युवा भारत हेतु प्रेरणा स्त्रोत: शिकागो संभाषण - प्रवीण गुगनानी



भारतीय युवाओं पर ईश्वर की कितनी कृपा है इसे केवल इस बात से समझा जा सकता है कि ईश्वर ने हमें प्रेरणा देनें हेतु भारत भू पर स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष को जन्म दिया !! आज भारत सम्पूर्ण विश्व में सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला राष्ट्र है, अतः इस युवा भारत में स्वामी विवेकानंद का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है. आवश्यकता केवल इस बात की है कि आज की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानंद को संपूर्णतः पढ़े, उन्हें समझे, उनके अनुरूप ढले व उनके पद चिन्हों पर चलने का प्रयास करे. यदि आज भारतीय युवा स्वामी विवेकानंद का अनुसरण करने का तनिक मात्र भी प्रयास करें तो भारत वर्ष को विश्वगुरु बननें से विश्व की कोई भी शक्ति नहीं रोक सकती. 

स्वामी विवेकानंद जैसे चमत्कारिक देव पुरुष व महान विचारक का भारत में जन्मना और इस देव भूमि, हिन्दू भूमि के विचारों को अन्तराष्ट्रीय मंचों पर पुनर्स्थापित करनें का प्रयास सचमुच ही एक ऐसा कार्य था जिसनें भारत के ललाट को गौरव तेज  से प्रकाशित कर दिया था. १८९३ की शिकागो में आयोजित धर्मसभा में जब यह तेजस्वी विचारक बोलनें उठा तो वहां उपस्थित विश्व भर का प्रबुद्ध समुदाय उनकें एक एक शब्द को सुनकर मन्त्रमुग्ध होता चला गया और उन्हें श्रद्धाभाव और भक्तिभाव से सुनते रहनें के लिए मजबूर हो गया था. 

आज जब भारतीय संस्कृति, सनातनी संस्कार और हिन्दू जीवन शैली के सन्दर्भों में समाज के तथाकथित प्रगतिशील बंधू विचित्र परिभाषाएं गढ़नें लगें हैं, और सबसे बढ़कर जब राजनीति में धर्म निरपेक्षता जैसे शब्दों के मुक्त रूप से विरूप और कुरूप शब्दार्थ खोजें जा रहें हो, तब स्वामी विवेकानंद के विचारों का आलोक ही हमें इस घनघोर वैचारिक अन्धकार से मुक्ति दिला सकता है.

आज कल बहुधा यह कहा जानें लगा है कि शासन और प्रशासन को धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के सन्दर्भों में धर्म निरपेक्ष होकर विचार और निर्णय करनें चाहिए. यहाँ पर यह प्रश्न बड़ा यक्ष प्रश्न बन कर उभरता है कि धर्म निरपेक्षता आखिर है किस चिड़िया का नाम? आज हमारें देश के तथा कथित बुद्धिजीवी और प्रगतिशील कहलानें वाला वर्ग, धर्म निरपेक्षता के जो मायनें निकाल रहा है, क्या वह सही है? क्या धर्म निरपेक्षता शब्द के जो अर्थ चलन में उतार दिए गएँ हैं वे रत्ती मात्र भी प्रासंगिक और उचित हैं?? 

आज एक ओर तो पाश्चात्य विश्व द्वारा खारिज किये जा चुके के बुरे विचार, फैशन शैली, परम्पराएं और पद्दतियां हमारी नई पीढ़ी को अच्छी लग रहीं हैं , जबकि पश्चिमी देश भारतीय -हिन्दू जीवन शैली को तेजी  से अपनाते चले जा रहें हैं. अर्थशास्त्र में मुद्रा सिद्धांत है कि "बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर देती है." यह सिद्धांत भारत की वैचारिक परिधि में लागू हो गया लगता है!!! आज हमें इस पीड़ादायक तथ्य को स्वीकार करना होगा कि भारत की वैचारिक दुनिया में भी बुरे विचारों ने अच्छे विचारों को प्रचलन से बाहर कर दिया है या करते जा रहा है ! ऐसे में स्वामी जी के विचारों का प्रकाश ही हमें इस षड्यंत्र पूर्वक बना दिए गए कुचक्र से बाहर निकाल सकता है. 

स्वामी जी ने जब शिकागो में अपनें विचारों को व्यक्त करते हुए कहा था कि " राष्ट्र वाद का मूल, धर्म व संस्कृति के विचारों में ही बसता है” तब सम्पूर्ण पाश्चात्य विश्व ने उनकें इस विचार से सहमति व्यक्त की थी और भारत के इस युग पुरुष के इस विचार को अपनें अपनें देशों में जाकर प्रचारित और प्रसारित किया था और भारतीय संस्कृति के प्रति सम्मान प्रकट किया था. पिछले दिनों जब क्रिसमस के अवसर पर जब ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने कहा कि "ब्रिटेन एक इसाई राष्ट्र है और इसे कहनें में किसी को कोई भय या संकोच नहीं होना चाहिए" तब निश्चित ही उनकी इस घोषणा की पृष्ठ भूमि में विवेकानंद जी का यह विचार ही था. 

