रो, मेरे प्यारे देश, रो।


आज जबकि कुछ शिक्षण संस्थाये बामपंथ के गढ़ के रूप में परिवर्तित होती दिखाई दे रही हैं, देश के भविष्य की सुरक्षा की खातिर कुछ बिन्दुओं पर विचार आवश्यक है ! 25 फरवरी 2016 को एशियन एज में प्रकाशित सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा (स्वर्गीय) का आलेख आज भी सामयिक है | प्रस्तुत है, उसके कुछ अनूदित अंश -

http://www.asianage.com/columnists/crying-shame-259

लोकतंत्र में "प्रगतिशील और उदार विचार सदैव स्वागत योग्य है ... तो क्या जेएनयू में मकबूल भट्ट, याकूब मेमन, अफजल गुरु और अजमल कसाब को नायक के रूप में प्रस्तुत किये जाने का भी स्वागत किया जाए । किसी अपराधी को दी गई फांसी की सजा वैध है अथवा नहीं, इसका निर्णय क्या अब विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने वाले विद्यार्थी करेंगे ? फिर न्यायालयों की आवश्यकता क्या है ?"

घनघोर साम्राज्यवादी विंस्टन चर्चिल ने भारत की स्वतंत्रता का भी घनघोर विरोध किया था। भारत की आजादी की पूर्व संध्या पर उन्होंने लिखा था, "सारी शक्ति दुष्टों, बदमाशों और लुटेरों के हाथों में जायेगी ... वे (भारतीय) सत्ता के लिए आपस में लड़ेंगे और भारत राजनीतिक तकरार में खो जाएगा।" जवाहर लाल नेहरू और स्वतंत्रता सेनानियों की उस पीढी ने चर्चिल को गलत साबित कर दिया, लेकिन आज की दशा और दिशा देखकर लगता है कि चर्चिल के कथन में काफी कुछ सच्चाई थी । यह सही है कि आज भी उच्च जीवन मूल्यों वाले राजनेता हैं, लेकिन कितने ? उँगलियों पर गिने जाने लायक संख्या है क्या उनकी ?

जेएनयू अपने महान नाम के अनुरूप बौद्धिक उत्कृष्टता युक्त हमारी प्रमुख शैक्षिक संस्था है। कहा जाता है कि काफी हद तक नेहरू ने ही इसका वामपंथी झुकाव सुनिश्चित किया था । वे एक महान बौद्धिक और देशभक्त थे, जिन्होंने देश के लिए अत्याधिक व्यक्तिगत बलिदान दिया था। वे हमारे उदार लोकतंत्र के प्रमुख वास्तुकार थे। लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर कम्युनिस्टों ने जैसे कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रंग बदला था, उसी प्रकार आजादी के बाद भी अपना बीभत्स स्वरुप दिखाया ! ऐसे समय में जबकि हमारे सैनिक हिमालय की चोटियों पर चीनी सेना से जूझते हुए अपने जीवन का उत्सर्ग कर रहे थे, ये कम्यूनिस्ट कोलकाता में दीवारों को इन नारों से रंग रहे थे – लॉन्ग लिव माओ ।

प्रगतिशील और उदार विचारों का लोकतंत्र में स्वागत है। किन्तु क्या विध्वंसक चिंतन और राष्ट्र विरोधी कृत्यों का भी समर्थन करना चाहिए? मकबूल भट्ट, जो कश्मीरी पंडितों के नर संहार और अनेक हत्याओं के लिए जिम्मेदार था; याकूब मेमन, जो 1993 में बंबई में हुए बम विस्फोट व उनमें जान गंवाने वाले 257 लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार था; अफजल गुरु जो भारतीय संसद पर हुए हमले के लिए जिम्मेदार; या अजमल कसाब जिस पाकिस्तानी आतंकवादी ने 26/11 के मुंबई हमलों में निर्दोष नागरिकों की हत्यायें कीं, उन हत्यारों को जेएनयू में नायक के रूप में स्वागत किया गया । फांसी की वैधता पर सवाल उठाये गए ।

ब्रिटेन में, चर्चिल ने युद्ध के दौरान जो मंत्रिमंडल गठित किया था, उसमें लियोपोल्ड एस अमेरी भारत और बर्मा के लिए राज्य सचिव थे | उनके बेटे जॉन अमेरी को बर्लिन से नाजी प्रचार प्रसारण के आरोप में युद्ध के बाद फांसी पर लटकाया गया । । इसी प्रकार अमेरिका में, जूलियस रोसेनबर्ग को सोवियत रूस के लिए जासूसी के आरोप में सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई । इन देशों में इसके खिलाफ ना तो कोई विरोध प्रदर्शन हुआ और ना ही किसी ने सवाल उठाये । शायद हमारे बुद्धिजीवी ब्रिटेन और अमेरिका को अपूर्ण लोकतंत्र मानते हैं तथा भारत को एक ऐसा आदर्श लोकतंत्र बनाना चाहते हैं, जिसमें हर तरह के आपराधिक कृत्य को नजरअंदाज किया जा सकता है और अपराधियों को महिमा मंडित किया जा सकता है।

9 फरवरी 2016 को जेएनयू परिसर में घटित दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को जिस प्रकार रातोंरात "राष्ट्रीय हीरो 'बनाया गया क्या उसकी सराहना होना चाहिए ?

