"शिवपुरी" कहने को पिछड़ा जिला, पर इस पावन धरा का कंकर कंकर शंकर ।। भाग – 2

जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, शिवपुरी शिवोपासना का प्राचीन केंद्र रहा है | इस विषय में इतिहासकार कुछ इस प्रकार लिखते है – ब्राह्मणवंशीय राजाओं के पतन एवं कुषाणों के अभ्युदय के समय इस खंड में नाग क्षत्रिय सत्ता का आविर्भाव हुआ था ! नाग राज्य एक संघ राज्य था जो विदिशा, नागावध (नागोद) पद्मावती (पवा) कान्तिपुरी (कुतवारा) नरवर के भागों में विभक्त था ! नागराजा शैव मतावलम्बी थे ! उनकी नाग स्थापत्य कला उच्च कोटि की थी ! दो सर्पों के मध्य शिवलिंग नागों का राज चिन्ह था ! नरवर एवं पवा से भीम नाग, खुर्जर नाग, वत्स, स्कंध्नाग, वृहस्पति नाग, गणपति नाग, व्याघ्र नाग, वसुनाग और देवनाग ने क्रमशः 1 ई. से २२० ई. तक राज किया ! (बुंदेलखंड का वृहद इतिहास (राजतंत्र से जनतंत्र) डॉ. कशी प्रकाश त्रिपाठी पृष्ठ ०८)

शिवपुरी में सिद्धेश्वर मंदिर और हुसैन टेकरी के मध्य एक नाथ सम्प्रदाय के गुरु गोरखनाथ का मंदिर है ! यह मंदिर विष्णु मंदिर हुसैन टेकरी के पीछे की ओर स्थित है ! यहाँ एक पुरानी टूटी फूटी बावड़ी है, शिवलिंग है और गुरु गोरखनाथ की प्रतिमा है ! यह आश्रम गुरु गोरखनाथ के शिष्यों के द्वारा बनवाया गया था ! यहाँ बाद में एक तिवारा और कुछ कमरों का निर्माण करवा दिया गया, जो अधिक प्राचीन प्रतीत नहीं होते है ! इस मंदिर में गुरु गोरखनाथ की प्रतिमा स्थापित है जिस पर संवत १०६३ अंकित है ! 

गोरखनाथ जी की अतिप्राचीन प्रतिमा 


नाथ सम्प्रदाय को कापालिक मत का ही सुधरा हुआ रूप माना जाता है ! कापालिक मत में मांस, मदिरा और मैथुन से सम्बंधित साधना पद्धति प्रचलित थी ! गुरु गोरखनाथ ने इस आचरण विहीन पूजा पद्धति का विरोध करने के लिए सदाचार-प्रधान नाथ सम्प्रदाय का शुभारम्भ किया ! प्रारम्भ में उनके इन सामाजिक सुधारों का विरोध भी हुआ ! आज भी हम बातचीत में कह देते है कि – यह क्या गोरखधंधा मचा रखा है ! गोरखधंधा मतलब बेकार का काम ! समाज सुधार के बेकार के इस काम को संत गोरखनाथ ने प्रारंभ किया था !

मंदिर में निर्मित कमरों की वर्तमान स्थिति 

दसवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई यह आराधना आज भी जारी है ! यहाँ मौजूद शिवलिंग अवश्य पांच से छह दशक पुराना बताया जाता है, परन्तु सिद्धेश्वर मंदिर के पीछे शिव-पार्वती प्रतिमा दसवीं सदी की बतायी जाती है ! उसी समय से यहाँ अत्यंत वृहद स्तर पर मेले का आयोजन प्रत्येक शिवरात्री पर होता आ रहा है जो कि दुर्भाग्य से विगत कुछ समय से सिमटता गया है एवं इस वर्ष शिवरात्री के अवसर पर इस मेले का आयोजन ही नहीं किया गया ! जिसका विरोध स्थानीय नागरिकों के द्वारा किये जाने पर लगभग एक माह के बाद स्थानीय प्रशासन ने श्रद्धालुओं के विरोध को दबाने हेतु मेले का आयोजन आनन फानन में किया ! 

मंदिर में स्थापित भैरो बाबा की प्रतिमा 

कुछ समय पूर्व अंचल के प्राचीन मंदिरों का जीर्णोधार प्रशासन द्वारा कराया जाना प्रारम्भ हुआ ! उस समय गोरखनाथ मंदिर पर कुबेर खंड की खुदाई के दौरान कुछ सिक्के, मूर्ती व अन्य वस्तुएं भी प्राप्त हुई ! जो सिक्के खुदाई में मिले उन पर जार्ज पंचम का चित्र अंकित था ! इसके अलावा पत्थर पर उभरी हुई हनुमान प्रतिमा एवं मिटटी के सांचे भी प्राप्त हुए ! इन सिक्कों के बारे में इतिहासकार अरुण अपेक्षित के अनुसार “१८५७ की क्रांति के बाद कंपनी शासन समाप्त हो गया था और महारानी विक्टोरिया ने साम्राज्य संभाल लिया था ! इसी दौरान जार्ज पंचम की तस्वीर अंकित सिक्के उनकी सत्ता में चलन में आये जो १९४७ तक भारत में प्रयोग किये गए !

