योगी आदित्यनाथ ने क्या गलत कहा ? सर्वसमावेशी है हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा - प्रवीण गुगनानी



हाल ही में जब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को सही बताया तो पूरे देश में जैसे एक वैचारिक द्वन्द छिड़ गया. वस्तुतः इस कथन के समय और योगी का बड़ा ही अद्भुत तालमेल है . भारत भूमि पर विधर्मियों के आक्रमणों, कब्जे व अकूत संख्या में किये गए धर्मांतरण के बाद से ही हिंदू राष्ट्र की पुनर्स्थापना का विचार इस देश के नागरिकों में जन्म ले चुका था, तथा देश, काल व परिस्थिति के अनुसार इस कल्पना का प्रकटीकरण कम या अधिक होता रहा. अब जबकि उप्र के नवनियुक्त मुख्यमंत्री ने हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को सही ठहराया है, तो निस्संदेह यह सामयिक व समीचीन ही है.

यदि हम प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक अर्नेस्ट रेना के शब्दों में राष्ट्र शब्द के अर्थ को समझें तो हमें यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत के सन्दर्भ में “हिंदू राष्ट्र” स्थिति कितनी सटीक, उचित, अर्थपूर्ण व सामयिक है –“यह भूमि (एक राष्ट्र)मनुष्य के परिश्रम और पराक्रम का आधार होती है, किन्तु मनुष्य ही उसे एक आत्मतत्व, चैतन्यता, व सजीव ईकाई का स्थान प्रदान करता है. जिस पवित्र भूमि को हम 'राष्ट्र' कहकर पुकारते हैं, उसके लिए मनुष्य ही सब कुछ होता है. किसी भी प्रकार की भौतिक स्थिति, परिस्थिति 'राष्ट्र' की रचना में पर्याप्त नहीं होती. क्योंकि 'राष्ट्र' एक आध्यात्मिक तत्व होता है- किसी भूभाग में निवासरत लोकसमूह राष्ट्र नहीं बनता, राष्ट्र बनता है वहां के निवासियों की भावनाओं से”. 

वीर सावरकर की “हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए ही श्रीगुरुजी ने कहा कि 

1. “जिस देश को अनादि काल से हमने अपनी पवित्र मातृभूमि माना है, उसके लिए ज्वलन्त भक्तिभावना का आविर्भाव होना चाहिए. 

2. सहचर्य एवं भातृत्व भावना जिसका जन्म इस अनुभूति के साथ होता है कि हम महान भारत माता के पुत्र हैं. 

3. राष्ट्र-जीवन की समान धारा की उत्कट चेतना जो समान संस्कृति एवं समान पैतृक दाय,समान इतिहास, समान परम्पराओं, समान आदर्शों एवं आकांक्षाओं में से उत्पन्न होती हैं.

कुछ लोग हिंदू शब्द की आयु के संदर्भ मे चर्चा करते हैं.विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ 'ऋग्वेद' से हमें “सिंधु” नाम मिला है जो कि लाखों वर्ष प्राचीन है. अब यह एतिहासिक अवधारणा अकाट्य तथ्य के रूप में स्वीकृत हो चुकी है कि यही सिंधु शब्द आगे चलकर विदेशी आक्रान्ताओं व शासकों की भाषा के कारण हिंदू रूप में प्रचलित हुआ. इस प्राचीन, वैदिक कालीन व सांस्कृतिक शब्द हिंदू (सिंधु) के आधार पर ही यह भी सिद्ध होता है कि “हिंदू राष्ट्र” की हमारी कल्पना भी उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन यह शब्द “हिंदू” (सिंधु) है. “हिन्दू राष्ट्र” की हमारी यह प्राचीन कल्पना केवल राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक व सामाजिक प्रेरणा मात्र नहीं है; वह इन सबके साथ तत्वतः सांस्कृतिक है. हमारे प्राचीन, उदात्त व सहिष्णु सांस्कृतिक जीवनमूल्यों से “हिंदू राष्ट्र” शब्द में प्राण प्रतिष्ठा होती है. 

यहां हमें यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि “हिंदुत्व” शब्द “हिन्दुवाद” शब्द से आमूलचूल भिन्न है. वस्तुतः “हिंदुत्व” की जीवन शैली में “वाद” जैसे किसी शब्द के कोई स्थान है ही नहीं. “हिंदुत्व” तो निर्बाध, निर्झर, निस्संकोच बहनें वाली एक ऐसी सरिता है, जिसमें समूचे विश्व को आत्मसात कर लेनें की, समूचे विश्व के परम तत्व में स्वयं को विलीन कर देनें की क्षमता है. “हिंदूवाद” तो वस्तुतः “हिंदुत्व” की कल्पना से बहुत परे का एक छौना सा नवरचित शब्द है जिससे “हिंदुत्व” कतई साम्य नहीं रखता है. स्मरण रहे कि हम कभी भी वादी नहीं रहे अपितु हम सदा से प्रकल्पक, प्रतिपादी, प्रवर्तक व प्रणेता रहें हैं!! आज यदि “हिंदू राष्ट्र” की कल्पना को अपने जीवंत व नेसर्गिक रूप में स्थापित नहीं किया गया तो ब्रह्माण्ड की यह अमूल्य धरोहर संकट में आ जायेगी. 

