हर हमले से मजबूत होते हैं हम - अनिल द्विवेदी

जब पांच राज्यों के चुनाव परिणाम यह दर्शा रहे थे कि राजनीति में न हार अटल है और ना जीत, ठीक उसी वक्त बस्तर के सुकमा में आतंक के दहशतगर्द नक्सलियों ने आईईडी ब्लॉस्ट कर 12 जवानों को शहीद कर दिया और कुछ को घायल। नक्सलरोधी-नीति पर सवालिया निशान खड़े करती इस घटना के तत्काल बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जो तत्परता-सह्दयता-उदारता दिखाईए उसने शहीद परिवारों के जख्मों पर मलहम तो जरूर लगाया है लेकिन मुंहतोड़ जवाबी कार्रवाई की दरकार बनी हुई है। 

लोकतंत्र के कायम हकों को छीनने की जो कोशिश दहशतगर्द नक्सली कर रहे हैं, वह कभी कामयाब नहीं होगी। आतंक के हब्शी लोग यदि यह सोच रहे हैं कि वे हमें डराने में कामयाब हो रहे हैं तो ऐसा हरगिज नहीं है। दस साल पहले 76 जवानों को इन्ही नक्सलियों ने आग में भून दिया था तो क्या हमारे निडर जवानों और सरकार ने घुटने टेक दिये ? याद रखें कि ऐसे हर हमले से हम और ज्यादा मजबूत होकर उभरते हैं। 

पहले एक आईना दिखाने वाली बात। भारतीय मीडिया का एक तबका चिल्लाता आया है कि बस्तर में मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है। अब कहां दुबक गए ऐसे लोग ? कल जब सारे भारत पर पांच राज्यों के चुनावी परिणाम की खुमारी चढ़ी हुई थी और टीआरपी का भूखा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, चौबीसों घण्टे उस पर चिल्ल-पौं कर रहा था तब किसी भी नेशनल चैनल ने इन जवानों की शहादत को गंभीरता और उदारता के साथ याद नहीं किया, बस रस्म के तौर पर एक लाइन की ब्रेकिंग न्यूज दिखा दी गई।

जनाब, आपके लिए जवानों की शहादत का दुरूख किसी भी राजनीतिक फिलसफे से बढक़र होना चाहिए। यहां तारीफ करना चाहूंगा हमारे सभी क्षेत्रीय न्यूज चैनलों की, जिन्होंने अपनी सुघड़ जिम्मेदारी निभाई और नक्सलियों के कायराना हमले की दिल खोलकर निंदा की। बयानबाजों के बेमतलब के सुर सप्तम यही दर्शा रहे हैं कि हर बार शांति वार्ता का आश्वासनरूपी झुनझुना थमा दिया जाता है। शख्सी फायदे या हौसले से इतर नुमांया तौर पर आम आदमी ने आतंकवादियों के हुकूमत की बजाय लोकतंत्र के रास्ते को अपने लिए अधिक भला माना है लेकिन यह मान लेना भूल होगी कि बस्तर के लोग अपने दम पर अकेले इस चक्रव्यूह से निकल आएंगे। इसके लिए सरकार की नेकनीयती और मजबूत इच्छाशक्ति बेहद जरूरी है !

आज जब नक्सलवाद के अलाव की आंच उनके अपने ही दुष्कर्मों से धीमी पड़ रही है तब हमारे हुक्मरानों की एक भी गलती इस ठंडी पड़ती आग में घी का काम कर सकती है। राज्य के मुखिया, मुख्यमंत्री रमन सिंह ने ठीक ही दोहराया कि जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाने दी जाएगी। डॉक्टर साहब ने बस्तर में जिस तरह पुलिस को बंधनमुक्त कर रखा है, उसी का परिणाम है कि पहले सरगुजा और अब बस्तर से माओवादियों के पैर उखडऩे लगे हैं। लेकिन सिर्फ इतना मान लेना आईने से मुंह मोडऩे जैसा होगा कि शांति-राग अलापने मात्र से नक्सली आत्मसमर्पण कर देंगे बल्कि उन्हें चौतरफा घेरने की जरूरत है।

