प्रणय के दर्द में डूबे एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया और अरुण शौरी - संजय तिवारी
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वर्ष 1978 यानि इमरजेंसी के बाद। इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर थी। जनतापार्टी की सरकार चल रही थी। उस समय देश की राजधानी में बैठे कुछ ठलुआ टाइप सम्पादको को एक सगठन की जरूरत महसूस हुई और पैदा हो गया एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया। सोचिये की देश पर एमेजेन्सी थोपने वाली सरकार के खिलाफ इन्हे किसी संगठन की जरूरत नहीं पड़ी, लेकिन इमरजेंसी के बाद आयी सरकार के खिलाफ यह जरूरत पड़ गयी। क्योकि इससे पहले सरकारें जरूर बदल रही थीं , पर मीडिया की ब्रिटिश शैली , क्लब संस्कृति और बौद्धिक ऐयाशी पर कोई रोक नहीं लग पायी थी। जनता सरकार थोड़ी देसी अंदाज वाली थी , सो वह खुलापन इनको इसमें दिख नहीं रहा था। उसके बाद देश में क्या क्या हुआ और मीडिया चलते चलते कहा तक पहुंच गया इस बारे में मुझे बहुत लिखने की जरूरत नहीं है।
जहा तक इस संगठन का औचित्य है , इस बारे में बीबीसी जैसी एजेंसी की टिपण्णी है - एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया जो कि आम तौर पर एक निष्क्रिय संगठन है और जिसपर पेशेवर संपादकों के बजाए मालिकों का नियंत्रण रहता है। आजकल यह संगठन बहुत सक्रिय चिंता में है। कारण कि मीडिया के एक बड़े घराने की कॉर्पोरेट गतिविधि के लेन - देन की जांच चल रही है। हालांकि यह जांच मनमोहन सिंह की सरकार के समय से चल रही है , लेकिन इसमें इस गिल्ड़ को मोदी सरकार की सक्रियता दिख रही है। हद तब हो जाती है जब सम्पादको का यह संगठन आर्थिक अपराध के मामले की जांच को भी मीडिया पर हमला की संज्ञा दे देता है। इस संगठन ने आज तक मीडिया की समस्याओ पर मुँह नहीं खोला। इस संगठन ने आज तक पत्रकारों के हितो की बात नहीं की। इस संगठन को पत्रकारों की हत्याएं और उनका उत्पीड़न नहीं दिखता। इस संगठन को पत्रकारिता के भीतर के दलाल और बिकाऊ सम्पादक नहीं दिखते। इस संगठन को यह भी नहीं दिखता कि टीवी एंकरिंग के नाम पर कोई एंकर कितनी बदतमीजियां करती है। लेकिन जब किसी जांच में पुलिस किसी चैनल मालिक से पूछताछ करने पहुँचती है तो इन्हे फ़ौरन मीडिया पर हमला समझ में आने लगता है।
मोदी सरकार से पहले तक देश में इतना भ्रष्टाचार हुआ , इतनी भयानक सरकारी लूट हुई , घोटाले हुए , राजनीतिक हत्याएं हुई , पर यह गिल्ड़ तब कुछ नहीं बोल सका। सेक्युलर जैसा शब्द भारत की किसी भाषा में नहीं है , यह शब्द यहाँ लाकर इसके पीछे एक देशघाती जमात खड़ी कर दी गयी। इनके सेक्युलर सीमा से बाहर का हर आदमी, दल या विचाधारा सांप्रदायिक हो गयी। देश में नफरत का जाल बिछा दिया इस कथित मीडिया ने और यह गिल्ड़ रोज शाम को क्लबों में खुद को गीला करने की व्यवस्थामें जुटा रहा। आज जब कोई कॉर्पोरेट घराना करोडो रुपये का घोटाला कर पकड़ में आ गया है, तो इस एडिटर्स गिल्ड़ को बहुत दर्द होता है। यह फ़ौरन विज्ञप्ति जारी करता है -
5 जून, 2017
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया
प्रेस रिलीज
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया सीबीआई द्वारा NDTV के दफ्तरों और उसके प्रमोटर्स पर आज की गई छापेमारी पर गहरी चिंता जताता है. पुलिस और अन्य एजेंसियों की मीडिया ऑफिस में एंट्री बहुत ही गंभीर मामला है. NDTV ने विभिन्न बयानों में किसी भी तरह की गड़बड़ी से इनकार किया है. NDTV ने छापेमारी को न्यूज चैनल का "सुनियोजित उत्पीड़न" करने तथा "लोकतंत्र और स्वतंत्र आवाज़" को कुचलने तथा "मीडिया की आवाज़ दबाने" का प्रयास करार दिया है. यद्यपि, एडिटर्स गिल्ड का मानना है कि कोई भी व्यक्ति या संस्थान कानून से ऊपर नहीं है लेकिन मीडिया का मुंह बंद करने के प्रयास की भी निंदा करता है और सीबीआई से नियत कानूनी प्रक्रिया का अनुपालन करने तथा यह सुनिश्चित करने का आग्रह करता है कि न्यूज ऑपरेशंस के स्वतंत्र संचालन में किसी भी तरह का हस्तक्षेप न हो.
