपी है। यह कदम
बसपा द्वारा मुस्लिम यूथ को भी अट्रैक्ट करने का प्रयास माना जा रहा है। इस
अग्निपरीक्षा में खरे उतरने पर अफजाल के राजनीतिक कैरियर के सितारे चमकने की
नसीमुद्दीन सिदृदीकी को पूरी आस है।
आदित्य
यादव पुत्र शिवपाल यादव
समाजवादी
पार्टी के कद्दावर नेता शिवपाल यादव के पुत्र आदित्य यादव वर्तमान में पीसीएफ के
चेयरमैन हैं। इनके लिए शिवपाल यादव ने अपनी जसवंतनगर की सीट छोड़ने का मन बनाया
है। कयास लगाए जा रहे हैं कि इस सीट पर आदित्य यादव को चुनाव लड़ाने के पीछे
शिवपाल की मंशा उन्हें बिना किसी संशय के विधायक बनाने की है।
राकेश वर्मा
पुत्र बेनी वर्मा
समाजवादी
मुखिया मुलायम सिंह यादव के खास सिपहसालार माने जाने वाले बेनी प्रसाद वर्मा ने
अपने पुत्र राकेश वर्मा के लिए पूरी ताकत लगा दी है। इसके चलते उनकी अखिलेश खेमे
के नेता और वर्तमान में मंत्री अरविंद सिंह गोप से टक्कर भी हो गई है। बेनी वर्मा
अपने बेटे के राजनीतिक कैरियर को चमकाने के लिए अक्सर पांच विक्रमादित्य मार्ग
पर नजर आते हैं।
कपिल चंद्रा
पुत्र पूर्व सपा विधायक एम चंद्रा
अमरोहा जनपद
की धनौरा सीट पर समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव ने
अलग अलग प्रत्याशियों की घोषणा की है। लेकिन धनौरा सीट से समाजवादी पार्टी के
पूर्व विधायक एम चंद्रा अपने पुत्र कपिल चंद्रा के लिए पूरी ताकत झोंक रहे हैं। वह
समाजवादी पार्टी में मचे घमासान के बीच सीएम अखिलेश यादव सहित अन्य नेताओं से
मिलकर अपनी दावेदारी पेश कर चुके हैं।
अपर्णा यादव
पुत्र वधू मुलायम सिंह यादव
अपर्णा यादव
मुलायम सिंह यादव के पुत्र प्रतीक यादव की पत्नी हैं। शिवपाल यादव की पैरवी पर
मुलायम सिंह यादव ने अपनी पुत्र वधू को विधानसभा चुनावों में अवसर देने का मन
बनाया है। लेकिन समाजवादी घमासान के बाद अखिलेश खेमा इनके टिकट का पक्षधर नहीं दिख
रहा है। ऐसे में इनके टिकट को लेकर भी कार्यकर्ताओं में संशय बना हुआ है और पार्टी
में उठा-पटक का दौर जारी है।
संजू सिंह
पौत्र कल्याण सिंह
राजस्थान
के राज्यपाल और भारतीय जनता पार्टी से यूपी के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह
अपने पौत्र संजू सिंह की सियासी जमीन को मजबूत करने में लगे हैं। वह बुलंदशहर की
डिबाई सीट से उसके राजनीतिक कैरियर को संवारने में जुटे हैं।
संघमित्रा
पुत्री स्वामी प्रसाद मौर्या
बहुजन समाज
पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के रथ पर सवार स्वामी प्रसाद मौर्या अपनी
पुत्री संघमित्रा मौर्य के लिए दावेदारी पेश कर रहे हैं। वह संघमित्रा के लिए
मैनपुरी से टिकट मांग रहे हैं। इतना ही नहीं वह तो अपने बेटे अशोक मौर्या को भी
रायबरेली से लड़ाने की फिराक में हैं।
प्रियंवदा
सिंह पुत्री राजेंद्र राणा
प्रियंवदा
सिंह समाजवादी पार्टी के नेता और राज्य सरकार में मंत्री रहे राजेंद्र राणा की
पुत्री हैं। उनकी मृत्यू के बाद पारिवारिक विरासत पर प्रियंवदा ने अपना दावा
ठोंका, पर हाल ही में शिवपाल खेमे से उनकी मां मीना राणा को टिकट मिल गया। इस
पर उन्होंने नाराजगी जताते हुए सीएम अखिलेश यादव से मुलाकात की। कहा जा रहा है कि
प्रत्याशी के तौर देवबंद विधानसभा से प्रियंवदा अखिलेश की पहली पसंद हैं।
माफिया राज:
इन सीटों पर दबंगों की चलती है, जेल से भी जीतते हैं चुनाव
मुख्तार अंसारी: मऊ सीट
मुख्तार अंसारी मऊ से चार बार विधायक रह चुके हैं। बसपा, निर्दलीय और अपनी पार्टी बनाकर जीते। इस बार सपा में पार्टी का विलय किया।
हरिशंकर तिवारी: चिल्लूपार सीट
कांग्रेस समेत कई दलों के टिकट पर चिल्लूपार से 23 साल तक विधायक रहे। 2007 में हारे। बसपा के टिकट पर इनके बेटे विनय शंकर चुनाव लड़ रहे है।
अफजाल अंसारी: मोहम्मदाबाद सीट
माफिया मुख्तार अंसाली बड़े भाई। मोहम्मदाबाद सीट से 1985 से 96 तक विधायक रहे। 2002 में हारे। 2007 से इस सीट पर भाई का कब्जा।
रघुराज प्रताप: सिंहकुंडा सीट
यूपी सरकार में खाद्य और रसद मंत्री हैं। प्रतापगढ़ की कुंडा सीट से विधायक हैं। हत्या, अपहरण और डकैती सहित आठ मुकदमे दर्ज हैं।
दुर्गा प्रसाद यादव: आजमगढ़ सीट
ट्रांसपोर्ट मंत्री। 14 से ज्यादा मामले दर्ज हैं। अस्पताल में 4 व्यक्तियों की हत्या का आरोप है। साल 2002 में जेल से चुनाव लड़ा और जीता भी।
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलीमीन
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलीमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष और हैदराबाद के सांसद असाउद्दीन ओवैसी ने यूपी विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी प्रत्याशियों के लिस्ट जारी कर दिया है । उन्होंने अभी पहले और दूसरे चरण में कुल 11 प्रत्याशियों की घोषणा की है। इनमें से ज्यादातर वेस्ट यूपी के हैं। लिस्ट को एआईएमआईएम पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शौकत अली ने जारी किया।
1- आगरा दक्षिणी से मो. इदरीस अली
2- फिरोजाबाद शहर से अहतेशाम अली बाबर
3- शामली के कैराना से मौलाना शमीउल्लाह
4- अलीगढ़ कोइल से महमूद अली
5- सहारनपुर के बेहट से जुनैद
6- सहारनपुर से तलत खान
7- मुरादाबाद शहर से शहाबुद्दीन खान
8- मुरादाबाद देहात से हाजी अस्लम
9- मुरादाबाद के कुंर्डकी से इसरार हुसैन
10- बरेली शहर से यासीन अन्सारी
11- अमरोहा शहर से शमीम अहमद तुर्क
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