सेना राजनीतिज्ञों का पसंदीदा पंचिंग बैग - लेफ्टिनेंट जनरल राज कादयन



इस बात को दो माह बीत चुके हैं, जब मेजर गोगोई ने अपनी जीप के बोनट पर एक नागरिक का इस्तेमाल किया । घटना को टेलीविजन स्क्रीन पर दिखाने से मना किया गया था, किन्तु विघ्नसंतोषियों ने इस आग्रह को नहीं माना | इतना ही नहीं तो उन लोगों ने आर्मी चीफ जनरल बिपीन रावत द्वारा की गई टिप्पणियों व कुछ अन्य बातों के बहाने सेना को एक निंदनीय राजनीतिक और सार्वजनिक बहस में खींच लिया।

जो लोग मेजर गोगोई की लीक से हटकर की गई कार्रवाई की निंदा कर रहे हैं, वे उत्तरी सेना के दो पूर्व-कमांडरों का हवाला देते हैं, जिन्होंने इस कार्यवाही को उचित नहीं माना । निश्चित ही ये दोनों बेहद प्रतिष्ठित जनरल हैं। यह अलग बात है कि अन्य सीनियर दिग्गजों ने जो उपरोक्त दो महानुभावों के ही समान सक्षम और अनुभवी अधिकारी हैं, उनमें से अधिकांश ने मेजर गोगोई द्वारा की गई कार्रवाई को उचित मानते हुए, उनकी सराहना की | लेकिन हैरत की बात है कि उन्हें मीडिया में स्थान नहीं मिला । क्या समाचारों में इस प्रकार का पक्षपात उचित कहा जा सकता है ? अगर आलोचना प्रदर्शित की गई, तो सराहना को क्यों दबाया गया ? यह भी गौरतलब है कि किसी ने भी विकल्प सुझाने की जहमत नहीं उठाई, कि गोगोई ने जो किया, उसके स्थान पर उन परिस्थितियों में उन्हें क्या करना चाहिए था | क्योंकि, वे जानते हैं कि परंपरागत सैन्य पद्धति का एकमात्र विकल्प, रक्तपात होता ।

आमतौर पर इस बात का विश्लेषण नहीं किया जाता कि जब सभी अन्य विफल हो जाते हैं, तब सेना अधिक प्रभावी क्यों होती है | आपमें से अधिकाँश ने पहलवान रूस्तम कि कहानी सुनी होगी | एक रात उस बेहद ताकतवर पहलवान रुस्तम का घोडा एक चोर ने चुरा लिया | लेकिन इसके पहले कि वह घोड़ा लेकर भाग पाता, रुस्तम की नींद खुल गई और वह भी दौड़कर चोर के पीछे घोड़े की पीठ पर कूद गया। उसने अपनी पूरी ताकत से चोर को रोकने का प्रयत्न किया, किन्तु असफल रहा । अंत में, उसने चोर से पूछा कि क्या वह जानता था कि उसके पीछे जो घोड़े का मालिक बैठा है, वह कौन है ? 

"मैं रूस्तम हूं" ।
जैसे ही चोर ने यह सुना, वह घबराकर गिर गया | 

सेना लोकोक्ति में वर्णित वही रूस्तम है | अपनी भौतिक सामर्थ्य के कारण नहीं, बल्कि स्थिति का पूरी तरह से पेशेवर अंदाज में व्यवहारिक और निष्पक्ष ढंग से निपटने के अंदाज का ही मनोवैज्ञानिक प्रभाव है, जो उन्हें सम्मान दिलाता है। सेना के आदेश में अन्तर्निहित प्रभाव और रुतबा इसे दूसरों से अलग करते हैं और इसे पुख्ता बनाते हैं | संभवतः जनरल रावत ने मीडिया के सम्मुख जब “भय” शब्द का इस्तेमाल किया, वह इसी परिप्रेक्ष में था, जिसे आलोचकों ने अन्यथा अर्थ में लिया । 

