क्या आप जानते है अंग्रेजी नव वर्ष ईसा से 700 वर्ष पूर्व होता था मार्च से आरम्भ ?

जनवरी 1 का आगमन होते ही छोटे- बड़े, प्रबुद्ध-सामान्य, स्त्री-पुरुष आदि सभी हर्ष-उल्लास के साथ नए वर्ष के स्वागत की तैयारी करते है ! नए वर्ष की शुभकामनाओं को ज्ञापित करने हेतु चारों और बैनर, बोर्ड आदि लगाए जाते है ! रंगोली, रंगबिरंगी लाइट, फूल माला आदियों से अलंकरण किये जाते है ! रात भर जाग कर पुराने वर्ष का अंतिम क्षण बीतकर नए वर्ष का आदि क्षण उपस्थित होते ही आबालवृद्ध सभी जन नाच गान, आतिशबाजी, बंद-बाजा आदि ध्वनियों से सभी दिशाओं को गुंजायमान करते हुए नए वर्ष का बड़ा स्वागत करते है और अपरिमित आनंद का अनुभव करते है !

हे भारत माता के मानस वीर सपूतों ! क्या यह जनवरी-1 नए वर्ष का आरम्भ है ? क्या इसी दिन नए वर्ष का आरम्भ होता है ? एक बार गंभीरता से अपनी अंतरात्मा में विचार करना ! इस समय प्रचलित कालेन्द्र (कालेन्द्र-केलैंडर) = कालांतर ईसा से सम्बंधित है, यह सर्वविदित है ! क्या ईसा से पूर्व अपने देश का चरित्र, परंपरा, संस्कृति नहीं थी ? यदि थी तो ईसा से पूर्व के लोग किस दिन नए वर्ष को मनाते रहे होंगे ? यह विचार करना होगा, आत्ममंथन करना होगा ! हम यहाँ प्रमुख विचारों के साथ दिग्दर्शन करा रहे है ! सुधि पाठक वृन्द स्वयं विचार कर निर्णय लें और तथ्य (सत्य) को सबके सामने प्रस्तुत करें !

यूरोप देशों में पहले ओलंपियन संवत्सर प्रचलित था ! वही संवत्सर ईसा से ७५३ वर्ष पूर्व रोमनों का राज्य स्थापित होने के पश्चात रोमनों के प्रथम राजा रोम्लुस के काल में रोमन संवत्सर के रूप में परिवर्तित हो गया ! तब उस संवत्सर में केवल दस मास (मार्च से दिसंबर तक) और ३०४ दिन ही थे उन मासों के नाम रोमन देवताओं और महाराजाओं के नाम से रखे गए थे ! जैसे कि ‘मार्स’ इस रोमन देवता के नाम से ‘मार्च’ मास, एटलस देवता की कुमारियाँ “मल्लिका मई और मल्लिका जौन” के नामों से क्रमशः ‘मई’, ‘जून’ मासों के नाम रखे गए ! रोमन सम्राट ‘जूलियस सीजर’ एवं उनके पौत्र ‘आगस्टस सीजर’ के नामों से ‘जुलाई’ और ‘अगस्त’ मास प्रचलित किये गए ! इस प्रकार प्रथम मास मार्च से छ्टे मास अगस्त तक के मासों का नामकरण हुआ ! उनके पश्चात के मास क्रम- बोधक शब्दों से प्रसिद्द किये गए ! जैसे कि सप्तम मास का नाम सेप्टम्बर, अगस्त मास का नाम अक्टोबर, नवम मास का नाम नवम्बर, दशम मास का नाम दिसंबर रखा गया ! यहाँ यह ध्यातत्व है कि सेप्टअम्बर आदि शब्द सप्तमादी संस्कृत शब्दों के विकृत रूप है ! सप्तम अम्बर (सातवा आकाश), अष्टम अम्बर (आठवा आकाश) नवम अम्बर (नौवां आकाश) और दशम अम्बर (दशम्बर) से सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर और दिसंबर बने ! सप्तमाम्बर आदि शब्द आकाशस्थ नक्षत्रादियों की विशेष अवस्थाओं के बोधक है !

