शंकर को देखने समझने के दो द्रष्टिकोण हैं | एक तो तथाकथित आधुनिक बौद्धिक वर्ग और दूसरा उनका परंपरागत अनुयायी वर्ग | दोनों वर्ग अपनी अपनी ...
शंकराचार्य का दर्शन संभवतः वैदिक है, बौद्धों और जैनों के विपरीत, उन्होंने अपने ज्ञान को वेदों से खोजा और इसे अपने अवैयक्तिक अधिकार के साथ प्रस्तुत किया, जिसने उन्हें एक आस्तिक बनाया। उनकी टिप्पणियां, भाष्य और प्रकरण में, उन्होंने बार-बार निर्गुण, निराकार, दिव्य ब्रह्म को स्पष्ट किया । वेदांत पर लिखे गए उनके ब्रह्म-सूत्र-भाष्य, उनकी संस्कृत की कविताएं विवेक चूडामणि और निर्वाण-शतकम और उनके ग्रंथ आत्म-बोध में इसे स्पष्ट किया गया है। बहुत से लोग इसे उन पर बौद्ध मत का प्रभाव मानते हैं, जिसमें दुनिया को क्षण भंगुर माना गया है | बुद्ध के शून्य वाद को वैदिक रंग देने का भी बुद्धिजीवी अक्सर शंकराचार्य पर आरोप लगाते हैं व शंकराचार्य के वेदान्त को वे प्रच्छन्न बौद्ध मानते हैं |
ब्रह्म-सूत्र (1.3.33) पर अपनी टिप्पणी में, उन्होंने कहा, " कोई कह सकता है कि जिस प्रकार आज कोई सार्वभौमिक शासक नहीं है, कभी भी नहीं रहा होगा |" यह एक प्रकार से उनके समय के बिखंडित समाज की स्वीकृति मानी जा सकती है, और इससे यह भी प्रतीत होता है कि उन्होंने बौद्ध, जैन और हिंदू पुराणों में वर्णित चक्रवर्ती, या सार्वभौमिक सम्राट की पौराणिक कथाओं को अस्वीकार किया है |
जब 327 ईसा पूर्व मैक्सेन के अलेक्जेंडर ने भारत पर हमला किया, उस दौरान वैदिक मान्यताओं वालों ने गृहस्थों का समर्थन किया, जबकि बौद्ध, जैन और अजीविका मत वालों ने सन्यासियों का समर्थन किया |
शंकराचार्य केरल में एक गरीब नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुये । उनके पिता का नाम शिवागुरु था, जिससे स्पष्ट होता है कि उनका परिवार शैव्य था । वाल्यावस्था में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई, और उनकी मां ने उनकी परवरिश की, हम उन्हें आर्यम्बा (महान महिला) के रूप में जानते हैं । वे कृष्ण भक्त थीं, तो कहा जा सकता है कि शंकर पर शैव्य और वैष्णव दोनों संस्कार आये । अपनी मां के विरोध के बावजूद, उन्होंने सन्यासी बनने का निश्चय किया और वेदान्त के व्यवहारिक रूप मीमांसक को पसंद किया । उनके गुरु, गोविंद भागवतपाद थे, उनका नाम दर्शाता है कि वे वैष्णव थे | भगवतपाद गोविन्द ने नर्मदा नदी के तट पर संन्यास ग्रहण किया था तथा वे बौद्ध धर्म से भी काफी प्रभावित थे।
विद्वान हैरत में हैं कि एक ओर तो दार्शनिक शंकर, जिनके ज्ञान की सर्वत्र सराहना होती है, और दूसरी ओर भाव और भक्ति से परिपूर्ण काव्यकार शंकर ? एक ओर तो शंकराचार्य ने तीर्थयात्रा को प्रेरित किया, और दूसरी ओर भज गोविंदम में जीवन की निस्सारता इतनी खूबसूरती से व्यक्त की? वे वेदांती थे या तांत्रिक? वे शैव थे, वैष्णव थे, या शाक्त थे? वे इनमें से कोई एक थे, या सभी थे, या इनमें से कोई नहीं? वे बौद्ध विरोधी थे या प्रच्छन्न बौद्ध? उनका जीवन दर्पण बहु आयामी था, ठीक बैसे ही जैसे तबसे अब तक का भारत, विविधता में एकत्व का प्रतीक ।
बहुत लोग हैं जो यह मानते हैं कि शंकर का दर्शन बौद्धिक अभिजात वर्ग के लिए है, और उनकी कवितायें व तीर्थाटन अपेक्षाकृत कम बौद्धिक वर्ग के लिए है । यह अनुचित विचार अक्सर उन लोगों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, जो खुद को बौद्धिक मानते हैं, जबकि वे स्वयं शंकर के बहुआयामी एकीकृत समग्र रूप को देखने में नाकाम रहे हैं।

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