आप भगत सिंह को जानते हैं, किन्तु उनके साथ फांसी पर चढ़े राजगुरू को कितना जानते हैं ? - अरविंद नीलकंदन, सहयोगी सम्पादक स्वराज



ज्यादातर लोग भगतसिंह को जानते हैं, किन्तु उनके साथ फांसी पर चढ़े शिवराम राजगुरू या सुखदेव थापर को कितना जानते हैं ? जबकि इन तीनों ने 1930 में साथ साथ मातृभूमि की बलिवेदी पर अपने जीवन का उत्सर्ग किया | निश्चित ही भगतसिंह ने जो किया वह करिश्माई था, किन्तु शेष दोनों का जीवन भी बलिदान और आंतरिक शक्ति के चरम को स्पर्श करता है | 

5.5 फीट लंबा कद, मृत्युदंड पाये इस सांवले सलोने युवा के सामने एक महिला आई और कांपती आवाज में बोली - "क्या आप अपनी इस बहन पर एक आखिरी अनुग्रह करोगे?"
उसने मुस्कुराते हुए कहा "ज़रूर, दीदी, बताओ क्या करना है !"
उसने कहा "क्या आप मुझे वे निशान दिखाओगे?"

कौन थी वह महिला, और कौनसे निशान देखना चाहती थी ? खैर इस पर चर्चा बाद में करेंगे, पहले राजगुरू को जानें समझें -

लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स को लुढ़काने के बाद एक अन्य क्रांतिकारी की पत्नी दुर्गावती के साथ साहेब बनकर भगत सिंह बच निकले, सबने दुर्गावती को 'मेमसाहब' समझा । कर्मचारी के रूप में उनका सामान ढो रहे थे राजगुरु । यह क्रांतिकारी संस्कृत के विद्वान थे, जिन्होंने तारक शास्त्र और लघु सिद्धांत कौमुदी का अध्ययन किया था |
काशी में राजगुरु का लक्ष्य संस्कृत की उच्च शिक्षा ग्रहण करना था, किन्तु वह धीरे-धीरे क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ते गए । वीर सावरकर के भाई बाबा राव सावरकर से भेंट के बाद उन्होंने क्रांति मार्ग पर चलने का दृढ निश्चय कर लिया, और युवाओं की शारीरिक शक्ति विकसित करने और मानसिक अनुशासन पैदा करने के लिए बने संगठन हनुमान प्रसारक मंडल से जुड़ गए। उनकी शारीरिक क्षमता व प्रसन्नचित्त स्वभाव के कारण जल्द ही उनके कई अच्छे दोस्त बन गए | यहाँ ही उनका संपर्क केशव बलीराम हेडगेवार से भी हुआ, जिन्होंने बाद में आरएसएस की स्थापना की ।
फायरब्रांड क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद से मिलने के बाद, राजगुरु हिंदुस्तान क्रांतिकारी सेना में शामिल हुए, जो बाद में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एचएसआरए) बन गया । आजाद ने राजगुरू को पहला काम सोंपा – जिहादी मानसिकता के घनघोर सांप्रदायिक हसन निजामी का उन्मूलन | राजगुरू का निशाना तो सटीक रहा, किन्तु लक्ष्य गलत रहा और हसन निजामी की जगह उसका श्वसुर सोमाली मारा गया ।
17 दिसंबर 1 9 28 को एक बार फिर राजगुरू को पिस्तौल का ट्रिगर खींचने का अवसर मिला । निशाना फिर सटीक और प्राणघातक रहा | गोली ने लक्ष्य की छाती को भेदा और उसे समाप्त कर दिया। लेकिन इस बार भी लक्ष्य गलत निकला | क्रांतिकारी लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए, मारना चाहते थे ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेम्स स्कॉट को, किन्तु क्रांतिकारियों के सहयोगियों में से एक जय गोपाल ने गोली मारने के लिए गलत संकेत दे दिया । परिणाम स्वरुप एक अन्य पुलिस अधिकारी, सौन्डर्स मारा गया | अगले दिन क्रांतिकारियों ने एक सार्वजनिक घोषणा में इस पर खेद भी व्यक्त किया कि उन्होंने एक गलत आदमी को मार डाला | किन्तु साथ ही यह भी कहा कि आखिर वह भी तो 'क्रूर, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का ही हिस्सा' था। बाद में जब हर कोई राजगुरू की निशानेबाजी की सराहना कर रहा था, तो उन्होंने मजाक में कहा कि वे तो वास्तव में सिर पर निशाना लगा रहे थे, गलती से बुलेट ने छाती को बींधा।
राजगुरू अन्य क्रांतिकारियों के समान शारीरिक रूप से सबल नहीं थे । लेकिन इसे लेकर उनके मन में कोई हीन भावना नहीं थी, वे अपना स्वयं का भी मजाक उड़ा लेते थे | एक बार जब उन्होंने एक लड़की की खूबसूरत पेंटिंग का कैलेंडर दीवार पर लटका दिया, तो आजाद ने उसे राजगुरू की अनुपस्थिति में टुकड़े टुकड़े कर दिया, और कहा कि एक क्रांतिकारी के जीवन में इन चीजों का कोई स्थान नहीं है । जब राजगुरु आये तो उनकी आजाद के साथ गर्मागर्म बहस भी हुई | जब आजाद ने कहा कि जिस सौन्दर्य की कोई उपयोगिता नहीं वह व्यर्थ है, तो राजगुरू ने उनसे पूछा कि क्या वे ताजमहल को भी ध्वस्त करेंगे ? आजाद ने कहा, "हाँ, मैं कर सकता हूं अगर मैं कर पाया तो ।"
राजगुरू एक क्षण को शांत रहे, फिर धीरे से बोले - " सुंदर चीजों को नष्ट करने से हम दुनिया को सुंदर नहीं बना सकते, जो हम बनाना चाहते हैं ।" अब चुप रहने की बारी आज़ाद की थी । उन्होंने कहा कि उनका वास्तव में यह मतलब नहीं था, वे केवल यह कहना चाहते थे कि स्वतंत्रता प्राप्त करना ही क्रांतिकारियों का एकमेव लक्ष्य है, उससे ध्यान नहीं हटना चाहिए ।
7 अप्रैल 1 9 2 9 को भगत सिंह को विधानसभा में बम की घटना के बाद गिरफ्तार किया गया। राजगुरु भी उनके साथ ही आना चाहते थे, किन्तु भगत सिंह ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी थी। 15 अप्रैल को, सुखदेव को एक छापे के बाद गिरफ्तार किया गया । इस बीच राजगुरू कासी को छोड़कर अमरावती, नागपुर और वर्धा में रहे | यहाँ उनकी भेंट एक बार फिर डॉ. हेडगेवार से हुई, जिन्होंने एक आरएसएस कार्यकर्ता के घर पर उनकी सुरक्षित रहने की व्यवस्था की । वह भोजन के लिए कभी कभी अपने भाई के घर पर भी जाते थे, जहाँ एक दिन उनकी मां ने राजगुरू के के पास बंदूक देखी और उनसे पूछा कि क्या एक पंडित के पास पिस्तौल होना उचित है। राजगुरू ने बहुत ईमानदारी और धैर्य से अपनी बुजुर्ग मां को समझाया:
