बस्तर में नक्सलवाद के जनक दिग्विजय सिंह और रक्षाकवच एनजीओ |

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वनवासियों के मसीहा ब्रह्मदेव शर्मा  सुकुमा में नक्सलियों द्वारा किये गए नरसंहार के बाद नक्सलवाद पर विचार विमर्श ने एक बार फिर गति पकड़ी...

वनवासियों के मसीहा ब्रह्मदेव शर्मा 



सुकुमा में नक्सलियों द्वारा किये गए नरसंहार के बाद नक्सलवाद पर विचार विमर्श ने एक बार फिर गति पकड़ी | अपेक्षा के अनुसार बामपंथी लेखकों ने हिंसावृत्ति की मिर्ची चासनी में डुबाकर परोसी, तो प्रत्यक्ष में राष्ट्रवादी और परोक्ष में सरकार समर्थकों ने अपने ढंग से निन्दास्त्र चलाये | खैर जन सामान्य आज भी अनभिज्ञ है, कि आखिर बस्तर से नक्सलवाद का क्या सम्बन्ध ?
एक राष्ट्रवादी लेखिका बहिन मीरा सिंह जी बड़े दूर की कौड़ी लाईं | उनके लेखन का लब्बो लुआब था कि यह नक्सलवाद और कुछ नहीं, विदेशी षडयंत्र है –
मीरा जी ने बात शुरू की आजादी के तत्काल बाद से | उन्होंने विदेशी षडयंत्रों का विषद वर्णन करते हुए लिखा कि 1947 में भारत सरकार द्वारा गठित परमाणु ऊर्जा आयोग के प्रथम अध्यक्ष सर जहांगीर भाभा ने मुट्ठी भर वैज्ञानिकों की सहायता से मार्च 1944 में नाभिकीय उर्जा पर अनुसन्धान आरम्भ किया। न्यूक्लियर ईंधन के लिए प्लूटोनियम के भण्डार भारत में उन स्थानों पर हैं, जहाँ आज नक्सलियों का लाल गलियारा है ।
भाभा जी ने संसद में "भारत अमेरिका न्यूक्लियर डील" का विरोध किया, जिस की कीमत भाभा जी को चुकानी पड़ी। मोंट ब्लेंक विमान हादसे में वे गुजर गए । इसे क्या संयोग माना जाए कि इसके कुछ दिन पहले ही लाल बहादुर जी की भी ताशकंद में संदिग्ध मौत हो गई थी ।
भारत के दूसरे वैज्ञानिक कलाम साहब बोल गए कि भारत 2025 तक विश्व् महा शक्ति बन सकता है। उनके कथन का आधार था थोरियम | रेडियो एक्टिव इंधन थोरियम भारत में बंगाल से लेकर तमिलनाडु और केरल तक है। इतना है की अगले 240 साल तक बिजली बनायीं जा सकती है 3 लाख मेगा वाट हर घंटे पुरे भारत के लिए ।
और अब JNU चलते हैं जहाँ नारा लग रहा है लाल सलाम। लाल गलियारा। JNU में पढने वाले बोलते हैं "केरल मांगे आज़ादी"। "कश्मीर मांगे आज़ादी" "मणिपुर मांगे आज़ादी" "बस्तर मांगे आज़ादी" मतलब पूरा लाल गलियारा आज़ाद कर दो। क्योंकि ये ही वे स्थान हैं, जहाँ भरपूर खनिज है | आखिर भारत को सोने की चिड़िया ऐसे ही नहीं बोला गया।

लाल गलियारे वालो को आदिवासी ही रहने दो। जो बगावत करे तो उन को साफ़ कर दो। साफ़ करने के लिए बन्दुक बम दो। 2004 से 2014 तक लूटा गया भारत को सब से ज्यादा आंध्र में और तमिलनाडु में। नक्सली बिना सरकार की मदद से नहीं लूट सकते तो राज्य सरकार को हिस्सा दिया जाने लगा। एक एक नेता ने 50 करोड़ से 70 हज़ार करोड़ बनाये 5 सालो में। ये 2g कोयला cwg तो छोटे घोटाले है। भारत को सब से ज्यादा नुकसान इन नक्सलियों ने किया है।
ये सब इन नेताओ की शह पर हो रहा है। बड़े बड़े बिज़नस घराने हैं । ये ही इन को हथियार देते हैं और खनिज की लूट करते हैं।
कोई विचार धारा नहीं इन कम्युनिस्टो की। जल जंगल जमीन वामपंथ सब ढोंग है असल में बिजनेस है धंधा है।

