विष्णु मंदिर शिवपुरी पर आयोजित वेदांत सम्मेलन के महत्वपूर्ण अंश |

विष्णु मंदिर शिवपुरी के मनोहारी शेषशाई लक्ष्मीनारायण 


शिवपुरी के दीवान परिवार को अगर शिवपुरी का सर्वाधिक प्रमुख परिवार कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | 1952 में जब शिवपुरी में जनसंघ का कार्य प्रारम्भ हुआ, तब दीवान दौलतराम जी इसके प्रथम संस्थापक अध्यक्ष बने| 

दीवान दौलतराम जी, बैसे तो मूलतः गुजरांवाला पंजाब के निवासी थे, किन्तु भारत विभाजन के पश्चात पंजाब का यह हिस्सा पाकिस्तान में चले जाने के बाद वे शिवपुरी आकर बस गए तथा सिंधिया परिवार के सहयोग से कत्था मिल नामक प्रथम उद्योग की स्थापना की| दीवान साहब के पूर्वज 1919 तक तत्कालीन कश्मीर रियासत के दीवान रहे थे, इस कारण दीवान उपनाम उनके साथ जुडा| उस दौर में जबकि जनसंघ के प्रत्यासियों की जमानत जब्त हुआ करती थी, दीवान दौलतराम जी ही संगठन के प्रमुख मददगार सिद्ध हुए | यहाँ तक कि 1962 के चुनावों में उनके माध्यम से ही पहले चार पहिया वाहन पार्टी को उपलब्ध हुए | वह भी विशालकाय हडसन कार और एक खुली जीप | 

बाद में दीवान परिवार ने छतरी रोड पर एक भव्य विष्णु मंदिर का भी निर्माण कराया | वर्तमान में श्री सुरिंदर लाल दीवान साहब व उनके पुत्र श्री अरविन्द दीवान उनके वंशज हैं | दीवान परिवार द्वारा प्रतिवर्ष मंदिर प्रांगण में एक वेदान्त सम्मेलन का आयोजन किया जाता है | इस वर्ष के वेदान्त सम्मेलन के सूत्रधार थे, रामतीर्थ मिशन के वेदांत मर्मज्ञ काका हरिओम | प्रस्तुत हैं श्री बलराम मुनि जी, श्री शिवचंद्र दास जी तथा इंद्र जी महाराज के द्वारा दिए गए प्रवचन के कुछ महत्वपूर्ण अंश - 

स्वामी रामतीर्थ का जीवन क्रम 1906 में पूर्ण हुआ, वह भी मात्र 33 वर्ष की आयु में | इतनी कम आयु में ही उन्होंने पूरे विश्व को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित कर दिया | इस्लाम जो कि अपनी कट्टरता के लिए आज भी कुख्यात है, उन दिनों की स्थिति की तो सहज कल्पना ही की जा सकती है | स्वामी राम इकलौती शख्सियत हैं, जिन्होंने एक सन्यासी के रूप में काहिरा की जामा मस्जिद में उनकी भाषा में वेदांत पर व्याख्यान दिया |

वेदान्त के माध्यम से अप्राप्त की प्राप्ति नहीं होती | क्योंकि जो अप्राप्त है, वह आज प्राप्त होने के बाद कल पुनः अप्राप्त हो सकता है ! जो हमारे पास है, किन्तु हमें उसका आभास नहीं है, अर्थात प्राप्त की प्राप्ति कराता है वेदान्त | वेदान्त हमारी आतंरिक स्थिति, विचारों को बदलता है | 

सूरज हमारे पीछे हो तो छाया आगे होती है | छाया को पकड़ना चाहो तो कुछ हाथ नहीं आने वाला | हाँ सूरज की और मुंह करके चलना शुरू करो, तो अवश्य परछाईं भी पीछे पीछे आने लगती है | DOG को बदलकर पढो तो GOD | यह परिवर्तन आता है, जब आप अपने अन्दर के बेशकीमती को जान जाते हो |

तू एक दिन भी जी, शहंशाह बनकर जी |
मत पुजारी बन, स्वयं भगवान बनकर जी ||

कबीरदास ने कहा –

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर,
मनका मनका डार दे, मन का मनका फेर |

नकारात्मक को मन जल्दी पकड़ता है | कबीर के कहे में से भी आधा ही पकड़ा | मन का मनका तो फेरा नहीं, कर का मनका भी छोड़ दिया | कहा गया है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा | मन चंगा होगा तोहि कठौती में गंगा होगी। जब तक कठौती मेँ गंगा नहीं आई, अर्थात मन चंगा नहीं हुआ, तब तक गंगा स्नान तो ना ही छोड़ें |