"जब धर्म या राष्ट्र संकट में हो, तब केवल हथियार ही उपयोगी हैं। ब्रिटिश हम पर सभी प्रकार से आघात कर रहे हैं, हमें अपमानित कर रहे हैं और मुझे उम्मीद नहीं है कि वे अनुरोध करने से रुकेंगे । आप भी तो विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करती हो, जिसमें भगवान का एक नाम 'सर्वप्रभूरणुद्धा' भी है, जिसका अर्थ है, सभी शस्त्रों से सुसज्जित ।
भगत सिंह तीनों क्रांतिकारियों में सबसे मुखर थे, और संभवतः राजगुरु शांत और लगभग अदृश्य, किन्तु उन सभी के विचार प्रक्रियायें समान थीं, तथा व एक दूसरे को प्रभावित भी करती थीं । मालवीन्द्रजीत सिंह और हरीश जैन ने भगत सिंह की 'जेल नोटबुक' के विस्तृत अध्ययन उपरांत लिखा है कि उसमें वीर सावरकर लिखित 'हिंदू पद पदशही' के निम्न उद्धरण भी थे:
बलिदान केवल तभी प्रशंसनीय और उपयुक्त है, जब वह सीधे तौर पर या परोक्ष में यथोचित रूप से सफलता के लिए अनिवार्य हो । जो बलिदान अंतिम सफलता की ओर नहीं ले जाता, वह तो आत्मघात है, यही कारण है कि मराठा युद्ध रणनीति में उसका कोई स्थान नहीं था।
लेकिन शहादत को कौनसी बात विफल करती है या विफल करने का प्रयत्न करती है ? नपुंसक अत्याचार के माध्यम से यह करते रहे हैं, और बलिदानी गाथाओं को झुठलाते और छुपाते रहे हैं ।
धर्मान्तरित होने की तुलना में मारा जाना पसंद करना उन दिनों हिंदुओं के बीच प्रचलित था । किन्तु स्वामी रामदास ने उठकर कहा:
"नहीं: यह ठीक नहीं है: चुपचाप मारे जाने से तो धर्मान्तरित हो जाना बेहतर है, लेकिन सबसे बेहतर तो यह होगा कि न कोई मारा जाए, न कोई बलात धर्मान्तरित हो, बल्कि जो ऐसा करने का प्रयास करें, वे मारे जाएँ ! होना यह चाहिए कि हिंसक सेनाओं को मारकर ही मरा जाए, जीतने के लिए मारते समय मरना ही सच्ची शहादत है |
सिंह और जैन ने लिखा कि सावरकर की इन पंक्तियों ने भगत सिंह को कितना प्रभावित किया, इसका प्रमाण है कि उन्होंने गहराई से इन पैराग्राफों को अपनी डायरी में हाईलाईट किया हुआ था । उन्होंने यह भी बताया कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने जो कुछ किया, वह कोरी भावुकता नहीं थी, वस्तुतः उन्होंने सुविचारित ढंग से बलिदान दिया ताकि मीडिया के माध्यम से उनका सन्देश दूर दूर तक पहुंचे और बड़ी संख्या में देशवासी आजादी के संघर्ष हेतु प्रेरित हों । दिलचस्प बात यह है कि पुलिस ने छापे के दौरान सुखदेव के पास से भी हिंदू पद पादशाही की एक प्रति प्राप्त हुई थी । हिंदुत्व संबंधी साहित्य एचआरएसए के क्रांतिकारियों के स्वाध्याय सूची में प्रमुखता से था । क्रांतिकारियों पर राजगुरू के शांत प्रभाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।
आखिर 30 सितंबर 1 9 2 9 को डीएसपी सय्यद अहमद शाह द्वारा राजगुरू को भी गिरफ्तार कर लिया गया । जेल में मौत की सजा का इंतजार करते समय भी राजगुरू का विनोदी स्वभाव परिवर्तित नहीं हुआ । जेल के भीतर प्रसिद्ध भूख हड़ताल के बाद जब भगत सिंह ने अपनी भूख हड़ताल खत्म करते हुए दूध लिया और राजगुरू को भी जबरन दूध पिलाते हुए परिहास किया - "क्या मुझसे पहले जाने की कोशिश कर रहे हो?"
तब राजगुरु के जवाब ने हर किसी को हंसा दिया | उन्होंने कहा " मैंने सोचा कि मैं जल्दी से आगे जाकर तुम्हारे लिए एक कमरा बुक करूँगा लेकिन ऐसा लगता है कि आपको यात्रा के दौरान भी मेरी सेवाओं की आवश्यकता होगी ! "
***
क्रांतिकारियों के शरीर पर निशान सामान्य बात है । चंद्रशेखर आजाद जब बता रह थे कि क्रांतिकारियों को पुलिसिया अत्याचार भी सहने होंगे, तब राजगुरू चुपचाप रसोई में गये और एक चमीटा उठाया । उन्होंने उसे लाल गर्म किया और फिर उसे अपनी छाती पर रखा। कोई देखने वाला नहीं था । उन्होंने अपने आप को सात बार दागा, केवल अपनी सहनशक्ति की परीक्षा करने के लिए । कुछ दिन बाद वे घाव फोड़े बन गए और जब एक रात वे नींद में कराह रहे थे, तब चंद्रशेखर आजाद ने उन्हें खोजा। महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी राजगुरू की अंतिम यात्रा के पूर्व उनसे मिलने पहुंची सुशीला दीदी, उन निशानों को देखने का ही आग्रह कर रही थीं । स्वाभाविक ही अनुरोध सुनकर राजगुरू का मुखमंडल और अधिक उज्ज्वल हो गया ।

सौजन्य: स्वराज्य

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