मीरा जी के इन विचारों में समस्या तो बताई गई है, किन्तु समाधान नहीं | बस्तर क्षेत्र में 60 के दशक में कलेक्टर रहे ब्रह्मदेव शर्मा ने समाधान ढूँढने का प्रयत्न किया था | एक बार उनकी जानकारी में आया कि बैलाडीला में लौह अयस्क की खदानों में काम करने गए गैर जनजातीय पुरुषों ने शादी का झांसा देकर कई वनवासी युवतियों का शोषण किया और फिर उन्हें छोड़ दिया | ब्रह्मदेव जी ने व्यापक सर्वे करवाया और फिर 300 से अधिक युवतियों का विवाह उन लोगों से ही करवाया | ख़ास बात यह कि उनमें कुछ वरिष्ठ शासकीय अधिकारी भी थे |
ब्रह्मदेव उस घटना के बाद वनवासियों में बहुत लोकप्रिय हो गए | यहाँ तक कि 2012 में जब नक्सलियों ने तत्कालीन कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन को अगवा कर लिया था, तब मध्यस्थ के रूप में ब्रह्मदेव जी को ही भेजा गया | वे बेख़ौफ़ गए और नक्सलियों को समझाने में सफल हुए | कलेक्टर आजाद हुए | स्मरणीय है कि ब्रह्मदेव जी ने 1980 में ही स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली थी | उसका कारण भी यह माना गया था कि दिग्विजय सिंह जी की वनवासी नीतियों से उनका मतभेद था |
इस विषय को और अधिक स्पष्ट किया है श्री बजरंग मुनि ने | 20 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश सरकार ने इन्हें नक्सलवादी होने के आरोप में गिरफ्तार भी किया था | यही दिग्विजय सिंह जी की नीति थी | सचाई तो यह है कि बस्तर में नक्सलवाद के उत्थान में दिग्विजय सिंह जी की सहानुभूति का बहुत बडा योगदान रहा है। दिग्विजय सिंह जी नक्सलवाद में अपना राजनैतिक भविष्य तलाश रहे थे |
मुनि जी का आगे लिखते हैं –
बस्तर में जब नक्सलवादियों ने अपनी सरकार बना ली तो भारत सरकार और छत्तीसगढ़ सरकार ने वहाँ से स्वयं को लगभग बाहर कर लिया. यहाँ तक कि नक्सलवादियो को छोडकर अन्य आदिवासियों को हमारी सरकारों ने उस क्षेत्र से बाहर कैम्प लगाकर वहां उन्हें शरण दे दी. इस तरह उस क्षेत्र में नक्सलवादियों की अप्रत्यक्ष सरकार बन गई. वहाँ भारत का झण्डा भी कभी नहीं फहराया जाता था. यहाँ तक कि सरकार के कार्यालय भी लगभग सिमटते जा रहे थे. वहा के व्यापारियों से नक्सलवादी टैक्स वसूलते थे और अपनी सरकार चलाते थे.
उस समय के गृहमंत्री चिदम्बरम ने जब नक्सलवाद को समाप्त करने का बीडा उठाया था तो दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी को सहमत करके उन्हें ऐसा करने से रोका था. इस तरह नक्सलवाद, विरोध और समर्थन की राजनीति के बीच बस्तर में निरंतर फलता फूलता रहा. मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि भारत में नक्सलवाद के विरुद्ध शिवराम कल्लूरी ही एकमात्र ऐसे अफसर माने जाते है जिन्हें नक्सलवाद समाप्त करने का पर्याप्त अनुभव है. कल्लूरी लक्ष्य पर ध्यान देते है, मार्ग पर नहीं. उनका व्यक्तिगत गुप्तचर विभाग बहुत मजबूत रहता है. उनके प्रयत्नों में हिंसा बहुत कम होती है क्योंकि वे आमतौर पर प्रत्यक्ष मुठभेडों का सहारा नहीं लेते.उनकी खास बात ये है कि वे सबसे पहले नक्सलियों के सफेदपोश मददगारों को किनारे करते है. उसके बाद वे नक्सलियों पर हाथ डालते है. स्पष्ट है कि उनके रहते हुए नक्सलवाद का समापन निश्चित दिख रहा था. लेकिन नक्सलवादियों ने भी अपनी सारी ताकत अपनी सुरक्षा में न लगाकर कल्लूरी को हटाने में लगा दी. उनके सारे सफेदपोश एनजीओ, मीडिया कर्मी तथा मानवाधिकार प्रेमी पूरी ताकत से कल्लूरी के खिलाफ सक्रिय हो गये. कांग्रेस पार्टी ने भी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. न्यायपालिका भी अपने स्वभाव के अनुरुप इसमें कूद पडी।
मैं स्पष्ट कर दूँ कि भारत की न्यायपालिका स्वयं को अपराधों और सरकार के बीच तटस्थ रुप में स्थापित करने का पूरा प्रयास करती है. इसका अर्थ होता है कि न्यायपालिका गंभीर अपराधों में अपराधियों के लिए ढाल बन जाती है. जब बस्तर के आदिवासियों के एक समूह ने सलवा जुडूम नाम से एक संगठन बनाकर सरकार को नक्सलियों के खिलाफ सहायता देनी शूरु कर दी तब न्यायपालिका बीच में न्याय करने के लिए कूद पडी. अन्यथा जब तक नक्सलवादी अत्याचार करते रहे तब तक न्यायपालिका तटस्थ भाव से बनी रही. परिणाम हुआ कि सलवाजुडूम के प्रमुख महेन्द्र कर्मा को नक्सलवादियों ने विद्याचरण शुक्ल के साथ मार दिया. वैसे तो इस हत्याकांड में भी कांग्रेस पार्टी के ही एक गुट का हाथ बताया जाता है. इस तरह चारों ओर से दबाव पडने के बाद कल्लूरी जी को हटा दिया गया और समाप्त होते नक्सलवाद को फिर से जीवनदान मिल गया.
यह बात ध्यान देने योग्य है कि वर्तमान में नक्सलियों ने जो हत्याकांड किया है वह नक्सल नियंत्रित क्षेत्र में किया है सरकार नियंत्रित क्षेत्र में आकर नहीं. छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलनियंत्रित क्षेत्र में अपना विस्तार कर रही थी और उनके क्षेत्र के बीच से सडक बना रही थी जो नक्सलियों को कमजोर करती. नक्सलियों ने भी उस सडक को अपने बीच से न निकलने देने को जीवन मरण का प्रश्न बना लिया. स्वाभाविक है कि वहां वे मजबूत स्थिति में थे.
अभी न्यायपालिका भी उस जे एन यू संस्कृति से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई है, किन्तु मुक्त हो रही है. न्यायपालिका को न्याय और व्यवस्था के बीच संतुलन बनाना चाहिये. धीरे धीरे अब उस दिशा में आगे बढ रही है. भारत के नक्सलवाद समर्थक सफेदपोश एन जी ओ और साहित्यकार भी धीरे धीरे कमजोर हो रहे है. स्वामी अग्निवेश और दिग्विजय सिंह भी हार मानने ही वाले है. ऐसी स्थिति में आशा की जानी चाहिए कि नक्सलवादियों के सभी पंख धीरे धीरे कतर जायेंगे और उनका पतन निश्चित है.