राज चेंगप्पा, अध्यक्ष
प्रकाश दुबे, महासचिव
कल्याणी शंकर, कोषाध्यक्ष
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गिल्ड़ यह भूल गया कि अब देश में केवल वही मीडिया भर नहीं है जिसे मालिक सम्पादक चला रहे हैं। देश का हर आदमी इस समय मीडियाकर्मी की भूमिका में है। उन्ही मालिक सम्पादको के चैनल्स ने पैदा किये हैं सिटीजन रिपोर्टर। अब हर हाथ के पास लिखने , बिलने और लोगो तक अपनी बात पहुंचने का माध्यम है। हालांकि इन लोगो की सम्प्रेषण शक्ति को सोशल मीडिया कह दिया गया है , मेरा इनके बारे में नज़रिया दूसरा ही है। स्थापित मीडिया तो वह हो सकते हैं जो एडिटर्स गिल्ड़ चला रहे हैं लेकिन यह नेचुरल मीडिया है जनाब। यहाँ कुछ भी छिपा नहीं रह सकता। यह सबकी खाल उधेड़ कर रख देता है। इस वास्तविक मीडिया , यानी सोशल मीडिया यानि नतिरल मीडिया की दो रिपोर्ट्स यहाँ इस लिए दे रहा हूँ ताकि लोग इस एडिटर्स गिल्ड़ को ठीक से जान लें -
पुष्कर अवस्थी ने लिखा -
भारत में पत्रकारिता को 'माफिया' संस्कृति में ढालने वाले, वामपंथी विचारधारा के उद्देश्यों को खबरों के आवरण से ढक कर परोसने वाले, वामपंथियों की संस्थानों से निकले, राष्ट्रीयता की विछिप्त व्याख्या करते निर्लज्ज मस्तिष्कों को बुद्धिजीवी पत्रकार बनाने वाले और चर्च की आस्था की आंधी में गांधी परिवार के स्वंयम्भू बने गुलाम, एनडीटीवी के सह प्रमोटर प्रन्नौय रॉय के समर्थन में, प्रेस क्लब में अरुण शौरी का आना और उनपर सीबीआई के छापे को प्रेस की आज़ादी पर खतरा बताना एक महान पत्रकार और राष्ट्रवादी विचारधारा के विचारक की मानसिक अवसाद में हुयी मृत्यु है। जिस अरुण शौरी को मैं 1976 से जानता था, वह कुंठा से बीमार तो 26 मई 2014 को ही हो गये थे लेकिन 3 वर्ष से ईर्ष्या और अप्रसंगिकता के सत्य को स्वीकार न करने से, मानसिक अवसाद में मृत्यु कल 9 जून 2017 को हुयी है। अरुण शौरी का 1976 से 2017 तक का सफर वानप्रस्थ में आसक्ति में भटके हुये ऋषि का सफर है।
आज जब मैं अपने आपको 40 वर्ष पूर्व के जीवन मे खड़ा पाता हूँ तब अरुण शौरी की यह भयानक वैचारिक मृत्यु बड़ी दयनीय लगती है। एक वह जमाना था जब पोस्ट इमरजेंसी, 1977 के बाद भारत की पत्रकारिता में एक नयी चेतना, नयी विधा और नये नये सृजन हुये थे। जिनका नये सन्दर्भो में भारत के समाज और राजनीति पर गहरा अमिट प्रभाव भी पड़ा है। 70 के दशक के उत्तरार्ध पत्रकारिता की इस पौधशाला में दो ऐसे नये पौधे थे जिन्होंने आगे चल कर पत्रिकारिता को ही बदल दिया था। उनमें से एक थे, अमेरिका से वर्ल्ड बैंक से लौटे अरुण शौरी, जो इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादक बने और दूसरे थे इंग्लैंड में कैम्ब्रिज से पढ़ाई कर लौट एम जे अकबर, जो अमृत बाजार पत्रिका की अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'संडे के सम्पादक बने। पत्रकारिता में जहां भ्र्ष्टाचार को लेकर खोजी पत्रिकारिता की शुरवात का श्रेय अरुण शौरी को है वही राजनैतिक विचारधारा को वार्ता की विधा में नए सोपान देना का श्रेय एम जे अकबर को है। यही वह दो शख्स है जिन्होंने राजनैतिक विचारधारा के विपरीत धुरी पर खड़े हो कर उस जमाने मे मेरे ऐसे वयस्क हो रहे युवाओं को दिशा दी थी।