कहना न होगा कि भारत भूमि को दारूल हरम (काफिरों की जमीन) मानने वाले कट्टर विधर्मियों द्वारा हजार वर्षों से चलाये गए धर्मांतरण के कारण ही आज “हिंदुराष्ट्र” की स्थापना एक आवश्यक कर्म बन गई है. हमनें सदा से विदेशियों को प्रश्रय व उनकें विचारों को सम्मान दिया है ऐसा करके हम हमारें नेसर्गिक “वसुधेव कुटुम्बकम” के मूल विचार को आगे ही बढ़ा रहे थे किंतु भारत भूमि पर बलात आने वाले मुस्लिम व ईसाई शासकों ने हमारी इस दयालुता, सहिष्णुता व भोलेपन का गलत लाभ उठाया है. इनके अतिरिक्त हमें कम्युनिस्टों से भी बड़ी हानि झेलनी पड़ी है जिन्होनें अंग्रेजों के बाद हमारा समूचा इतिहास गड्डमगड्ड कर डाला व हमारें “धर्मप्राण राष्ट्र” में “धर्म को अफीम” कहना प्रारंभ किया.

भारत मूलतः “हिंदुराष्ट्र” है ही, इसी कारण यहाँ प्रत्येक मत, पंथ, सम्प्रदाय, धर्म व विचारधाराओं के लिए सम्भाव व प्रेम रखने वाले लोग है. “हिंदुराष्ट्र” वस्तुतः एक ऐसा विचार है जिसमें इस देश में रहनें वाले सभी निवासी एकात्म भाव से इस भारत भूमि के प्रति पितृभूमि, मातृभूमि, कर्मभूमि व मोक्षभूमि के भाव से ओतप्रोत हों व इस अनुरूप ही आचरण करें, इस भूमि के महापुरुषों के प्रति आदरभाव रखें व इस भूमि की परम्पराओं का आदर करें व इस भारत भूमि को पूज्य मानें. इसमें क्या गलत है?! 

श्रीगुरुजी ने लिखा भी है कि“हमें यह स्पष्ट करना होगा कि यहाँ निवास करने वाले समूचे निवासियों का एक राष्ट्रधर्म अर्थात् राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है,एक समाज-धर्म अर्थात् समाज के प्रति कर्तव्यभाव है, एक कुलधर्म अर्थात् अपने पूर्वजों के प्रति कर्तव्यभाव है, तथा केवल व्यक्तिगत धर्म, व्यक्तिगत निष्ठा का पंथ, अपनी आध्यात्मिक प्रेरणा के अनुरूप चुनने में वह स्वतंत्र हैं।” 

यह कितना उदार, विस्तृत व सर्व समावेशी विचार है?! “हिंदुराष्ट्र” के विचार को और अधिक समझाते हुए श्री गुरूजी कहते हैं कि – “ईसाई,मुसलमान, हिन्दू सभी को साथ रहना चाहिए, यह केवल हिन्दू ही कहता है. किसी भी उपासना पध्दति से हमारा द्वेष नहीं है.संक्षिप्त में कहें तो यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रजीवन व राष्ट्रीय विचार प्रक्रिया में इस भूमि की मूल संस्कृति का विचार सदा उच्च भाव से विचारित होना चाहिए व आयातित विचारों का समय संगत, तर्क संगत व लोक संगत उपयोग भी होते रहना चाहिए. प्रकारांतर से यह भी कहा जा सकता है कि वर्तमान में जबकि भारत में अधिकतम मुस्लिम व ईसाई ऐसे लोग रहतें हैं जिनके पुरखे सनातनी ही थे; वस्तुतः ये ऐसे लोग हैं जिनके पुरखो ने अपनी संपत्ति व बहन बेटियों के छीनें जानें के भय से धर्मांतरण की शरण ले ली थी. इन सभी के लिए भारत के प्रत्येक निवासी के ह्रदय में न केवल प्रेम होना चाहिए, अपितु ये लोग शनैः शनैः इस भूमि की मुख्यधारा में सम्मिलित होते चले जाएँ ऐसा पवित्र भाव भी होना चाहिए. “हिंदुत्व” शब्द सम्भाव के व्यवहार की घोषणा करता हुआ एक महाशब्द है जो कि समूचे विश्व के धर्मावलम्बियों मात्र के प्रति नहीं अपितु जीव जंतुओं, पर्वतों, नदियों, वनस्पति व थल, नभ, जल के अथाह विस्तार के प्रति पूज्य व पाल्य भाव को सतत विस्तार देता है.

निस्संदेह कहा जा सकता है कि आज के समय में चल रहा “हिंदुराष्ट्र” का विचार आरएसएस के सतत चले नौ दशकों के विचार यज्ञ का परिणाम है. यक्ष तथ्य है कि संघ ने “हिंदुराष्ट्र” की अवधारणा को मूलतः विनायक दामोदर सावरकर से ग्रहण किया है. सावरकर ने 1937 में कर्णावती (अहमदाबाद) में हिंदू महासभा में संबोधित करते हुए कहा था कि – “वे सभी लोग हिंदू हैं जो सिंधु नदी से हिंद महासागर तक फैली भारतभूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानते हैं”. यहां ध्यान देना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति जो भारतभूमि के किसी धर्म को धारण करता है उसे हिंदू मान लेना हल्की बात होगी. पितृभूमि की मान्यता के बिना पुण्यभूमि की विरासत का दावा अधूरा होगा.” 

यहां यह अतीव उल्लेखनीय तथ्य है कि आरएसएस ने वीर सावरकर के मूल विचार के सत्व को तो ग्रहण किया किंतु उनकी परिभाषा की शाब्दिक सीमाओं से वह समय के साथ साथ बहुत आगे निकल आया है व उसनें “हिंदुत्व” शब्द को इतना विराट, विस्तृत व विकसित कर दिया है कि प्रत्येक धर्मावलम्बी इसमें अपने अस्तित्व की सुरक्षा पा सकता है व इस सर्वसमावेशी शब्द के प्रति केवल श्रद्धाभाव के ही दर्शन कर सकता है. अतः आइये “हिंदुराष्ट्र” के विचार का स्वागत करें व इसके क्रियान्वयन के मार्ग पर चलें.

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