यह मार्च आदि दस माह ही ५३ वर्षों तक व्यवहत होते रहे ! ईसा से ७०० वर्ष पूर्व रोमनों का द्वितीय राजा “नुमा पोम्पिलियस ने ‘जोनस’ नामक रोमन देवता के नाम से जनवरी मास आरम्भ किया, साथ में फिब्रबरी मास को भी आरम्भ किया, जिसका अर्थ है ‘प्रायश्चित मास’ ! पांचवा रोमन सम्राट ‘एत्रुस्कान तार्क्युनिअस प्रिस्कियुस (६१६-५७९ ईसा पूर्व) ने रोमन रिपब्लिकन कैलेण्डर मुद्रित किया था, जिसमे जनवरी को प्रथम स्थान दिया गया था ! इन दो मासों को दसवे मास दिसंबर के बाद जोड़ा जाता तो बुद्धिमता का परिचायक होता ! परन्तु इन्हें आदि में जोड़ने से सातवाँ मास सेप्टम्बर नौवां मास हो गया, वैसे ही आठवा मास ओक्टोबर दसवां, नौवां मास नवम्बर ग्यारहवां एवं दसवां मास दिसंबर बारहवां मास हो गया ! जिससे सेप्टम्बर (सप्तम अम्बर=आत्वन आकाशा) आदियों का अर्थ निरर्थक सिद्ध हुए ! अंग्रेजी में मार्च का अर्थ है – ‘गमन आगमन’ अर्थात पुराना संवत्सर व्यतीत होकर नया संवत्सर आ गया है ! यह अर्थ भी जनवरी, फरवरी मासों को आदि में जोड़ने से व्यर्थ हो गया ! अज्ञानता एवं अविवेकता के लिए यह एक ज्वलंत उदाहरण है ! साथ में यहाँ यह भी विचार करना होगा कि फरवरी मास में २८ या 29 ही दिन क्योँ ? काल गणना में यदि कहीं कम-ज्यादा हो जाता है तो, न्यूनता रह जाती है तो उसकी पूर्ती अंत में की जानी चाहिए, फरवरी मास यदि अंत में रहता तो संवत्सर भर की न्यूनता को पूर्ण करने के लिए २८ या 29 दिन रखे गए है, ऐसा समझ में आता और फरवरी का अर्थ (प्रायश्चित) भी सार्थक होता ! पर संवत्सर के बीच में अर्थात दुसरे मास में न्यूनता की पूर्ती करना कहाँ की बुद्धिमता है ? इससे स्पष्ट है कि जनवरी एवं फरवरी दोनों मास दिसंबर के बाद ही जोड़ने योग्य है, न कि मार्च के आदि में !

भारतीय प्राचीन परंपरा के अनुसार नया संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (दक्षिण भारत में) को आरम्भ होता है ( दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में पंद्रह दिन पाहिले ही मासों का आरम्भ होता है, क्यूंकि दक्षिण में मास अनांत होते है, जो उत्तर में पूर्णीमांत ! इसलिए पंद्रह दिनों का अंतर आता है ! पुनरपि नया वर्ष दोनों भागों में एक ही दिन मनाया जाता है) जो कि मार्च के अंत में या अप्रैल के आदि में आता रहता है ! इससे ज्ञात होता है कि मार्च-25 से वर्ष को आरम्भ करने की रोमन परंपरा एवं भारतीय परंपरा में अत्यंत समानता है ! मार्च से संवत्सर को आरम्भ करना भारतीय संस्कृति का अनुकरण होता है ! अतः अपने क्रैस्तव सम्प्रदाय को वैदिक संस्कृति से अलग करने के दुरुद्धेश्य से रोमन सम्राट नुमा पोम्पिलियस ने जनवरी और फरवरी मासों को मार्च से पूर्व जोड़ा है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई समुचित कारण नहीं है ! उससे रोमन सम्बत्सर ३०४ दिन के स्थान पर (३०४+३१+२८=) ३६३ दिन में रूपांतरित हो गया ! इनमे कुछ मास 30 दिन, कुछ ३१ दिन तथा फरवरी मास २८ या 29 दिन के रूप में विभक्त है ! जूलियस सीजर और आगस्टस सीजर के नामों वाले जुलाई एवं अगस्त मासों को क्रमशः ३१-३१ दिन के रूप में विभक्त किये गए ! इस प्रकार यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि संवत्सर का आध दिन, मासों का विभाग, परिमाण, नाम एवं क्रम ये सब स्वार्थवश व अन्य दुरुद्धेश्य के कारण अपने मतोंमाद से समाज पर बलात थोपे गए है !