आज 1970 के दशक से लेकर इन 40 वर्षों में यह दोनों शख्स कहाँ से कहाँ पहुंच गये है!
जिन अरुण शौरी ने इंद्रा गांधी, संजय गांधी और कांग्रेसियों के आपातकाल की घज्जिया उड़ायी थी, जिन्होंने महाराष्ट्र में सीमेंट घोटाले को उजागर कर के कांग्रेस के मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले को इस्तीफा देने को मजबूर किया था, जिन्होंने इंडियन एक्सप्रेस इस लिये छोड़ दिया था क्योंकि मालिक रामनाथ गोयनका से संपादकीय को लेकर मत भेद था, जिन्होंने कांग्रेस में भृष्टाचार व गांधी परिवारवाद के खिलाफ एकाकी मन से लड़ाई लड़ी, जिन्होंने राममंदिर आंदोलन के औचित्य, बाबा साहब अंबेडकर की विचारधारा के खोखलेपन, भारत मे धर्मनिर्पेक्षिता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण और वामपंथियों के सांस्कृतिक और शैक्षणिक संघठनो पर कब्जे के विरोध में बेबाकी से लिखा था, वह आज बीजेपी की मोदी जी की सरकार में मंत्री न बनाय जाने खिन्न, कांग्रेसियों, वामपंथियों, समाजवादियों की धर्मनिर्पेक्षिता के प्रचारक और राष्ट्रवादी विचारधारा व हिंदुत्व के विरोधियों के मंच संचालक, प्रन्नौय रॉय को ईमानदार पत्रिकारिता का चरित्र प्रमाणपत्र दे रहे है।
वही एम जे अकबर ने अपनी यात्रा, कांग्रेस की धर्मनिर्पेक्षिता के तम्बू में शुरू की थी। एक युवा और प्रतिभाशाली पढ़े लिखे मुसलमान के रूप में नेहरू की इस नीति को विचारधारा के स्तर पर भारतीय मुस्लिम समाज मे पहुंचाया था। एम जे अकबर प्रतिभाशाली जरूर थे लेकिन मुस्लिम इंसेक्युरिटी को कांग्रेसी संरक्षण की बाध्यता के हाथों गिरवी थे। इसी का परिणाम था कि जहां वह राजीव गांधी के सलाहकार बने वही शाहबुद्दीन द्वारा, सर्वोच्च न्यायलय द्वारा शाह बानू के हक में दिये फैसले को संसद द्वारा पलट देने की मुहिम को सफल कराने का उन्होंने जघन्य अपराध किया था। एम जे अकबर कभी भी इस अपराध बोध से उभर नही पाये है। इसी का परिणाम है कि उन्होंने आगे के जीवन का एक बड़ा भाग भारत के बंटवारे और मुस्लिम समाज के आज के हालातों के कारणों को समझने और लिखने में निकाला है। इन्होंने नेहरू से लेकर हिन्दू मुस्लिम दंगो, पाकिस्तान व इस्लामिक कट्टरपंथी के प्रभावों पर लिखा है।