वामपंथी नियंत्रण वाले जेएनयूएसयू में 2000 में एक मुशायरे का आयोजन किया गया, जिसमें पाकिस्तान से भी शायरों को आमंत्रित किया | इन शायरों ने भारत का मजाक भी उड़ाया और खुलकर भारत विरोधी बयान दिए । कारगिल युद्ध के दो सैनिकोण ने आपत्ति की तो उन्हें इतना पीटा गया कि उन लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा । पाकिस्तान के साथ युद्ध में भारतीय सैनिकों द्वारा किए गए बलिदान जेएनयू के हमारे बुद्धिजीवियों के लिए कोई मायने नहीं रखते । कोई आश्चर्य नहीं कि वे मकबूल भट्ट और अफजल गुरु को पसंद करने वाले, उनकी शान में कसीदे पढ़ने वाले इन लोगों के पास उन कोप्पड हनुमानथप्पा की तरफ गौर करने का कोई समय नहीं था, जो छह दिनों तक बर्फ में दफन रहने के बाद भी चमत्कारिक ढंग से बच गया था और दिल्ली के ही सेना के रिसर्च एंड रेफरल अस्पताल में जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे थे | इन निर्बुद्ध बुद्धिजीवियों ने ना तो हिमस्खलन में मारे गए नौ बहादुर सैनिकों को श्रद्धांजलि दी, और ना ही ऐसी कठिन परिस्थितियों में अपने जीवन को खतरे में डालकर शवों का पता लगाने के लिए गए सेनानियों की तारीफ़ में दो शब्द बोलने की जहमत उठाई । बिहार के एक कैबिनेट मंत्री ने तो बयान ही दिया कि सैनिक तो होते ही मरने के लिए हैं । 

ये लोग मकबूल भट्ट को तो श्रद्धांजलि अर्पित करने को तो बेताब होते हैं, किन्तु उस मकबूल शेरवानी की तारीफ़ करने का इनके पास कोई समय नहीं है, जिसने एक नेशनल कांफ्रेंस कार्यकर्ता होते हुए भी नवंबर 1947 में पाकिस्तान से आए हमलावरों को गुमराह किया, जिसके कारण पाकिस्तानी सेना को बारामूला से श्रीनगर पहुँचने में देरी हुई । उसने काश्मीरी हिन्दुओं के जान बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | बाद में इस अपराध के लिए उसे सार्वजनिक रूप से 7 नवम्बर 1947 को बारामूला के नजदीक ईसा मसीह के समान एक क्रोस पर लटका कर मार दिया गया | मैंने 2005 में उस स्थान पर एक उपयुक्त स्मारक निर्माण करवाया ।

मकबूल शेरवानी ने जिन कश्मीरी पंडितों के लिए बलिदान दिया, वे आज अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं | वे पीड़ित तीन लाख पंडित भी जेएनयू के बुद्धिजीवियों के लिए ध्यान देने योग्य नहीं हैं। जबकि उनमें से हजारों लोग, जेएनयू से महज कुछ ही गज की दूरी पर हरिजन कॉलोनी में, तो कुछ दूसरे लाजपत नगर में टाउन हॉल में अत्यंत दयनीय जीवन गुजार रहे हैं |,जम्मू एवं कश्मीर के राज्यपाल के रूप में पदभार संभालने पर मेरी पहली प्राथमिकता इन सभी शिविरों का दौरा करने की रही । जबकि 14 साल में किसी भी वरिष्ठ राज्य या केंद्र सरकार के अधिकारी ने इन शिविरों का दौरा नहीं किया । जब मैंने इन लोगों के लिये पेयजल हेतु कुछ वाटर कूलर उपलब्ध कराये या दवाओं के साथ एक डिस्पेंसरी और एक विजिटिंग चिकित्सक उपलब्ध कराया तो राज्य सरकार ने इसका विरोध करते हर मुझपर आरोप लगाया कि मैं राज्य प्रशासन में दखल दे रहा था।

जेएनयू जवाहरलाल के नाम पर है, जो स्वयं एक कश्मीरी पंडित था । अपने दुखी भाइयों को देखकर उनकी आत्मा भी खून के आंसू बहाती होगी । जेएनयू के बुद्धीजीवी और हमारे महान धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने कश्मीरी पंडितों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है ।

रो, मेरे प्यारे देश, रो। 

लेखक परिचय - जम्मू-कश्मीर और असम के पूर्व राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा ने 17 नवम्बर 2016 को 90 साल की आयु में अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की । उनका जन्म बिहार के गया जिले में हुआ था। वे 1943 में सेना में शामिल हुए थे। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में वर्मा इंडोनेशिया में तत्कालीन ब्रिटिश भारतीय सेना का नेतृत्व किया। आजादी के बाद कश्मीर में घुस आई पाक सैनिकों को पीछे हटने को मजबूर कर दिया। स्वर्ण मंदिर प्रकरण को लेकर उन्हें दरकिनार कर जनरल वैद्य को सेना प्रमुख बनाए जाने के बाद सिन्हा ने 1983 में इस्तीफा दे दिया था। वे नेपाल में भारत के राजदूत भी रहे।


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