किसानी के नाम पर पनपता कालेधन का महासागर - के के शुक्ला


देश में किसान आंदोलन इतनी तेजी से फैल रहा है कि राज्य सरकारें एक के बाद एक खेती पर दिए कर्जों को माफ करने की घोषणाएं कर रही हैं। दूसरी तरफ नीति आयोग की राय है कि खेती पर आयकर लगाया जाना चाहिए। एक तरफ सरकारें किसानों को कुछ देना चाह रही हैं और दूसरी तरफ वह उनसे कुछ लेना भी चाह रही है। यह विरोधाभाष, परस्पर-विरोधी नीति अजीब-सी लगती है लेकिन यदि आप थोड़े गहरे उतरें तो इन दोनों बातों में कोई अन्तर्विरोध नहीं है।

किसानों पर आयकर इसलिए नहीं लगाया जाता, क्योंकि माना जाता है कि वे गरीब होते हैं | उनकी आय मौसम के कारण अनिश्चित होती है और वे मजदूरों या कर्मचारियों की तरह संगठित नहीं होते | लेकिन ‘सूचना के अधिकार’ के तहत अभी जो ताजातरीन जानकारी सामने आई है, उससे पता चलता है कि खेती के नाम पर कितना भयंकर भ्रष्टाचार चल रहा है। 2012 में ऐसे 8 लाख 12 हजार करदाता थे, जिन्होंने अपनी कृषि आय औसतन प्रति व्यक्ति 83 करोड़ रु. बताई याने लगभग 7 करोड़ रु. महिना। इन आठ लाख से ज्यादा कृषि करदाताओं की कुल आय बनती है लगभग 675 लाख करोड़ रु.। यह आयकर मुक्त थी, क्योंकि इसे खेती की आय बताया गया था। 

2012 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगभग 100 लाख करोड़ रु. था याने इन तथाकथित ‘महाकिसानों’ ने जीडीपी से पौने सात गुना काला धन पैदा किया। यदि ताजा आंकड़ा सरकार बताए तो यह काला धन अब और भी ज्यादा होगा। यह कानूनन करमुक्त है। यह खुली लूट-पाट नहीं है तो क्या है ? इसमें कई उद्योगपति, पूंजीपति, नेता और नौकरशाह शामिल हैं। इन्होंने जगह-जगह अपने छोटे-मोटे फार्म-हाउस बना रखे हैं। ये एशो-आराम के अड्डे होते हैं। वहां कुछ खेती और बागवानी का नाटक भी रच लिया जाता है। यदि नीति आयोग इन किसानों का चोला धारण किए हुए पाखंडियों पर टैक्स लगवा दे तो आप ज़रा अंदाज़ लगाइए कि सचमुच के किसानों को सरकार कितना लाभ पहुंचा सकती है। 

आज भारत के किसानों की औसत आमदनी 100 रु. रोज भी नहीं है। सरकार न सिर्फ उनके कर्ज माफ कर सकती है बल्कि उनके लिए सिंचाई, बीज और खाद भी उचित दाम पर उपलब्ध करवा सकती है। अतिरिक्त फसल के भंडारण और खरीद की व्यवस्था भी आसानी से हो सकती है लेकिन यह सब तभी हो सकता है जबकि सरकार की इच्छा-शक्ति प्रबल हो।

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