राष्ट्रवादियों का एक वर्ग अक्सर एम जे अकबर पर यह तंज मारता है कि उन्होंने 2014 में बीजेपी के सदस्य इस लिये बन गये क्योंकि बीजेपी के सितारे चढ़ते हुये और कांग्रेस के सितारे डूबने को जल्दी पढ़ लिया था लेकिन इन लोगो को यह नही मालूम है कि अकबर भले ही राजनैतिक रूप से बीजेपी में 2014 को दिखायी दिये थे लेकिन वह बौद्धिक रूप से राष्ट्रवादी विचारधारा के सम्पर्क में 2000 के दशक के उत्तरार्थ में आगये थे। यह शायद बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि पर्दे के पीछे रहने वाली, आरएसएस और मोदी जी समर्थित सबसे महत्वपूर्ण थिंक टैंक इंडियन फाउंडेशन है, जिसकी स्थापना 2010 में, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से 4 वर्ष पूर्व, अजीत डोवाल के पुत्र शौर्य डोवाल ने भारत की राष्ट्रवादी नीतियों की वैश्विक विवेचना और प्रचार के लिये, आरएसएस /बीजेपी के राममाधव के साथ की थी उसमें डायरेक्टर के रूप में, सुरेश प्रभु, जयंत सिन्हा , निर्मल सीतारमण के साथ एम जे अकबर भी इसकी स्थापना से जुड़े हुये है।
आज 2017 में भारत के लिये यह कितना बड़ा विरोधाभास है की गर्व से राष्ट्रवादी हिन्दू कहलाने वाले अरुण शौरी, राष्ट्रवादित्व और हिंदुत्व के मुखर विरोधी प्रन्नौय रॉय के साथ खड़े दिख रहे है वही भारत मे इस्लाम की कट्टरता को लोकतंत्र पर शाह बानू केस में पहली जीत जीत दिलाने वाले एम जे अकबर आरएसएस और मोदी जी की राष्ट्रवादिता के साथ खड़े है।
वैसे मैने कल भारी मन से अरुण शौरी को चंदन की माला चढ़ा दी है।
#pushkerawasthi
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अवनीश पी. एन. शर्मा की वाल
एन डी टी वी के मालिक प्रणय रॉय ने आज दिल्ली के प्रेस क्लब में कुछ बुजुर्ग पत्रकारों को बटोरा और अपने भाषण में कहा कि उन्हों ने कभी भी ब्लैक मनी को टच नहीं किया । अदभुत है यह प्रणय रॉय का यह दावा भी । गोया अस्सी चूहे खा कर बिल्ली हज को चली हो ! क्या सब लोग अंधे हैं , अनैतिक हैं और आंख और नैतिकता सिर्फ़ प्रणय रॉय के पास है । तब जब कि हम सभी जानते हैं कि देश के सभी के सभी मीडिया घराने काले धन की गोद में बैठे हुए हैं । दलाली के गिरोह में तब्दील हैं । एन डी टी वी भी । एक भी मीडिया घराना इस काले धन और दलाली के मोह और धंधे से वंचित नहीं है । और प्रणय रॉय के खिलाफ तो मनी लांड्रिंग और फेरा जैसे आरोप पर जांच भी लंबित है । पोंटी चड्ढा और विजय माल्या जैसे तमाम बदनाम लोगों का पैसा लगा है एन डी टी वी में । पी चिदंबरम जैसों का काला पैसा भी लगा है । कई सारे बिल्डरों का पैसा भी ।
बरखा दत्त को लोग अभी भूले नहीं हैं जो एन डी टी वी में रहते हुए ही नीरा राडिया के साथ टू जी स्पेक्ट्रम और कोयले की दलाली में आकंठ डूबी मिली थीं । इतना ही नहीं मनमोहन सिंह ने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री पद की अभी शपथ भी नहीं ली थी और बरखा दत्त ए राजा को संचार मंत्री बनाए जाने का आश्वासन दे रही थीं । भला किस हैसियत से । राजदीप सरदेसाई जैसे लोगों की दलाली की दुकान भी इसी एन डी टी वी से चलती थी । कोयला घोटाले के दलाली का पैसा भी एन डी टी वी में लगा है , कौन नहीं जानता । आप याद कीजिए एक समय एन डी टी वी के कई लोगों को एक साथ पद्म पुरस्कारों से नवाज़ा गया था । तो क्या मुफ्त में ? एन डी टी वी की दलाली और लायजनिंग की बहुतेरी कहानियां पब्लिक डोमेन में हैं । ऐसे में प्रणय रॉय का यह कहना कि उन्हों ने ब्लैक मनी का एक भी रुपया नहीं छुआ , सुन कर हंसी आती है ।