इस संबंध में मेरा कुछ सुझाव भी है. मेरा अनुभव है कि नक्सल नियंत्रित क्षेत्र में किया गया विकास नक्सलवादियों के लिये सहायक होता है. नक्सली उसी से अपना धन जुटाते हैं. सरकार विकास के लिए जो धन भेजती है उसमें से नक्सली भी इक्ट्ठा कर लेते है. सरकार को एक रणनीति बनानी चाहिये. नक्सलनियंत्रित नक्सलप्रभावित और नक्सलमुक्त तीन क्षेत्र अलग अलग करने चाहिये. नक्सलनियंत्रित क्षेत्र में विकास कार्य रोक देना चाहिये तब तक जब तक वह मुक्त न हो जाए. जो क्षेत्र नक्सल मुक्त हुआ है उस क्षेत्र में बहुत तेजी से विकास करना चाहिये जिससे नक्सल नियंत्रित क्षेत्र के लोगों को प्रोत्साहन मिले कि वे भी नक्सलमुक्त बने.
नक्सलवादियों के हितैषी निरंतर विकास को समाधान बताकर सरकारों को भटकाने का काम करते है. नक्सलवाद विकास की कमी का परिणाम नहीं है. आदिवासी कभी टकराव नहीं चाहता भले ही वह भूखा क्यों न रह जाये. जब तक वह भारत सरकार को अपनी सरकार मानता है तब तक वह उसकी बात मानता है। और जब नक्सलवादी अपनी सरकार बना लेते है तब वह उस सरकार की बात मानने लग जाता है. बलरामपुर जिले से नक्सलवाद का समापन विकास के आधार पर नहीं हुआ, बल्कि नक्सलवाद के समापन के बाद वहां विकास हुआ. बस्तर क्षेत्र में सरकार उल्टे मार्ग पर चल रही है.

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