गौ वंश का विनाश- विदेशी षडयंत्र - ग्रेटगेम इंडिया के संस्थापक संपादक शेली कास्ली

“भारत की तेल पर निर्भरता और स्थिर भविष्य के लिए उसका समाधान” विषय पर, भारत के भू-राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर आधारित त्रैमासिक पत्रिका “ग्रेटगैम इंडिया” में श्रृंखला के रूप में प्रकाशित अंग्रेजी आलेख का हिन्दी अनुवाद । यह ऊर्जा संकट पर विशेष अनुसंधान में व्यक्त विचारों पर आधारित है |

शुरूआती दौर में तो विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारत में गाय का वध यहाँ के मूल निवासी बहुसंख्यक समाज को नीचा दिखाने और उनका मनोबल तोड़ने के लिए किया गया था | किन्तु विगत 15 वर्षों में गौवध जिस तेजी से बढ़ा है, उसका कारण समझना होगा | ट्विटर पर अक्सर प्रारंभ हो जाने वाले बीफ समर्थक ट्रेंड के पीछे का मूल मकसद भी समझना होगा | गौवंश के इस व्यवस्थित विनाश की जड़ें कहाँ हैं, कौन है उसके पीछे ?

सबसे पहली बात तो यह है कि अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय संघ में जो गौमांस उत्पादित होता है, उसका अधिकांश मानवीय खाद्य के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता, क्योंकि उसके कारण अत्यधिक खतरनाक पशु-से-मानव में संचारित होने वाला mad cow disease 'पागल गाय रोग' या बीएसई होने की आशंका रहती है | इसका कारण यह पाया गया कि 1 9 75 के बाद से वहां की गायों को, गायों का ही बेकार बचा मांस प्रोटीन के नाम पर खिलाया जाता रहा, जिसे वहां के मांस उद्योग में "रेन्डरिंग" कहा जाता है।

घास खाने वाले पशु को मांसाहारी जानवर में रूपांतरित करने का यह प्रयत्न आत्मघाती सिद्ध हुआ और एसएआरएस, बीएसई जैसे नए असाध्य रोगों के जीवाणुओं का विकास हुआ। नतीजा यह हुआ कि अधिकाँश अरब देशों व जापान आदि ने तो इस दूषित गौमांस पर प्रतिबंध ही लगा दिया । गौमांस भक्षण के आदी इन देशों का ध्यान भारत की ओर गया, जहाँ दुनिया में सर्वाधिक संख्या में गौधन विद्यमान है ।

इस प्रवृत्ति का दूसरा कारण है वही पुरानी उपनिवेशवादी भारत को लूटने की मानसिकता | अब यह कोई ढका छुपा तथ्य नहीं है कि पश्चिमी आर्थिक प्रणाली ढहने के कगार पर है | उसे बचाने के लिए भारत उनका प्रमुख शिकार है | भारत में अंधाधुंध शहरीकरण और कृषिक्षेत्र का अधिग्रहण उनकी इसी कार्ययोजना का प्रथम चरण है | उनका दूसरा चरण है शहरी आबादी की जल आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए जल प्रबंधन के नाम पर भारत की नदियों को निजी पश्चिमी कार्पोरेट दिग्गजों के हवाले किया जाना | नतीजा होगा नदियों का विनाश ।

नदियों पर बांधों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिसके कारण सतह की नमी कम हो रही है, और साथ साथ वायुमंडलीय नमी का संतुलन भी बिगड़ रहा है | परिणाम स्वरुप वर्षा चक्र बाधित हो रहा है, और मूलतः वर्षा पर आधारित भारतीय कृषि लगातार बिगड़ रही है । जब फसल ही नहीं होगी, तो बेचारा किसान क्या करेगा ? या तो अपने पेशे को छोड़ शहरी श्रमिक बन जायेंगे; या फिर आत्महत्या का मारद अपनाएंगे | दोनों ही स्थितियों में आखिर उनके पशु कहाँ जायेंगे ? उनकी नियति में तो वधशाला पहुंचना ही लिखा है ।

जरा ईस्ट इंडिया कंपनी के समय का स्मरण कीजिए | किस तरह अकाल की विभीषिका के चलते पश्चिमी खुदरा दिग्गजों ने भारत में खाद्य आपूर्ति के नाम पर देश की आजीविका को नियंत्रित कर लिया था । कौन दावा कर सकता है कि अब फिर बैसा नहीं होगा ? 2008 से अकेले आंध्र प्रदेश में मांस निर्यात करने के लिए वध शालाओं को पांच लाख पशु प्रतिवर्ष भेजे गए । यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि एक शोध के अनुसार केवल भारतीय ओंगोले या गिर बैल ही ऐसे हैं, जिनसे पैदा हुए पशु बीएसई का सामना कर सकते हैं ।