हां , इस जमावड़े में अरुण शौरी , शेखर गुप्ता , ओम थानवी आदि को देख कर भी हंसी आई । इन लोगों ने मजीठिया लागू करने के लिए कभी मुंह नहीं खोला । लेकिन एन डी टी वी पर पड़े छापे को मीडिया पर हमला मान लिया । किसी चोर के घर पर छापा कब से मीडिया पर हमला हो गया भला ? हां , इस मजलिस में कुलदीप नैय्यर , एच के दुआ जैसों को देख कर ज़रूर तकलीफ़ हुई । अफ़सोस भी बहुत हुआ । इस लिए कि सेक्यूलरिज्म और मीडिया के नाम पर चोरों के साथ खड़ा होना भी अनैतिक है , अभद्रता है और अश्लीलता भी ।
सच तो यह है कि भारतीय मीडिया इस समय बहुत मुश्किल समय में है । काश कि यह लोग कभी इस मुद्दे पर इकट्ठे हुए होते । मीडिया को कारपोरेट के खूंखार जबड़े से निकाल लेने के लिए इकट्ठे होते । राजनीतिज्ञों के लिए दुम हिलाने के खिलाफ इकट्ठे हुए होते । एक दिहाड़ी मजदूर से भी कम वेतन पा रहे मीडियाकर्मी के वेतन बढ़ोत्तरी के लिए इकट्ठे हुए होते । काश कि मीडिया कर्मी कैसे तो बंधुआ मजदूर बन चुका है , इस मुद्दे को ले कर मीडिया मालिकों के शोषण के खिलाफ इकट्ठे हुए होते । समूची मीडिया के काले धन की गोद में बैठ जाने और दलाली का गिरोह बन जाने के खिलाफ इकट्ठे हुए होते । संपादक नाम की संस्था खत्म हो गई , इस की बहाली के लिए भी इकट्ठे हुए होते । काश ! पर अफ़सोस , बहुत गहरा अफ़सोस ! इन लोगों ने इन सारे मुद्दों पर आंख , कान , मुंह सब बंद रखा है । निरंतर ! और आज एक चोर और बेईमान का साथ देने के लिए इकट्ठे हो गए । लानत है ऐसे सभी लोगों पर !
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठतम पत्रकार आदरणीय Dayanand Pandey जी की कलम से साभार।
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क्यों नाराज़ हैं एडिटर मोदी से?
26 सितंबर 2014 को ही बीबीसी के वरिष्ठ संवाददाता आकार पटेल ने बहुत कुछ लिख दिया था। ये कथित संपादक लोग वास्तव में मोदी को देखना भी पसंद नहीं करते। आकार ने लिखा - भारतीय मीडिया इस बात को लेकर परेशान है कि प्रधानमंत्री बहुत बातें करते हैं और अच्छी बातें करते हैं लेकिन वे मीडिया से बात नहीं करते हैं.लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपने आप को पत्रकारों के लिए सहज सुलभ बनाया हुआ था, ख़ासकर टीवी इंटरव्यू के लिए.अब वे अपने पुराने तरीक़े पर लौट चुके हैं जिसके तहत वे सोशल मीडिया और भाषणों के माध्यम से ही मीडिया से रूबरू हो रहे हैं बजाए कि इंटरव्यू और प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिए.