कितने आश्चर्य का विषय है कि आज जब समूचा विश्व धर्म निरपेक्षता के शब्दार्थों को विवेकानंद जी के विचारों में खोज और पा रहा है, हम उनकें एतिहासिक शिकागो संभाषण को और उनकें समूचे जीवन वृत्त को याद ही नहीं कर रहें हैं!! इस संभाषण में उन्होंने गौरव पूर्वक कहा था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दू जीवन शैली के साथ जीवन यापन करना ही इस आर्यावर्त का एक मात्र विकास मार्ग रहा है और भविष्य में विकास करनें की और एक आत्म निष्ठ समाज के रूप में अस्तित्व बनाएं रखनें में यही एक मात्र मन्त्र ही सिद्ध और सफल रहेगा. 

स्वामी जी ने अपनें एतिहासिक व्याख्यान में कहा था कि भारत के विश्व गुरु के स्थान पर स्थापित होनें का एक मात्र कारण यहाँ के वेद, उपनिषद, ग्रन्थ और लिखित अलिखित करोड़ों आख्यान और गाथाएँ ही रहीं हैं. अपनी बात को विस्तार देतें हुए उन्होंने कहा था कि जिस भारत को विश्व सोने की चिड़ियाँ के रूप में पहचानता है उसकी समृद्धि और ऐश्वर्य का आधार हिन्दू आध्यामिकता में निहित है. आज यदि हम इस तथ्य को प्रामाणिकता की कसौटी पर परखें तो हमें निश्चित ही यह भान होगा कि भारत के प्राचीन विचार में निहित गुरुकुल, विज्ञानं निष्ठ त्यौहार, आयुर्वेद, आयुर्विज्ञान, अन्तिरिक्ष विज्ञान, काल गणना, अणु विज्ञानं, अर्थशास्त्र, नीति शास्त्र आदि के सहारे यदि हमारा समाज चलता रहता तो आज हमारी विकास गति और विश्व में हमारा स्थान कुछ और ही होता. 

चरक, आर्यभट्ट, चाणक्य, धन्वन्तरी आदि न जानें कितनें ऐसे भारतीय वैज्ञानिकों, चिंतकों, विचारकों, अविष्कारकों के नाम गिनाएं जा सकतें हैं जिनका ध्यान स्वामी विवेकानंद के मानस में "हिन्दू भारत" या "हिन्दू जीवन शैली" कहते हुए रहा होगा. शिकागो संभाषण के समय स्वामी जी के मष्तिष्क में यह भी रहा ही होगा कि भारत पर विदेशी आक्रमणों का इतिहास जितना पुराना और व्यापक है उतना विश्व में अन्यत्र दूसरा कोई उदाहरण नहीं है. इन में कुछ अत्यंत बर्बर खूरेंजी,शकों, हूणों, चंगेजों, मंगोलों, अरबों, तोर्मानो, यवनों, तुर्कों, अफगानों, पठानों,मुगलों, यूरोपियनों और खासकर अंग्रेज संगठित सैन्य आक्रान्ताओं ने यहाँ के तत्कालीन बेहतरीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, कृषि, भोजन, शिक्षा और प्रशासनिक ताने-बाने को ध्वस्त कर उनके अपने अनुरूप सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनैतिक और व्यापारिक मूल्य स्थापित किये जो उनके लिये वरदान थे और भारत के लिये अभी तक अभिशाप हैं बनें हुए हैं. ये ही वे विघटनकारी तत्व या घटनाएं थी जिनसे इस देव भूमि-भारत भूखंड की जीवन शैली प्रभावित और अतिक्रमित हुई थी.

आज भारत के नीति नियंताओं, राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों, शिक्षाविदों में, मनसा, वाचा, कर्मणा कहीं भी स्वामी विवेकानंद के विचारों का अंश मात्र भी दिखाई नहीं पड़ता है. स्वामी जी के विचारों से प्रभावित होकर पाश्चात्य देशों का नेतृत्व तो अपने यहाँ रीति नीति बनाता है, किन्तु कल्पना कीजिए यदि आज इस देश में कोई स्वामी जी के विचारों को लागू करनें का प्रयास करें तो उसका क्या हश्र होगा?? इस देश का आम नागरिक चाहता है कि इस भूमि के मूल सांस्कृतिक विचारों का यहाँ प्रभाव व प्रभुत्व हो किन्तु इस देश की समकालीन परिस्थितियाँ इतनी भयावह और गंभीर है कि ऐसा सोचना भी यहाँ एक बड़े बवंडर को जन्म दे सकता है. 

सम्पूर्ण विश्व में भारत ही एक मात्र ऐसा राष्ट्र है जहां बहुसंख्यक समाज को अपने विचारों, मान्यताओं और परम्पराओं के पालन और रक्षण करने मात्र से धर्म निरपेक्ष न होनें का ताना सुनना पड़ता है और उन्हें वैचारिक पिछड़ा कहनें वाले लोग इस देश के नेतृत्व में या नेतृत्व को प्रभावित करनें वालों में बहुतायत से नजर आतें हैं. विवेकानंद जी के विचारों का प्रवाह और उनकी निरंतर सतत समीक्षा वह कक्षा है जहां से समग्र विकास और सांस्कृतिक अभ्युदय के साथ  देश को सोने की चिड़िया और विश्व गुरु बनानें वालें स्नातक निकल सकतें हैं; हमें इस सर्वकालीन और सार्वभौम सत्य को समझना होगा.

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