पहला हथियार शांति-वार्ता का है लेकिन वे इसे मानने को तैयार नहीं है। याद कीजिए कि अभी नेपाल के प्रधानमंत्री और माओवादी नेता रह चुके प्रचंड ने कभी स्वीकारा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है इसलिए साफ है कि जनता सरकार का राज लाने को संकल्पित नक्सली, शांति-वार्ता की टेबल पर कभी नहीं आ सकते अन्यथा कलेक्टर मेनन अपहरण काण्ड के बाद तो उनके लिए अच्छा मौका था।

दूसरा पाथेय शांति और विकास का है जिसने नक्सलियों के संगठन की जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया है। नक्सली-दल अब अधेड़ों की शरणस्थली बने हुए हैं। उनका रास्ता हर रोज मुश्किल होता जा रहा है। उन्हें उन नौजवानों ने ठेंगा दिखाना शुरू कर दिया है जो अब इंजीनियर-डॉक्टर बनकर बेहतर सामाजिक और सम्मान भरा जीवन जीना चाहते हैं। पुलिस के आंकड़ें बताते हैं कि अब तक 400 से ज्यादा युवा नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है जबकि इसके मुकाबले नक्सली मात्र 10 प्रतिशत युवाओं को ही दल में भर्ती कर पाते हैं।

तीसरा हथियार बस्तर में सेना बिठाने का है। मालूम नहीं कि तीन साल पहले सेना की तीन टुकडिय़ां जो बस्तर में बिठाई गई थीं, उनके कितने उत्साहजनक परिणाम मिले या वे फिलहाल बस्तर में हैं भी या नहीं लेकिन इतना डर तो नक्सलियों के मन में घर कर ही गया कि यदि गलती से भी उन्होंने हमला किया तो जवाबी कार्रवाई उनकी कब्रगाह साबित हो सकती थी। फतहयाबी के साथ सेना का डर नक्सलियों में बना रहे, इसके लिए उसकी प्रभावी मौजूदगी दर्ज होना चाहिए।

फिर भी लफजों की फेर-फार के बगैर यह कहना ठीक होगा कि नक्सलवाद के अलाव की आंच उनके अपने ही दुष्कर्मों से धीमी पड़ रही है तब हमारे हुक्मरानों की एक भी गलती इस ठंडी पड़ती आग में घी का काम कर सकती है। आइपीएस एसआरपी कल्लूरी साहब बस्तर आईजी के तौर पर नक्सलियों के लिए मेन्स किलर साबित हो रहे थे लेकिन कुछ समय के लिए विपक्ष ने घडिय़ाली आंसू और मानवाधिकार के ठेकेदारों ने मिमियाना क्या शुरू किया, नौवातानुकूलित चेम्बरों में बैठे लोगों ने तिकड़मबाजी कर कल्लूरी साहब की घर-वापसी करवा दी। अब ये मानव अधिकार के अलंबरदार कहां हैं ?

कल्लूरी साहब की तरह ही बहादुर पुलिस अफसर अजीत ओगरे भी हैं। उनके पिता भी सेवानिवृत्त पुलिस अफसर रहे हैं। अजीत ने अब तक 72 से ज्यादा नक्सलियों के एनकाउंटर किए हैं जिसकी वजह से उसके सीने पर तीन राष्ट्रपति पदक लगे हुए हैं। लेकिन पुलिस विभाग में बैठे कुछ कायरों की जमात ने उसे भी प्रताडि़त कर किनारे लगा दिया। ताहम रूझां इस तरफ है कि आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु में आतंक के सरगनाओं को खत्म करने में ऐसे ही जांबाजों का हाथ रहा है। यह भी याद रखें कि आतंक के सौदागरों से वर्दीपोश ही लड़ेंगे, ना कि सफेदपोश।

कुंवर जावेद का शेर सुन लीजिए -

दया के नाम नदी जब हिलोरें लेती हैं, तू उस नदी की रवानी उतार लेता है !

लहू को पानी की तरह से यूं बहाना तेरा, हमारे चेहरे का पानी उतार लेता है !

अनिल द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं


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