खिलजी को प्रेमी नायक बताने वाले फ़िल्मी भांडो जरा उसका इतिहास तो जान लो !



तथाकथित 'उदार' स्तंभकारों ने आनेवाली विवादास्पद फिल्म 'पद्मावती' और उसके निदेशक के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन पर क्षोभ व्यक्त किया है, यह जानते हुए भी कि फिल्म 13 वीं सदी के मुग़ल शासक अलाउद्दीन खिलजी और समकालीन राजपूत रानी पद्मिनी के ऐतिहासिक कथानक पर आधारित है । फिल्म निर्माता और प्रदर्शनकारियों के व्यवहार को लेकर उनके 'उदार' तर्क काबिले गौर है:
(1) रानी पद्मिनी नामक कोई ऐतिहासिक पात्र है ही नहीं, अतः इतिहास से छेड़छाड़ का सवाल ही बेमतलब है ! भला एक ऐतिहासिक काल्पनिक पात्र की नए सिरे से कल्पना करने में क्या हर्ज है।
(2) सिनेमा तो एक रचनात्मक अभिव्यक्ति है, अतः उसे इतिहास को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने की अनुमति है, भले ही वह ऐतिहासिक मानदंडों पर खरा न हो ।
(3) देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, अगर आपको फिल्म पसंद नहीं है, तो न देखें, या फिर इस विषय पर अपनी खुद की फिल्म बनायें ।
उपरोक्त सभी तर्कों के विश्लेषण से एक ही तथ्य सामने आता है कि हमारे समकालीन छद्म भारतीय 'धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी", हिन्दू संस्कृति, इतिहास और परंपराओं से कितने अनभिज्ञ हैं, कितने पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं ! उनके कपट, झूठ और संवेदनहीनता की तो कोई सीमा ही नहीं है ! यही देश की सबसे बड़ी समस्या है।
पहली बात तो यह कि पद्मिनी की ऐतिहासिकता, उनका महान व्यक्तित्व और पवित्र स्मृति वंश परंपरा से लाखों हिंदुओं के मन में जिंदा है, जिसे ये जाहिल, उजड्ड, असभ्य और अशिष्ट 'धर्मनिरपेक्ष तबके' के लोग कभी नहीं समझ सकते, यह उनकी कल्पनाशीलता की तुलना में कहीं अधिक जटिल है। चित्तौड़ के कण कण में, वहां से सदियों पुराने मंदिरों और धार्मिक स्थलों में रानी पद्मिनी के जौहर की गाथा लोकगीतों और भजनों के रूप में सुनने व अनुभव करने की पात्रता भी इन दुराग्रही धनपशुओं में नहीं है ।
वोट के लालची राजनेता हों, चाहे अर्थपिशाच फिल्मी भांड, ये समझ लें कि महारानी पद्मिनी का चित्रण अगर होगा तो केवल पारंपरिक पवित्रता के साथ ही होगा ! कोई भी अन्य प्रयत्न राजपूताने को ही नहीं, समूचे भारत को धधका सकता है । इसी मनोदशा में विरोध प्रदर्शन की वैधता को देखा और समझा जाना चाहिए !
ऐतिहासिक साक्ष्य को लेकर एक तथ्य देखा जाना चाहिए कि भीष्म, द्रौपदी, विक्रमादित्य या राजा भोज, भारत की संस्कृति में पीढ़ियों से रचे बसे हैं ! इतिहास लिखने में तत्वचिन्तक भारतीयों की रूचि नहीं रही ! आज की भाषा में वे सदा लो प्रोफाईल रहे ! किन्तु आमजन ने अपने तीज त्योहारों में, उत्सवों में उन्हें जिन्दा रखा !
"धर्मनिरपेक्षतावादी" बढ़चढ़ कर जिस ऐतिहासिक साक्ष्य की बात करते हैं, क्या वे इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा मध्यकालीन युग में किये गए व्यापक भीषण नर संहार, जबरन धर्मांतरण और मंदिरों के विनाश को भी इस आधार पर नकारेंगे, क्योंकि किसी मुग़ल इतिहासकार ने तो ऐसा कुछ लिखा नहीं ? आखिर ये लोग उस समय के अत्याचारियों को, खल नायकों को कोमल भावों बाला, उदार और नायक के रूप में क्यों स्थापित करना चाहते हैं ?
दुर्भाग्य से आजादी के बाद भारत के शैक्षणिक जगत पर वामपंथी काबिज हो गए, जिनके कारण सत्ताधीशों ने प्रो. के. एस. लाल जैसे विचारक इतिहासकार को दरकिनार कर दिया और उनकी लिखी पुस्तकें ‘The Legacy of Muslim Rule in India’ और ‘Muslim slave system in Medieval India’ आदि को विचार बाह्य कर दिया ! अब इसे सुनियोजित षडयंत्र नहीं तो क्या कहा जाये ? भारत की संघर्ष पूर्ण गौरव गाथा को भुलाना और हिंसक आतताईयों, आक्रान्ताओं को महिमा मंडित करना, यही इन अंग्रेजीदां धर्मनिरपेक्षता वादियों का एकसूत्री कार्यक्रम है !
इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि केंद्र की सत्ता में बैठी आज की भाजपा, जिससे औसत राष्ट्रभक्तों को बड़ी आशा थी, कि अब शायद स्थिति कुछ बदलेगी, वह आशा भी तब टूट गई, जब कल बुल्डोग नुमा मुखाकृति बनाकर एक केन्द्रीय मंत्री ने करणी सेना के प्रदर्शन पर आक्रोश व्यक्त किया !
साक्ष्य उपलब्ध न होने का अर्थ यह नहीं है कि घटना हुई ही नहीं ! थोड़ी देर के लिए पद्मिनी की चर्चा को छोड़कर चंद्रगुप्त की ओर आते हैं ! क्या किसी यूनानी रिकोर्ड में मौर्य पुरातनता के प्रतीक चंद्रगुप्त के अस्तित्व की पुष्टि होती है ? सोमनाथ पर महमूद गजनवी के आक्रमण के दस्तावेजी प्रमाण कहाँ हैं ? किन्तु ये दर्दनाक ऐतिहासिक घटनायें जन स्मृति में कायम है और समय के उलटफेर में भी हिंदुओं ने इन्हें भुलाया नहीं है ।
भले ही प्रस्तुति उतनी अच्छी नही हुई हो, किन्तु बीके करकरा ने एक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी है “चित्तोड़ की नायिका - रानी पद्मिनी” ! उक्त पुस्तक में करकरा ने जोर देकर कहा है कि मलिक मोहम्मद जायसी की 'पद्मावत' में पद्मिनी का उल्लेख 1526 में सारंगपुर के नारायण दास द्वारा लिखी गई छिताई चरित से प्रभावित है ! करकरा का प्रभावी तर्क है कि जब नारायण दास और जायसी जैसे ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, तो पद्मिनी की ऐतिहासिकता को किवदंती बताना निरी मूर्खता है ! जन चेतना में गुजरात की देवल रानी भी विद्यमान हैं, जिनका विवाह अपहरण के बाद जबरन सुल्तान के बेटे से करा दिया गया था । इसके अलावा, खिलजी के प्रसिद्ध दरबारी कवि अमीर खुसरो द्वारा 1303 में खिलजी के चित्तौड़ मार्च के समय लिखी गई कहानी “सुलैमान और शबा की रानी” में छुपे सन्दर्भ को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये । खिलजी के सैन्य अभियानों के दौरान हुए जौहर के अन्य उदाहरण भी मिलते हैं, जैसे कि रणथंभौर की रानी रंगा देवी द्वारा किया गया जौहर । भले ही वामपंथी पोंगे इन साक्ष्यों को अप्रत्यक्ष कहकर नकारें, किन्तु पद्मिनी की ऐतिहासिकता स्वयंसिद्ध है ! और भला मुस्लिम दरबारी इतिहासकार अपने आका हुजूर खिलजी की असफलता की इस दर्दनाक घटना को क्यूं और कैसे लिख सकते थे ?
ऐतिहासिक प्रामाणिकता की मांग बेमतलब है, क्योंकि इतना तो तय है कि अलाउद्दीन खिलजी एक हत्यारा दरिंदा था, जो सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर गद्दी पर बैठा था । हिन्दू राजाओं के खिलाफ अपने सैन्य अभियानों में उसने क्रूरतम जघन्य कत्लेआम किये थे ! स्वयं अमीर खुसरो लिखता है कि चित्तोड़ में हिन्दू आबादी को सूखी घांस की तरह काटा गया ! इतिहासकार आर सी मजुमदार ने लिखा है कि खिलजी की अर्थनीति ने देश को खून से नहला दिया ! सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने उलेमाओं से ऐसे नियम बनाने को कहा, जिससे हिन्दू जमींदोज रहें, यह सुनिश्चित किया जाए कि उनके पास कोई संपत्ति न हो ! उन्हें केवल जीवित भर रहने के लिए जजिया कर देना ही होगा, उन्हें इतना दयनीय बना दो, ताकि वे विद्रोह की सोच भी न सकें ! उसके कालखंड में अपने सम्मान की रक्षा के लिए हजारों हिंदू महिलाओं द्वारा जौहर किये जाने की एक नहीं तीन तीन घटनाएँ हुई थीं ! और हमारे फिल्मी भांड धनपशु कहते हैं वह एक रसिक प्रेमी था ? घिन आती है इन लोगों पर !


सावधान समाज – आपकी उदारता कमजोरी न बने ! दुनिया भर में पिटे हुए वामपंथी अब सिनेमा के माध्यम से भारत की अस्मिता को कुचलने और समाप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं ! अपने कुत्सित इरादों को अमलीजामा पहनाने के लिए इन्होने अतिवादी धर्मान्ध मुसलामानों को अपना मोहरा बनाया है ! भारतीय सेंसर बोर्ड, कोर्ट, सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इनकी घृणित चालों में न फंसे, इसके लिए जागरूक समाज प्राथमिक आवश्यकता है !

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