विश्व-विज्ञान को भारत की देन !

प्राचीन भारत में मानव संस्कृति का विशेष विकास देखा जाता है ! लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार के चिंतन किये थे ! भारत में जिस प्रकार का चिंतन किया गया वैसा चिंतन प्रायः विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं हुआ ! अन्यत्र जिस समय संस्कृत का बीज-वपन भी नहीं हुआ था उस समय भारत की संस्कृति अत्यंत विकसित थी ! अपनी संस्कृति के अनुरूप आचरण करते हुए यहाँ के लोग अपने जीवन को उदात्त और सार्थक बनाते थे किन्तु दुर्भाग्य है कि उस प्रकार के उत्कृष्ट चिंतन का समग्र भाग इस समय उपलब्ध नहीं है ! धर्म ओर आध्यात्म के क्षेत्र में किये गए चिंतन का स्वल्प अंश ही प्राप्त है और जो कुछ थोड़े अंश प्राप्त भी है, पर्याप्त प्रचार न होने के कारण वे अंश भी लोगों को अज्ञात ही है !

ईसा की पहली और दूसरी शताब्दी में भारत में भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र, गणित, वनस्पतिशास्त्र इत्यादि विज्ञान की बहुत सी शाखाएं विकसित थी ! उन शाखाओं की केवल प्रगति ही नहीं हुई अपितु वे चरमोत्कर्ष को प्राप्त थीं फिर भी दुर्भाग्य से यह सुनना पड़ता है कि विज्ञान का प्रारंभ और विकास पश्चिम के देशों में हुआ – यह कैसी विडम्बना है !

लोग भी ऐसे मिथ्या वचनों पर सहज ही विश्वास कर लेते है ! हमारे शिक्षा संस्थान भी इसी मिथ्या अंश को पढ़ाने में लगे हुए है ! 

वैज्ञानिक क्षेत्र में जो भी भारतीय चिंतन है उसे आधुनिक लोगों को अधिकाधिक जानना चाहिए, तथा उस विषय में आदर भाव बढेगा ! यह लेख उस भारतीय चिंतन का स्थूल परिचायक है !

गणित 

यदि भारतीय गणित के ज्ञान का आरम्भ जानना है, तो वैदिक काल तक दृष्टी दौडानी होगी ! वेद और तत्कालीन अन्य ग्रंथों में गणित के अंशों का विशेष रूप से उल्लेख है ! सम्पूर्ण विश्व के विद्वानों की यह मान्यता है कि बहुत से गणीतीय अंशों का आरम्भ भारत में ही हुआ ! लोगों ने भारत से ही गणित के बहुत से विषयों का ज्ञान प्राप्त किया ! अंकगणित, बीजगणित, भूमिति, त्रिकोणमिति के बहुत से मौलिक अनुसंधान भारत में किये गए !
इस समय दशमलव पद्धति लोक व्यवहार में है ! इस पद्धति में एक से नौं तक के अंक तथा शून्य का उपयोग होता है ! स्थान परिवर्तन से अंकों के मान में भी परिवर्तन हो जाता है ! यह दशमलव पद्धति दो हजार वर्षों से पूर्व भारत में थी ! 

अंकों का क्रमिक विकास कैसे हुआ उसके लिए निम्न चित्र देखें –

ब्रह्मिलिपियुक्त शिलालेख में लिखे अंक (ईसापूर्व ३००) 


ग्वालियर शिलालेख में लिखे अंक (ई.स. ८७०)


देवनागरी लिपि में लिखे अंक (ई.स. ११००)



आधुनिक संख्या 


नवी शताब्दी तक यह अंकपद्धति अरब और यूरोप के लोगों को ज्ञात नहीं थी ! अरब के गणित विज्ञान अल्खवारिज्मी (७८०-८५०) ने सर्व प्रथम अपनी पुस्तक में इन हिन्दू अंकों, स्थान के अनुसार अंकों के मां का निर्णय और इस पर आधारित अन्य बहुत सी गणितीय प्रक्रिया का उपयोग किया ! उसके बाद यह सभी अंश सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित हुए ! इसी कारण पश्चिमी यूरोप में गणितीय विचार का प्रचार हुआ ! यूरोप के इतिहास में अतिप्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ है – CONDEX VIGILANUS 

यह अल्वेल्ड़ो आश्रम से सम्बंधित है ! इस ग्रन्थ में एक से नौं तक के अंकों का उल्लेख किया गया है ! इन अंकों के विषय में उपर्युक्त ग्रन्थ में यह लिखा गया है कि – “गणित चिन्हों के उपयोग के समय हमें यह अवश्य जानना चाहिए कि प्राचीन हिन्दुओं की बुद्धि अत्याधिक तीक्ष्ण एवं व्यापक थी ! गणन कला, भूमिति और इतर स्वतंत्र शास्त्रों के विषय में भी अन्य देश, हिन्दुओं के अनुयायी है क्यूंकि इन विषयों में हिन्दू ही अग्रगण्य है ! नौ अंकों का उपयोग, अंकों के स्थान के आधार पर उनके मूल्य का निश्चय इत्यादि अंश इस सन्दर्भ में प्रमाणभूत है !

शून्य 

अंकों के स्थान पर आधारित मान के निश्चय की पद्धति ही शून्य की खोज का मूल कारण है ! जीरो यह एक प्रकार के उस चिन्ह का मान है जो अस्तित्वशून्यता का घोतक है ! संस्कृत भाषा में “शून्य” यह शब्द अस्तित्वशून्यता को ही सूचित करता है ! जीरो शब्द का मूल यही “शून्य” शब्द है ! संस्कृत भाषा का यह “शून्य” अरब भाषा में प्रविष्ट हुआ, वहीँ से लैटिन भाषा में पहुंचा और वहां से जीरो इस नाम से प्रसिद्द हुआ ! जैसे –

संस्कृत – शून्य ( SHUNYA), अरबिक – सिफर (SIFIR), लैटिन – जिप्रे/सिफ्रे (ZIFFRE/CIFFRE) जीरो (ZERO/CIPHER)


(क्रमशः)

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