रोमन कैलेण्डर के बारह महीनों के नाम व परिमाण इस प्रकार थे –

Januarius (31), februarius (28/29), martius (31), aprilis (30), maius (31), junius (30), Quinctilis (31), Sextilis (30), September (30), October (31), November (30), December (30)

ईसा से 44 वर्ष पूर्व जूलिअस सीजर के सम्मान में Quinctilis मास के नाम को Julius (july) के रूप में परिवर्तित किया गया ! ईसा से 8 वर्ष पूर्व सम्राट अगस्टस सीजर ने स्वयं ही Sexitilis मास के नाम को अपने नाम से अर्थ ustus (August) नाम से प्रसिद्द कर दिया ! पहले Sextilis मास में तीस ही दिन थे, पर अपने नाम वाला मास जुलियस सीजर के नाम से प्रसिद्द मास Julius (July) के समान रहना चाहिए, ऐसा विचार कर तीस दिन के बदले में August को ३१ दिन का बना दिया ! इस एक दिन के आधिक्य को फरवरी मास में एक दिन घटा कर 29 दिन के बदले २८ दिन कर दिया इस कैलेण्डर के कुछ दोषों को दूर कर ‘पॉप ग्रेगरी’ ने एक विनूतन कैलेण्डर को प्रकाशित किया ! यही कैलेण्डर सन १५८२ से कुछ प्रमुख दशों में अपनाया गया ! यह ग्रेगरीयन कैलेण्डर किस-किस देश में कब-कब अपनाया गया था, इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है –

१५८३ संवत्सर (ईस्वी सन) – फ्रांस, इटली, लक्सेम्बर्ग, पुर्तगाल, स्पेन में
१५८३-१८१२ संवत्सर (ईस्वी सन) – स्विट्ज़रलैंड
१५८४ संवत्सर (ईस्वी सन) – जर्मनी (रोमन कैथोलिक), बेल्जियम और नीदरलैंड के कुछ प्रान्तों में
१५८७ संवत्सर (ईस्वी सन) – हंगरी
१६९९-१७०० संवत्सर (ईस्वी सन) – डेनमार्क, डच, जर्मन प्रोटेस्टणट
१७७६ संवत्सर (ईस्वी सन) – जर्मनी
१७५२ संवत्सर (ईस्वी सन) – ब्रिटेन, अमेरिका
१७५३ संवत्सर (ईस्वी सन) – स्वीडन
१८७३, १८७५ संवत्सर (ईस्वी सन) – जापान, मिश्र
१९१२-१९१७ संवत्सर (ईस्वी सन) अल्वानिया, बुल्गारिया, चीन, एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, तुर्की, युगोस्लाविया
१९१८,१९२३ संवत्सर (ईस्वी सन) – सोवियत रूस, ग्रीस 

भूगोल और खगोल के विज्ञान से, प्राकृतिक घटनाओं से, सूर्य-चन्द्र-गृह-नक्षत्रों की स्थितियों से ग्रेगारियन कैलेण्डर के मासों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं दिखता ! इसलिए जनवरी और फरवरी मासों को मार्च से पूर्व जोड़ने पर भी जनवरी-1 को सम्वत्सरादी के रूप में लोगों ने नहीं स्वीकार ! मार्च-25 को ही सम्वत्सरादी अर्थात नए वर्ष के रूप में मनाते हुए आये है ! सन १५८२ से जनवरी-1 नए वर्ष के रूप में व्यवहार में आया, उससे पूर्व नहीं !

जनवरी-1 को नए वर्ष के रूप में मनाने की पद्धति को अंग्रेजों ने भारत में भी सन १७५२ में आरम्भ करवाया ! भारतीय परंपरा को नष्ट करने के लिए बहुत से षड़यंत्र करने पर भी वित्तसंवत्सर और शिक्षा संवत्सर आज तक अप्रैल-1 से ही प्रारंभ होते है ! इन्हें बदल नहीं पाए ! ये दोनों ही संवत्सर नए संवत्सर के अनुकूल है, साथ में वैज्ञानिक और बुद्धिसंगत है ! पर अप्रैल-1 को मूर्ख दिवस के रूप में प्रचलन कराया गया है ! इसका कारण यह है कि सन १५८२ में फ्रांस k दसवें राजा चार्ल्स ने अपने देश में जनवरी-1 को सम्वत्सरादि के रूप में घोषित किया, पर वहां की जनता ने जनवरी-1 को संवत्सर नहीं माना और अप्रैल-1 को ही संवत्सर मनाती रही ! इससे क्रुद्ध चार्ल्स ने राजाज्ञा का उलंघन करने वाले सभी को मूर्ख घोषित किया ! उसके बाद धीरे-धीरे वहां की जनता को जनवरी-1 को ही सम्वत्सरादि के रूप में मानना पड़ा ! इस सफलता को देखकर, पुनः भविष्य में कोई भी अप्रैल-1 को नया वर्ष न मनाये, इस उद्धेश्य से चार्ल्स ने अप्रैल-1 को मूर्ख दिवस के रूप में घोषणा करवाई ! हम भारतीय इस सच्चाई को न जानते हुए जन्मान्धों के समान भेद चाल से उसका अनुकरण करते जा रहे है और बिना किसी राजाज्ञा के ही ख़ुशी से, आनंद से एक दूसर को अप्रैल-फूल (मूर्ख) बनाते जा रहे है ! ऐसा दृष्टांत संसार में अन्यत्र कनिं नहीं मिलेगा ! प्रत्येक मनुष्य व समाज अपने आप को बुद्धिमान, मेधावी तथा महान मानता है, मूर्ख व हीन नहीं ! एक दुसरे को परस्पर ज्ञानादि का आदान-प्रदान करना ही उत्तम समाज का लक्षण है ! पर परस्पर मूर्क कहना बुद्धिमानों का व्यवहार नहीं है ! अतः इस प्रकार की बुद्धिहीनता के व्यवहारों को त्यागकर अप्रैल-1 के बदले में जनवरी-1 को Foolish day के रूप में मनाकर अपनी बुद्धिमता का परिचय दें !