प्रधानमंत्री बनने के बाद फ़रीद ज़कारिया इकलौते ऐसे पत्रकार हैं जिनको मोदी ने इंटरव्यू दिया है. यह इंटरव्यू एक नरम रूख़ वाला और भारतीय नेता का दुनिया के सामने परिचय कराने वाला था. अब एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया जो कि आम तौर पर एक निष्क्रिय संगठन है और जिसपर पेशेवर संपादकों के बजाए मालिकों का नियंत्रण रहता है, ने मोदी के इस रवैए पर शिकायत दर्ज की है.
संगठन ने कहा, "प्रधानमंत्री दफ़्तर में मीडिया इंटरफ़ेस की स्थापना में देरी, मंत्रियों और नौकरशाहों तक आसानी से पहुंच नहीं होना और सूचनाओं के प्रसार में कमी से यह लगता है कि सरकार अपने शुरुआती दौर में लोकतांत्रिक तरीक़े और जवाबदेही के क़ायदे के अनुरूप नहीं है."
जून में वेबसाइट scroll.in की एक रिपोर्ट ने कहा गया, "मोदी के साथ वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक जिसमें उन्होंने अधिकारियों को मीडिया से दूर रहने का निर्देश दिया था, एक ऐसा तथ्य है जिसपर लोगों ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया."
प्रधानमंत्री ने अपने कैबिनेट के सहयोगियों को भी पत्रकारों से दूर रहने को कहा था और इसके बदले सरकार के आधिकारिक प्रवक्ताओं को उनके बदले बात करने को कहा था.
"यह नई दिल्ली को गांधीनगर में तब्दील करने का पहला गंभीर प्रयास था. गांधीनगर में मोदी के तीन बार मुख्यमंत्री रहते हुए उनके मंत्रिमंडल के लोग बिना उनकी इजाज़त के मीडिया से बात नहीं करते थे. यहां तक कि गुजरात में मंत्रिमंडल की बैठक के बाद भी मंत्री मीडिया से बात नहीं करते थे जबकि दूसरे राज्यों में परंपरागत रूप से मंत्री इस बैठक के बाद मीडिया से बात करते है."
जब कभी भी मोदी ने महसूस किया कि उन्हें कुछ कहना है तब उन्होंने ट्वीट और अपने भाषणों का सहारा लिया. गिल्ड का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है.संगठन का कहना है, "एक ऐसे देश में जहां इंटरनेट की पहुंच सीमित है और तकनीकी जागरूकता भी कम वहां इस तरह का एकतरफ़ा संवाद इतनी बड़ी पाठक, दर्शक और श्रोताओं की आबादी के लिए पर्याप्त नहीं है. बहस, संवाद और वाद-विवाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आवश्यक तत्व हैं."
अंदरख़ाने की ख़बर
मोदी सोशल मीडिया प्रौपेगेंडा के मामले में चीनी सरकार के बाद शायद सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति हैं. वे मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी के चहेते हैं और मोदी भी उनसे अच्छे से जुड़ पाते हैं.उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान सभी तरह के तंत्रों का इस्तेमाल किया क्योंकि उस वक़्त उन्हें इसकी ज़रूरत थी लेकिन अब वे इस पर सोच रहे हैं.वे एक कुशल वक्ता हैं और अपने श्रोताओं तक मीडिया के बग़ैर सीधे पहुंच सकते हैं. यह उनको उन दूसरे नेताओं से अलग करता है जिन्हें मीडिया की ख़ास ज़रूरत पड़ती है. सरकार के अंदरख़ाने में क्या चल रहा है यह जानने के लिए पत्रकारों को उनके इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों से बात करने की ज़रूरत पड़ेगी. यह आसान नहीं होगा.
संजय तिवारी,अध्यक्ष भारत संस्कृति न्यास, नई दिल्ली |
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