आजादी के बाद तुरंत बाद से ही भारत ने आंतरिक विघटन का सामना किया है। आंतरिक सुरक्षा की स्थितियों को संभालने के लिए सेना का लगातार उपयोग एक मजबूरी बन गई है। देश का सर्वोच्च संसाधन होने के नाते, सेना की प्रभावशीलता बरकरार रखना चाहिए। ऐसा तभी संभव है, जब सेना का प्रयोग कम से कम हो, और आंतरिक सुरक्षा के मामलों में उसकी लंबी तैनाती से बचा जाए । सेना को अपनी अलग छावनी चरित्र को बनाए रखने की आवश्यकता होती है, जहां इसे केवल देखा जाता है और शायद ही कभी सुना जाता है। यह होना चाहिए, किन्तु देश की वर्तमान परिस्थितियों के देखते हुए, ऐसा हो पाना न तो संभव है, ना ही व्यवहारिक ।

सेना की गतिविधियों के बारे में मीडिया में चर्चा कम से कम होना चाहिए। इसके विपरीत यह निराशाजनक है कि कुछ राजनीतिक नेताओं और टीकाकारों ने सेना की सार्वजनिक आलोचना को एक शगल ही बना लिया है । सेना उनका एक पसंदीदा प्राइम टाइम पंचिंग बैग बन गई है। टीआरपी की यह गंभीर नकारात्मक दौड़, दुर्भाग्यपूर्ण है । सेना के लोकाचार और कार्यविधि को सार्वजनिक करना भी बहुत अधिक हानिकारक है। इस विशेष कार्यबल की विश्वसनीयता पर टिप्पणी केवल वे ही कर सकते हैं, जिन्होंने इसकी वर्दी में समय गुजारा हो, क्योंकि वे ही सेना के आचार व्यवहार, नैतिक स्तर, मनोबल और प्रेरणा आदि को समझ सकते हैं । वर्दी के जीवन को केवल केवल अनुभव किया जा सकता है, इसे कभी भी समझाया नहीं जा सकता |

घाटी में आतंकवादी अगर सेना को विवादों में घसीटें तो समझ में आता है, क्योंकि वे हमारे विरोधी हैं । लेकिन दूसरे सेना को विवादास्पद क्यों बना रहे हैं ? मानवाधिकार कार्यकर्ता, तथाकथित शांति के पक्षधर और अन्य सभी सेना पर इतने तीखे कटाक्ष क्यों कर रहे हैं? मानव अधिकारों के उल्लंघनकर्ता के रूप में इस संस्थान को गलत रूप से चित्रित किया जा रहा है | सांख्यिकीय रूप से, 1 99 4 से अप्रैल 2017 तक जम्मू-कश्मीर में जितने भी आरोप लगाए गए, उनमें से महज 3% से भी कम आरोप सच साबित हुए हैं। इतने लंबे समय तक अशांत वातावरण में सेना की तैनाती के बावजूद, यह एक प्रशंसनीय रिकॉर्ड है।

गलतफहमियों से निपटने के लिए सेना में एक बहुत ही कुशल स्वविकसित तंत्र भी है | अनुशासनहीनता के लिए वहां कोई स्थान नहीं है | मानवाधिकार उल्लंघन के लिए 1994 से अब तक 68 व्यक्तियों को दंडित किया गया है। सख्त अनुशासन बनाए रखने में जिस संगठन का सर्वोच्च हिस्सा है, वह सेना ही है। कोई कमांडिंग अधिकारी अपने लोगों को ढीला नहीं छोड़ता और तभी वह सफल परिचालन, सफलता हासिल करने की उम्मीद करता है।

हमें याद रखना होगा कि सेना बहुत मुश्किल काम कर रही है; वे अनेक वर्षों से अपना आत्मविश्वास कायम रखते हुए काम कर रहे हैं। कई सैनिकों की मृत्यु हुई और बहुत से घायल हुए हैं । सेना में कोई एलियंस शामिल नहीं हैं; वे नौजवान हैं, वे योग्य हैं और उन्हें हमारे समर्थन की आवश्यकता है, न कि हमारे द्वारा निंदा किये जाने की। आप उनकी पीठ नहीं थपथपा सकते, तो कम से कम उनकी ठुकाई तो मत लगाओ । यह हमारे अपने स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा नहीं है |

लेफ्टिनेंट जनरल राज कादयन

Former Deputy Chief of Army Staff

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