जनवरी-1 की आधी रात को शीत अपने चरम समा पर रहती है ! सर्वत्र उसका ही प्रकोप दिखाई देता है ! पौधे, वृक्ष, वनस्पति, लता-गुल्म आदि सभी रसहीन होकर मुरझा जाते है ! फूलों का विकास कहीं भी नहीं दिखता ! पशु-पक्षियों को तो शीत मृत्यु सदृश्य दिखाई देती है ! ऐसे विशाद्कर, दुखमय समय में नया वर्ष मनाना क्या उचित है ? सुधि पाठक विचार करें !

दिन का प्रारम्भ आधी रात को नहीं, अपितु सूर्योदय से तीन घंटे पुर्व (3 A.M.) होता है ! उसी समय पशु-पक्षी आदि जागकर अपने-अपने मधुर ध्वनियों से सभी दिशाओं को मनोहर एवं श्रव्य बनाते है ! वह दृश्य अवर्णनीय होता है ! उसी समय ऋषि, मुनि, योगी आदि भी उठकर ध्यान-मग्न हो जाते है, ब्रहम में लीं हो जाते है ! इसलिए उस समय को ब्रह्म मुहर्त कहते है ! किसान भी उसी समय निंद्रा को त्यागकर खेती के कार्यों में लग जाते है ! उसी समय सम्पूर्ण संसार में सक्रियता, क्रियाशीलता दिखाई देती है ! रात को मुरझे हुए पत्ते और फूलों में भी उसी समय विकास आरम्भ होता है ! प्राणियों के शरीरों में भी भी उसी समय एक विशिष्ट चैतन्य का संचार होता है ! मनुष्यों के शरीरों में भी सक्रियता, रक्त का संचार, ह्रदय की गति बढती है ! इसलिए ह्रदय के रोगियों को प्रायः इसी समय ह्रदयघात होता है ! 

हम सुनते आये है और आयुर्वेदादि शास्त्र भी कहते है कि सभी मनुष्यों को इसी ब्रह्ममुहर्त में जागना चाहिए ! क्यूंकि इस दिव्या महूर्त में सोने वाले की आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो जाती है एवं आलसी पन बढ़ जाता है ! इस प्रकार यह जड़ जगत, पशु-पक्षी, मनुष्यों का अनुभव एवं शास्त्र यह प्रकट कर रहे है कि ब्रह्ममुहर्त से दिन आरम्भ होता है ! पर इसके विपरीत आधी रात्री को दिन का आरम्भा वा संवत्सर का आरम्भ मानना क्या अज्ञानता का प्रतीक नहीं है ? मेधा संपन्न भारतियों को पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण कर पशु-पक्षियों से हीन अज्ञानियों के जैसा व्यवहार करना शोभा नहीं देता !

अग्नि व दीपकों को प्रज्वलित कर प्रकाश से संपन्न होकर अलौकिक आनंदानुभूति करने की संस्कृति है हमारी ! पर दीपकों को बुझाकर अन्धकार से प्रीती करने की सभ्यता है पाश्चात्यों की ! चारों और घनघोर अन्धकार से आच्छादित आधी रात को मनुष्य ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी आदि भी गहरी नींद में रहते है ! कहीं भी चेतनता, क्रियाशीलता नहीं दिखती ! ऐसे समय में वर्ष व दिन का आरम्भ मानन अज्ञान एवं अविवेकता है, विज्ञान के विरुद्ध है ! एक सूर्योदय (ब्रह्ममुहर्त) से दुसरे सूर्योदय के बीच के समय को ज्योतिष शास्त्र में सावन दिन कहते है ! मध्यरात्री से दिन आरम्भ होने का वर्णन किसी भी शास्त्र में नहीं है ! अतः भारतमाता के हे वीर सपूतों ! जागों, सचेत हो जाओ, विचार करों !  

वैदिक पं. योगेश जी शर्मा
वैदिक संसथान, शिवपुरी (म.प्र.)

          

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