प्रशांत भूषण जरा योगिराज कृष्ण को जानो

भारत राष्ट्र के जनमानस को सदाचार की शिक्षा देने के लिए जरूरी है कि सत्पुरुषों के चरित्र-चित्रण को अभिव्यक्त किया जाए ! इनमें दो ही व्यक्ति आदशॆ रूप है-एक श्री राम और दूसरे योगेश्वर कृष्ण ! कृष्ण का जीवन एक आप्त पुरुष के समान है ! श्री कृष्ण एक महान स्वप्न दृष्टा थे, जिसे उन्होंने अपने जीवनकाल में भी चरिताथॆ करके दिखा दिया ! जहां श्री राम ने मिथिला से लेकर लंका तक सारे भारत को एक सूत्र में आबद्ध किया तो श्री कृष्ण ने द्वारिका से लेकर सुदूर पूर्व मणिपुर तक सारे भारत को एक सूत्र में आबद्ध और एक दृढ़ केंद्र में के आधीन करके समस्त राष्ट्र को इतना बलवान और अजेय बना दिया कि महाभारत के पश्चात लगभग चार हजार साल तक अनेक विदेशी शक्तियों के बार-बार आघात के बावजूद आर्यावर्त को खंडित नहीं कर सकीं ! न जाने कितने कवियों ने इन महापुरुषों के अवांतर रूपों की चर्चा के लिए तो सैकड़ों ग्रंथ लिख डाले, लेकिन उनकी राष्ट्र निर्माता के रूप में, जो कि वर्तमान की आवश्यकता है की चर्चा नगण्य रूप में की है ! हाँ श्री चमुपति ने अपनी पुस्तक एम ए शोध ग्रंथ योगेश्वर कृष्ण के लिए महाभारत के श्लोकों और अन्यान्य ग्रंथों के तथ्यों को वैज्ञानिक दृष्टि से नापतोल कर उनका विश्लेषण किया है। पुस्तक की भूमिका में ही श्री कृष्ण को 

सा विभूतिरनुभावसम्पदां भूयसी तव यदायतायति
एतदूढगुरुभार भारतं वर्षमद्यं मम वर्तते वशे

माघ कवि ने शिशुपालवध में युधिष्ठिर से श्री कृष्ण को इन शब्दों से संबोधित करवाया है-भारी भार संभाले ! कृष्ण काल में मगध सम्राट जरासंध भारत के एक बड़े भू-भाग का सम्राट था और और उसके साम्राज्य का आधार था पाशविक बल ! वह भारत के शासन की विभिन्नता को मिटाना चाहता था ! घर-घर का अपना राज्य हो और इस राज्य की अपनी शासन प्रणाली हो,यह उसे असह्य था ! इस प्रयास में उसने कई कुलों और राजवंशों को नष्ट कर दिया ! शिक्षा समाप्ति के बाद श्री कृष्ण ने अपने जीवन का लक्ष्य समूचे भारत को जरासंध के पंजे छुड़ाकर उसे आर्य साम्राज्य या दूसरे शब्दों में आत्मनिर्णय के मौलिक सिद्धांत पर आश्रित भारतवर्ष के छोटे-बड़े सभी प्रकार के राज्यों के संगठन, जिसे आज की राजनैतिक शब्दावली में कामनवैल्थ कह सकते हैं, की छत्र छाया में लाने का निश्चय किया ! यहीं वह गुरुभार था, जिसे उठाने का बीड़ा श्री कृष्ण ने उठाया था !

पुस्तक में लेखक ने विभिन्न संवादों के माध्यम से बताया है कि श्री कृष्ण राजाओं की दिव्य सत्ता को नहीं मानते थे ! वे राजा को जनता का प्रतिनिधि मानते थे ! श्री कृष्ण के चरित्र में निजी और सार्वजनिक जीवन के आदर्शों का एक अद्भुत समन्वय पुस्तक में बताया गया है !

श्री चमुपति ने महाभारत कालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था को दिलचस्प ढंग से पुस्तक में बताया है ! श्री कृष्ण की कथित बाल लीलाओं को भी तथ्यात्मक ढंग से पेश किया है और बताया है कि अन्यान्य ग्रंथ लेखकों ने उन लीलाओं के अपने ढंग से मन-माफिक व्याख्या की है ! पुस्तक में महाभारत कालीन युद्ध शैली, युद्ध में काम आने वाले हथियार, युद्ध के नियम और छल-बल आदि का दिलचस्प ढंग से वर्णन किया है ! पुस्तक में लेखक ने उन कवियों को भी फटकार लगाई है, जिन्होंने श्री कृष्ण को रसिक रूप में प्रस्तुत कर अपने ह्रदय की विद्रुपताओं को कृष्ण पर आरोपित किया है ! श्री कृष्ण का चरित्र वर्तमान भारत और विश्व की जरूरत है ! आज हमें कुरुक्षेत्र के कृष्ण की आवश्यकता है, न कि बृज की कथित रसिक लीलाओं का बखान करने की ! पुस्तक में कृष्णकालीन भारत का भव्य नक्शा भी दिया गया है, जो हमें आज से पांच हजार वर्ष पहले के भव्य भारत की तस्वीर पेश करता है !

कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी कहते हैं ! पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता ! क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं ! अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये : इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं ! ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है ! (शत० 4.4.5.6) 

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए ! ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी, क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा। प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी। (यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६) 

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे ! 

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है ! ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे ! ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे !

अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो : 

कभी रास रचा सकता है ? 

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ? 

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ? 

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ? 

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं ! इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये !

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योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय !

स्त्रोत - http://aryamantavya.in

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