धर्मनिरपेक्ष गिरगिट - तस्लीमा प्रकरण : डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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भारत में जिस तरह से दिनों दिन कट्टरपंथ बढ़ता जा रहा है, और जिस कट्टरपंथ की आंधी के कारण कभी देश का विभाजन हुआ था, उससे सबक न लेते हुए जिस तरह से लगातार यहां राजनीतिक पार्टियां भी इस बात की प्रतिस्पर्धा करती नजर आती हैं कि कौन ज्यादा धर्मनिरपेक्ष है, जबकि हकीकत में वे हैं नहीं, को देखकर लगने लगा है कि आगे भविष्य में क्या हम देश के और विभाजन देखना चाहते हैं ? यह प्रश्न आज इसलिए उठ खड़ा हुआ है क्योंकि बांग्लादेश की लेखिका तस्लीमा नसरीन ने देश में यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने की मांग क्या की, उनका विरोध करने के लिए एक विशेष समुदाय के लोग सड़कों पर उतर आए । बात यहां तक भी ठीक है कि लोकतंत्र में किसी मुद्दे पर सहमत हुआ जाए, यह जरूरी नहीं, किंतु जब इन लोगों के कारण आयोजकों को माफी मांगनी पड़े और कहना पड़े की भविष्य में वे कभी लेखिका तस्लीमा को अपने आयोजन में नहीं बुलाएंगे, तब जरूर यह पीढ़ा होती है कि इस पूरे प्रकरण में सरकार मूक दर्शक क्यों बनी रही ? जबकि कहने को राष्ट्रवाद की संवाहिका राजनीतिक पार्टी की सरकार केंद्र और जहां यह प्रकरण हुआ वह राजस्थान प्रदेश में मौजूद है ।
तस्लीमा इसमें क्या गलत कहती हैं कि जब में हिन्दू, बौद्ध और ईसाई धर्म के खिलाफ लिखती व बोलती हूँ तो मेरे खिलाफ कुछ नहीं होता, लेकिन जैसे ही मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ लिखती हूँ तो मेरे खिलाफ फतवा जारी होने के साथ ही जान को खतरा बन जाता है। उनके खिलाफ फतवे जारी करने वालों को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों का संरक्षण रहा है। कोलकत्ता में सरेआम मेरे खिलाफ फतवा जारी करने वाले और सिर पर इनाम रखने वालों को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का संरक्षण है। ऐसे लोगों को प. बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का भी संरक्षण हासिल रहा है। फतवे जारी करने वालों को बढ़ावा देना क्या धर्म निरपेक्षता है।
तस्लीमा यहां यह कहना भी नहीं भूलती हैं कि हिन्दू समाज की महिलाओं के अधिकारों की बात करें, तो कोई विरोध में नहीं उतरता और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात करें तो जानलेवा हमला हो जाता है। इस्लाम में महिलाओं को अधिकार क्यों नहीं मिलते? उनके अधिकारों के लिए आवाज क्यों नहीं उठाती ? ये सब नहीं है, तो कोई राष्ट्र खुद को धर्मनिरपेक्ष कैसे कह सकता है ? हिंदुस्तान में मुस्लिम महिलाओं को बराबर का हक नहीं दिया जा रहा, फिर लोकतंत्र की क्यों बाते होती हैं ? इस्लाम को मानने वाले जब तक खुद के लिए आलोचना नहीं सुनेंगे, तब तक वे धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकते।
वस्तुत: तस्लीमा जब ये सवाल उठाती हैं कि देश में आखिर किस तरह की धर्म निरपेक्षता है। तब इसमें उनका यह प्रश्न जरूर छिपा नजर आता है कि जहां ममता की सरकार, कांग्रेस की सरकार या साम्यवादियों की सरकारें होती हैं वहां तो यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिमों के गलत होने पर भी उन्हें सार्वजनिक तौर पर गलत करार दें और उनकी गलतियों को स्वीकार करते हुए उन्हें दंडित करें । लेकिन जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं, उनसे तो यह उम्मीद की ही जा सकती है कि राममंदिर और बहुसंख्यक हिन्दू समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले सत्ताधीश सत्य को सत्य और असत्य को असत्य कहने का साहस दिखाएंगे।
वस्तुत: जिन प्रमुख मुद्दों पर देशव्यापी वातावरण बनाने का कार्य भाजपा पिछले कई सालों से कर रही है, समान नागरिक संहिता उन्हीं मुद्दों में से ही तो एक है । आज देश की अधिकांश जनता यही चाहती है कि जब भारत में कानून सभी के लिए समान हैं, जब भारतीय संविधान इस बात की इजाजत किसी को नहीं देता कि राज्य अपने नागरिकों से किसी भी स्तर पर भेद रखे। सभी को समान नजर से देखने का निर्देश जब हमारा संविधान देता हो, वहां धर्म निरपेक्ष होने के बाद भी धर्म के आधार पर ही बंटवारा किया जाए, उसे आखिर कहा तक उचित माना जा सकता है ? सभी धर्मों की संस्कृति, परम्पराएं अलग हो सकती हैं लेकिन सभी का देश तो एक ही भारतवर्ष है । विविध पंथ मत दर्शन अपने भेद नहीं वैशिष्ठ्य हमारा, यही तो भारत की मूल पहचान है । फिर क्यों नहीं समान नागरिक संहिता भारत में लागू होने से इसे रोका जाना चाहिए । किंतु उसी समान नागरिक संहिता की जब लेखिका तस्लीमा बात करती हैं तो वे इस्लामिक कट्टरपंथ के निशाने पर आ जाती हैं।
राजस्थान में जो हुआ जिसमें जमायते इस्लामी सहित कुछ अन्य मुस्लिम संगठन खुलेतौर पर तस्लीमा की कही बातों का विरोध कर रहे थे और उनके आगे जिस तरह से वहां पर आयोजकों एवं सरकार को झुकते देखा गया, उससे तो यही संदेश गया है कि चरमपंथ और कट्टरपंथ के सामने यहां की भाजपा सरकार कमजोर नजर आई है। तस्लीमा भारत में निर्वासित जीवन जी रही हैं, वे अपनी मुखर अभिव्यक्ति के कारण ही आज संकट में हैं और धर्मांध हो चुके इस्लामिक देश बांग्लादेश से जीवन का संकट होने पर भारत में अपना समय बिता रही हैं । यदि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में भी उनके सामने जीवन का संकट पैदा होने लगे तो वस्तुत: आज यह जरूर सोचा जाना चाहिए कि भारत को हम धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद क्या बना दे रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष देश में तस्लीमा प्रकरण यह बताने के लिए पर्याप्त है कि हमारी सरकारें कट्टर पंथियों और चरमपंथियों के सामने कितनी लाचार हैं।
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