हमारे यहाँ ईश्वर से भी धन सम्पदा की मांग करना आदर्श नहीं समझा गया | यज्ञोपवीत संस्कार के समय सबसे पहले गुरू शिष्य के कान में गायत्री मन्त्र का उपदेश करता है | क्या है गायत्री मन्त्र में ? हे जगत को प्रकाशित करने वाले सूर्य मुझे सद्बुद्धि दो |

कहा जाता है कि शेरनी का दूध केवल स्वर्ण पात्र में टिकता है। आपका मन स्वर्णिम बने, सद्बुद्धि हो, तभी वहां आध्यात्म टिकेगा |

गीता में कहा गया – युक्तियुक्त कर्म योग है | योग की परिभाषा है – योगः कर्मसु कौशलम | अब यह कुशल क्या है ? कुशल शब्द बना है है कुश से | जो कुश जैसी तीखी घांस को भी बिना हाथ कटे उखाड़ लाये वह कुशल | अर्थात कर्मों की कुशलता योग है | कर्म ही बंधन कारक हैं तो कर्म ही मुक्ति प्रदाता | बिना कर्म किये कोई नहीं रह सकता | हम सांस भी लेते हैं तो वह भी कर्म ही है | कृष्ण कहते हैं – एक क्षण भी बिना कर्म किये नहीं रह सकते | शुभ करेंगे तो शुभ होगा, अशुभ करेंगे तो अशुभ होगा | अतः यज्ञ के लिए कर्म करें | कृष्ण के कथन के मर्म को समझें |
यज्ञ का अर्थ केवल हवन करना नहीं है । 

यज्ञ का एक अर्थ विष्णु भी है ।
विष्णु वह जो व्यापक है ।
जो कण कण में है, रोम रोम में है ।
समष्टि के लिए कुछ करना यज्ञ है ।
अपने लिए करेंगे तो फंसेंगे, अपनों के लिए करेंगे तो तरेंगे ।
अपना कौन ?
जब सबमें वही विद्यमान है तो सभी अपने ।
अपनों के लिए करना ही सबसे बड़ा सुख ।

भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं तीन चीजें – अर्पण, तर्पण, समर्पण |
समष्टि के लिए जो किया जाए वह अर्पण, अपने बुजुर्गों पूर्वजों के लिए तर्पण, और अभिमान शून्य होकर ईश्वर के सम्मुख आत्म समर्पण | जब तक ईगो है, समर्पण संभव नहीं |
राजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रजा है |

दुनिया में तीन तरह के लोग हैं – योग्य नहीं हैं, फिर भी चाहते हैं, योग्य हैं और चाहते भी हैं, योग्य हैं किन्तु कुछ नहीं चाहते | सार्वभौम सिद्धांत है कि प्रकृति योग्य को देती ही है | इच्छा की जरूरत ही क्या है |

काम, क्रोध, मद, लोभ आदि दुर्गुण डायविटीज की तरह हैं, जिन्हे समाप्त तो नहीं किया जा सकता, किन्तु उचित दवा और परहेज से इन्हें कंट्रोल में अवश्य रखा जा सकता है ।
दवा है सत्संग और स्वाध्याय और परहेज है कुसंग ।

हिरण का अर्थ है स्वर्ण और कश्यपू का अर्थ है बिस्तर | अगर आज की भाषा में हिरण्यकश्यपू का अर्थ करें तो नोटों के बंडल पर सोने वाला | हिरण्यकश्यपू के विषय में कहा जाता है कि वह चलता था तो धरती हिलती थी और उसका मुकुट बादलों को स्पर्श करता था | इसे रूपक मानें तो भी यह अहंकार का वर्णन है | 

इसी प्रकार अक्ष का अर्थ है आँख, तो हिरण्याक्ष का अर्थ हुआ – सदा स्वर्ण पर नजर रखने वाला, अर्थात धन लोलुप | 

जबकि प्रहलाद का अर्थ है अतुलनीय आनंद | धनलोलुप और अहंकारी राक्षसों के घर में आनंद का जन्म हुआ क्योंकि वे शत्रु भाव से ही सही, भगवान का सतत स्मरण तो करते ही थे | 

जो समग्रता में ईश्वर को देखता है वह भक्त, जो अपना पराया देखता है वह विभक्त, और जो केवल खुद को देखता है वह अभक्त | भक्ति का अर्थ है, स्वयं को परमात्मा के साथ जोड़ना | उप माने समीप और आसना अर्थात बैठना – समीप बैठना उपासना | जिसके साथ बैठे हैं, उसके अस्तित्व का अहसास, यह है उपासना | ईश्वर का सदा सामीप्य, यह है उपासना की पराकाष्ठा | 

जब भाव और विचार दोनों मिल जाते हैं, तब आपके जीवन की आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हो जाती है | चावल परिपक्व होकर भात बनता है | जब आप सबके लिए मुलायम हो जाएँ, तब वह भक्ति की पराकाष्ठा | 

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