इसलिए, एक निजी उद्योग इन बैलों के वीर्य को पश्चिमी राजधानियों में तस्करी करने के लिए स्थापित किया गया, ताकि उनसे रोग प्रतिरोधी किस्में पैदा की जा सकें। एक बार यह हो जाने के बाद पश्चिमी कंपनियां दूध क्रांति के फैंसी नाम के साथ भारतीयों को वापस नए नाम से "पागल गाय प्रतिरोधी गाय नस्ल" भारत को ही बेचना शुरू कर देंगी । (जल्लीकट्टू के पारंपरिक अभ्यास पर प्रतिबंध लगाने का विवाद, भारतीय की सबसे मजबूत बैल प्रजातियों को नष्ट करने के उनके इसी एजेंडे का हिस्सा है।)

जो पश्चिमी गायें भारत में लाई जाती है, ना तो उनका दूध गुणकारी होता है और णा ही उनका कृषि कार्य में कोई उपयोग हैं। क्या आप जानते हैं कि इन संकर गायों को भारत में डंप करने से पहले, 2003 में पश्चिमी देशों ने कंटेनरों में $ 130 मिलियन अमरीकी डालर मूल्य के गोमूत्र और गोबर का आयात किया था, ताकि उसका विश्लेषण कर वे अपने मांसाहारी मवेशियों की भोजन की आदतों को बदलकर उन्हें पुनः पूर्ववत बना सकें ।

हम ​​भारतीय अपनी पवित्र गाय के संरक्षण को लेकर आपस में लड़ने में व्यस्त हैं, लेकिन कोई दीर्घकालीन स्पष्ट नीति नहीं बनी | जबकि पश्चिमी यूरोपीय देशों ने जबरदस्त तकनीकी विकास किये हैं | वे न केवल हमारे देश की पवित्र गायों पर शोध कर रहे हैं, बल्कि उनकी मदद से अपने देश के ऊर्जा संकट से निजात पा रहे हैं ।

यूरोपीय संघ, रूसी प्राकृतिक गैस और खाड़ी के देशों पर तेल की निर्भरता को कम करना चाहता है | अतः उसने अपने ही उपलब्ध संसाधनों के आधार पर स्थानीय अर्थव्यवस्था के विकास पर ध्यान केंद्रित किया है । जर्मनी के नेतृत्व में अमेरिका और यूरोप ने अरब देशों के तेल पर ऊर्जा निर्भरता के खतरे को बहुत गंभीरता से लिया है और ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के सभी वैकल्पिक तरीकों का पता लगाने के लिए प्रयत्न किया है । एक ओर तो भारत ने ऊर्जा विकल्प के रूप में गोबर गैस के बारे में सोचना ही बंद कर दिया है, जबकि पश्चिम यह पता लगाने के लिए सचेष्ट है कि गोबर का सबसे अच्छा उपयोग कैसे किया जा सकता है।

अमेरिका और जर्मनी ने तेल संकट को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चिंता का महत्वपूर्ण कारण माना तथा जैव प्रौद्योगिकी में तेजी से प्रगति की | 1971 की जैव गैस का 1990 आते आते मीथेन बायो गैस (एमबीजी) के रूप में कायाकल्प हुआ और 2008 तक वह वाणिज्यिक बायो गैस (सीबीजी) बन गई । और अब यह सीबीजी तेल या प्राकृतिक गैस के वैकल्पिक समाधान के स्तर पर पहुंच गया है ।

1 9 71 में महज खाना पकाने में मदद करने वाली गोबर गैस अब अनेक ऊर्जा स्रोतों के निर्माण में अग्रणी भूमिका निबाह रही है | गोबर गैस ने बिजली, प्राकृतिक गैस और परमाणु ऊर्जा का स्थान ले लिया है | उसने तेल या प्राकृतिक गैस को भी प्रतिस्थापित किया है ।

जर्मनी एक ऐसी प्रक्रिया विकसित करने में सक्षम हो गया है, जिसके द्वारा बायो गैस से 98% मीथेन निकाला जा सकता है, जिससे यह वाणिज्यिक ग्रेड प्राकृतिक गैस के बराबर हो जाए, जो जर्मनी और यूरोप के राष्ट्रीय गैस ग्रिड में प्रत्यक्ष रूप से अभ्यस्त हो। इसे जैव-मीथेन (बीएम) या मीथेन बायो गैस (एमबीजी) या वाणिज्यिक बायो गैस (सीबीजी) कहा जाता है। ग्रेटगैम इंडीडिया में जर्मनी के चार बड़े ऊर्जा प्रदाताओं ने बायोगैस और विश्लेषकों के मूल्यों को मान्यता दी है, मानना ​​है कि बड़े पैमाने पर बायोगैस संयंत्रों का अब उज्ज्वल भविष्य होगा जो राष्ट्रीय ग्रिड में गैस का स्थान लेगा । विशेषज्ञों का कहना है कि अभी तो यह शुरूआत है, आगे चलकर बायोगैस देश की प्रमुख ऊर्जा प्रदाता बनकर रूस से प्राकृतिक गैस की निर्भरता कम करने में अधिक मददगार सिद्ध होगी ।