मंदिर में स्थित बाबड़ी जिसका चल रहा है जीर्णोधार कार्य 

इस ऐतिहासिक मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य प्रशासन द्वारा कराया तो जा रहा है, परन्तु इस कार्य में घटिया पत्थरों का उपयोग हो जा रहा है ! घटिया निर्माण कार्य को देख स्थानीय विधायक और प्रदेश की मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया भी अपनी नाराजगी व्यक्त कर चुकी है | यहाँ तक कि वे घटिया निर्माण कार्य को देखकर उक्त स्थान का बिना लोकार्पण किये ही वापस भी लौट चुकी है | परन्तु अफसरशाही किसकी सुनती है, निर्माण कार्य में घटिया सामग्री का उपयोग अनवरत जारी है !

जीर्णोधार कार्य में लगाया जा रहा है लाल पत्थर के स्थान पर रंग से पुता पत्थर 

इतिहास के पन्नों में दफ़न “सरस्वती पत्तन”, जो कभी हुआ करता था योग का केंद्र 

शिवपुरी शहर से लगभग 25 किलोमीटर पूर्व में झाँसी शिवपुरी राजमार्ग पर सुरवाया नामक ग्राम है ! यहाँ सुरवाये की गढ़ी नामक स्थान है ! यह प्राचीन मठ है जिसे सरस्वती मंदिर माना जाता है ! यह स्थान किसी समय शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र रहा है ! इस मठ का निर्माण उज्जैन के राजा अवन्तिवर्मन के द्वारा कराया गया था ! सरस्वती मंदिर होने के कारण इसका नाम सरस्वती पत्तन हुआ ! “सरस्वती पत्तन” १० वीं सदी के शैव मठों की विस्मयकारी निर्माण शैली के कारण प्रसिद्ध है ! जहाँ एक ओर सरस्वती पत्तनयोग का केंद्र रहा वहीँ तैरही (तेराम्भिनगर) तांत्रिक विद्या का प्रमुख केंद्र था, जिसकी मुख्य पीठ खोखई (अरणीप्रद) में थी | यह स्थान तैराम्बी से 12 किमी पश्चिम स्थित है, कदवाया से १० किमी उत्तर स्थित महुआ (महिस्मती नगर) कला कौशल के लिए विख्यात था | कुण्डलपुर (कुंतलपुर) एवं कदवाया (कदम्बगुहा) ज्योतिषविद्या के प्रमुख केंद्र थे | ईसागढ़ से १५ किमी. उत्तर में स्थित १० वीं सदी के शैव मठों की श्रंखला अपनी उत्कृष्ट स्थापत्य से आज भी मन मोह लेती है ! 


अरणीप्रद शाखा के शैवाचार्य “पुरंदर” मत्तमयूर शाखा के प्रवर्तक माने जाते है ! मत्तमयूर शाखा शैव सिद्धांतों की दो प्रमुख शाखाओं में से एक है ! माना जाता है कि मत्तमयूर शाखा इसी जिले के नक़्शे में प्रचलित हुई थी ! इसी मत्तमयूर शाखा की एक उपशाखा पुरंदर की चौथी पीढ़ी के शैवाचार्य पुरंदर द्वितीय ने मधुमती (महुआ-तैरही से तीन किलोमीटर दक्षिण में) स्थापित की ! मत्तमयूर शाखा की यह उपशाखा मधुमत्तेय शाखा के नाम से प्रचलित हुई ! पुरातत्व से सम्बंधित अनेक प्रमाणिक पुस्तकों का सार इस दिशा की ओर इंगित करता है कि गुहधिवासी से पुरंदर द्वितीय तक पांच शैवाचार्य मालवा अंचल में शिवपुरी-गुना क्षेत्र के ही मूल निवासी थे !


गुहधिवासी के लिए कहा जाता है कि यह शिव अवतार थे एवं इन्होने ही शैव सिद्धांतों की नीव राखी ! वर्तमान में प्राचीन योग मठ “सरस्वती पत्तन” सुरवाया के नाम से जाना जाता है ! किले की तरह विशाल प्राचीरों से घिरे इस मठ का इतिहास काफी पुराना है ! इस मठ में आज भी बड़े बड़े शिलाखंडों से निर्मित कक्ष ही, जो कभी रहने और अध्ययन के लिए उपयोग में आते होंगे ! 

यहाँ दो मंदिर भी है, जिनकी बाहरी दीवारों पर अनेक नायक नायिकाओं की प्रतिमाएं है ! एक से अधिक बावड़ी है ! स्नानागार है ! परिसर में एक बड़ी चक्की है जो शायद बैलों के द्वारा चलाई जाती थी ! यहाँ आज भी एक छोटी सी खिडकी मौजूद है जिसमे से सामान्य व्यक्ति का निकल पाना भी असंभव सा प्रतीत होता है, परन्तु उस समय योग में पारंगत विद्यार्थी इस खिड़की में से आसानी से निकल जाया करते थे, या यूं कहें कि वह इस खिड़की में से निकल कर योग कला में अपनी प्रवीणता का प्रमाण देते थे !


जब भारत पर मुगलों का आक्रमण हुआ तब मुगलों ने हिन्दुओं के अनेक धर्म स्थलों को क्षति पहुंचाई ! जब मुग़ल हिन्दुओं के शहरों ओर धर्म स्थलों को रौंदते हुए आगे बढ़ रहे थे तब अनेकों धर्मस्थलों को स्वयं हिन्दुओं के द्वारा दफ़न किया जाने लगा ! जब ऐसी ही सूचना “सरस्वती पत्तन” के लोगों को प्राप्त हुई कि मुग़ल इस ओर बढ़ रहे है, तब सरस्वती पत्तन के एक भाग को भी मिटटी से ढँक दिया गया, जिससे इस अमूल्य धरोहर को क्षति न पहुँच सके ! आज भी सुरवाया की खुदाई में अनेकों अनमोल वस्तुयें जमीन के अन्दर से निकल आती हैं  ! 

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