जब तक वैमनस्य है, आजादी अधूरी है - दिवाकर शर्मा



भारत में दंगों का प्रारंभ आजादी के आंदोलन के दौरान ही जन्म ले चुका था । उस समय अंग्रेजों का प्रयास इन दंगों के माध्यम से हिंदू और मुसलमानों की एकता में फूट डालकर शासन करना था । हिंदू मुसलमानों के बीच दंगे करा कर अंग्रेज अपनी फूट डालो और शासन करो की नीति में सफल भी हुए । इन दंगों ने हिंदू मुसलमानों के बीच की खाई को इतना गहरा कर दिया कि इसका ही परिणाम भारत विभाजन के रूप में देखने को मिला ।

भारत की आजादी के बाद भी दंगों का यह क्रम नहीं थमा । आजादी के बाद भी लगभग हर वर्ष भारत की छाती ने कई दंगे झेले हैं । अंग्रेजो के द्वारा बोये गए विषबीजों का इलाज भारत की किसी भी सरकार के पास नहीं रहा है, भले ही वह सरकार चाहे प्रदेश स्तर की हो जब केंद्र स्तर की । संपूर्ण विश्व की नजरों में भारत को बदनाम करने वाले ये दंगे, ना जाने कब भारतवर्ष का पीछा छोड़ेंगे ? छोड़ेंगे भी या नही ?

वर्तमान में भी भारत के हर कोने में आए दिन दंगे हो रहे हैं । यदि गौर किया जाए तो इन दंगों के पीछे भी नेताओं और मीडिया का ही हाथ दिखाई देता है । कभी किसी समय पत्रकारिता का व्यवसाय जिसे बहुत ऊंचा समझा जाता था आज बहुत ही गंदा हो गया है । कभी पत्रकारिता का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों को संकीर्णता से मुक्त करना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाकर परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, परंतु आज उन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञानता फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिकता का पोषण करना, लड़ाई-झगड़े कराना, भारत के वैभवशाली इतिहास को धूमिल करना, भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट कर केवल पैसे के पीछे भागना, बना लिया है । आज भारत की जो दुर्दशा है, जिसे देखकर आंखों से रक्त के आंसू निकलते हैं, उस दशा के पीछे ऐसे ही गैर जिम्मेदार लोगों का हाथ है ।

यदि हम इन सांप्रदायिक दंगों की वास्तविकता देखे, तो इसका कारण आर्थिक भी नजर आता है । जब भारत आजादी हेतु संघर्ष कर रहा था, तब नेताओं और पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियां दी, परंतु आजादी के बाद वर्तमान में नेता और पत्रकार अर्थ को ही सब कुछ समझ बैठे हैं, यही कारण है कि वे दंगो की आग में घी डालने का कार्य करते हैं । इन जैसे लोगों का ना तो कोई धर्म है, ना जाती और ना ही कोई संतुलित विचारधारा । यह लोग यह भी नहीं जानते कि इनके इस कृत्य से भारतीय जनता हारती है, हारती है भारत की संस्कृति सभ्यता और अभी तक बची-खुची भारतीय अस्मिता । यह हर साल होने वाले दंगे भारत और भारतीयों के लिए एक श्राप है ।

एक कटु सत्य यह है कि विभिन्न समुदायों के बीच शांति और सौहार्द स्थापित करने की राह में सांप्रदायिक दंगे एक बहुत बड़ा रोड़ा बनकर उभरते हैं और साथ ही मानवता पर ऐसा गहरा घाव छोड़ जाते हैं, जिनसे उवरने में कई कई वर्ष तक लग जाते हैं । ऐसे में समुदायों के बीच उत्पन्न तनावग्रस्त स्थिति में किसी भी देश की प्रगति संभव नहीं है, परंतु धर्म और संप्रदाय को अपना वोट बैंक मान चुके सत्तालोलुप नेताओं के लिए यह केवल सत्ता हथियाने का हथियार मात्र है, भले ही उसकी बेदी पर सैकड़ों मासूमों का खून बह जाए ।

अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने हेतु बांटो और राज करो नीति को कामयाब बनाने हेतु जिस सांप्रदायिकता का बीज बोया था, उसे आजाद भारत के कांग्रेसी व वामपंथी नेताओं ने खाद पानी देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । वोट बैंक की राजनीति के चलते आजादी के बाद देश में दंगों और नरसंहारों को राजनीतिक नफा नुकसान की नजर से परिभाषित किया जाने लगा । भारत में सांप्रदायिक दंगों पर यदि पैनी नजर डाली जाए तो चौंकाने वाली बात निकलकर सामने आती है कि भारत में सांप्रदायिक दंगे एक ही तरह से होते हैं, एक ही तरीके के मुद्दों से झगड़ा शुरू होता है, एक ही तरीके से लोगों को मारा जाता है और एक ही तरीके के लोग दंगों में शामिल होते हैं । इतिहास गवाह है कि जब भी देश में चुनाव करीब आते हैं, सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में एकाएक इजाफा हो जाता है । अचानक शांत वातावरण में प्यार और भाईचारे के स्थान पर, डर, दहशत, खौफ, नफरत और बदले की भावना दिखाई देने लगती है । लेकिन सच में यह सब जैसे अचानक दिखते हैं वैसे नहीं होते बल्कि इसके पीछे साजिश की एक लंबी कहानी छिपी होती है । यदि अतीत के पन्नों को पलटा जाए तो हम पाते हैं कि जब भी इस देश में चुनाव नजदीक आते हैं हिंदू मुस्लिम के रिश्ते के बीच हमेशा दीवारें खड़ी कर दी जाती है।

भारत में जो वर्तमान स्थिति बनी हुई है उसे सुधारने के लिए कोई महापुरुष अवतरित नहीं होगा | इसके लिए देश के लोगों को ही आगे आना होगा, क्योंकि सत्ता के मद में चूर कोई भी सरकार स्थिति में सुधार नहीं ला सकती । भारतवासियों को चाहिए कि वे ऐसा वातावरण ही न बनने दें, जिनसे दंगे हों । देश में दंगे रोकने हेतु वर्ग चेतना बेहद आवश्यक है । हमें यह समझना बेहद आवश्यक है कि कौन हमारे शत्रु है और कौन मित्र ? अतः जो इस देश का अहित चाहते हैं उनके हथकंडों से बचकर रहना आवश्यक है । हमारा हित इसी में है कि हम धर्म, रंग, नस्ल के भेदभाव भूल कर एकजुट होकर अपने राष्ट्र को प्रगति के पथ पर आगे ले जाएं | जिस दिन हमारी पारस्परिक वैमनस्य की जंजीरे कट जाएंगी, सही मायनों में उसी दिन हम वास्तव में स्वतंत्र हो पायेंगे । अंग्रेजों द्वारा बोये गए विष बीज जब तक देश की धरती में, देशवासियों के मनोमस्तिष्क में हैं, तब तक आजादी अधूरी है |

दिवाकर शर्मा, सम्पादक क्रांतिदूत

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