अब बात भारत की करें तो दुनिया में सबसे बड़ी पशु जनसंख्या भारत में है | आईआईटी दिल्ली ने कुछ साल पहले भारतीय मवेशियों से ऊर्जा या बिजली उत्पादन क्षमता की गणना की थी। हम अकेले अपने पशुधन का उपयोग करके इतनी मीथेन बना सकते हैं, और उससे इतनी बिजली उत्पन्न कर सकते हैं, जो परमाणु ऊर्जा सहित किसी भी अन्य स्रोत पर निर्भर किए बिना अगले हज़ार वर्षों तक पूरे दक्षिण एशिया की ऊर्जा आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए पर्याप्त हो । और आश्चर्य की बात यह है कि इससे बिजली उत्पादन की लागत सौर ऊर्जा और परमाणु ऊर्जा लागत से कम है। सौर ऊर्जा बादल युक्त विपरीत मौसम के दौरान या रात में जबकि सूरज नहीं होता, काम नहीं कर सकती | जबकि सीजीजी बिजली या ऑटो ईंधन या रसोई गैस के निर्माण में 24 घंटे सातों दिन काम आ सकती है, आवश्यकता है उसके उद्योग के रूप में व्यावसायिक उपयोग की ।

पिछले कुछ समय से तेल की कीमतों में असामान्य व निरंतर गिरावट देखी जा रही है | इसका मुख्य कारण है, सऊदी अरब का दिवालिएपन की कगार पर पहुंचना, जिसके चलते वह अपने अधिशेष तेल को 30 डॉलर प्रति बैरल से भी कम कीमत पर बाजार में पहुंचा रहा है। यद्यपि कई विशेषज्ञ इसे रूस के खिलाफ लक्षित आर्थिक युद्ध के एक उपकरण के रूप में भी देख रहे हैं, जो तेल बाजार में एक प्रमुख खिलाड़ी है, असली मकसद जो भी हो, उसका नतीजा तो अत्यंत भयावह सिद्ध होगा ।

अगले कुछ वर्षों के लिए अपने मार्जिन को कम कर प्रमुख तेल खिलाडी वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों या प्राकृतिक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के अनुसंधान को रोकना चाहते हैं । ये शोध कार्य भारत को ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना सकते हैं और मध्य पूर्व से तेल आयात पर खर्च होने वाले लाखों डॉलर बच सकते हैं।

दिसंबर 2011 में 300 मिलियन से अधिक भारतीय नागरिकों को बिजली अनुपलब्ध थी । भारत की ग्रामीण आबादी के एक तिहाई से अधिक को बिजली की कमी थी, तथा शहरी आबादी के 6% को बिजली अनुपलब्ध थी । भारत में बिजली की आपूर्ति का कोई ठिकाना ही नहीं है । 2010 में ब्लैकआउट और बिजली की अनियमित सप्लाई के कारण देश भर में सिंचाई बाधित हुई और उत्पादन प्रभावित हुआ | अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि 2050 से पहले भारत 600 जीडब्ल्यू से अतिरिक्त नई बिजली उत्पादन क्षमता में 1200 गीगावॉट की वृद्धि करेगा। यह नई क्षमता, 2005 में यूरोपियन यूनियन (ईयू -27) की कुल बिजली उत्पादन क्षमता 740 जीडब्ल्यू के समतुल्य है। भारत द्वारा अपनाई इन प्रौद्योगिकियों और ईंधन स्रोतों से विद्युत उत्पादन क्षमता बढ़ जायेगी, जिसका वैश्विक संसाधन उपयोग और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है।

देखना यह है कि सरकार सार्वजनिक कल्याण के लिए, ईको फ्रेंडली, ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता परक नीति का अनुसरण करेगी, या विशेष व्यावसायिक हित समूहों के पीछे खडी होगी ? वे कौन सी वैश्विक एजेंसियां हैं, जो ​​इन प्रौद्योगिकियों को भारत में प्रचलित नहीं होने देना चाहतीं ? हम केवल अपनी पवित्र गायों को बचाने के लिए ही नहीं, बल्कि देश को ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाने और साथ साथ इस क्षेत्र में शांति और सद्भाव का माहौल बनाने में मदद कर सकते हैं, जरूरत है तो बस ठानने की | कमर कस कर तत्पर होने की |

ग्रेटगेम इंडिया के संस्थापक संपादक शेली कास्ली द्वारा |

Shelley.kasli@greatgameindia.com

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