संस्कृत का एकं हिन्दी में एक हुआ,अरबी व ग्रीक में बदल कर ‘वन‘ हुआ। शून्य अरबी में सिफर हुआ,ग्रीक में जीफर और अंग्रेजी में जीरो हो गया। इ...

संस्कृत का एकं हिन्दी में एक हुआ,अरबी व ग्रीक में बदल कर ‘वन‘ हुआ। शून्य अरबी में सिफर हुआ,ग्रीक में जीफर और अंग्रेजी में जीरो हो गया। इस प्रकार भारतीय अंक दुनिया में छाये।अंक गणित अंकों का क्रम से विवेचन यजुर्वेद में मिलता है
"सविता प्रथमेऽहन्नग्नि र्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदिचतुर्थे चन्द्रमा: पञ्चमऽऋतु:षष्ठे मरूत: सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे।
नवमे वरुणो दशमंऽइन्द्र एकादशे विश्वेदेवा द्वादशे। (यजुर्वेद-३९-६)।
इसमें विशेषता है अंक एक से बारह तक क्रम से दिए हैं। गणना की दृष्टि से प्राचीन ग्रीकों को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या मीरीयड थी,जिसका माप १०४ यानी १०,००० था। रोमनों को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या मिली थी, जिसकी माप १०३ यानी १००० थी। जबकि भारतवर्ष में कई प्रकार की गणनाएं प्रचलित थीं। गणना की ये पद्धतियां स्वतंत्र थीं तथा वैदिक, जैन, बौद्ध ग्रंथों में वर्णित इन पद्धतियों के कुछ अंकों में नाम की समानता थी परन्तु उनकी संख्या राशि में अन्तर आता था। प्रथम दशगुणोत्तर संख्या अर्थात् बाद वाली संख्या पहले से दस गुना अधिक। इस संदर्भ में यजुर्वेद संहिता के १७वें अध्याय के दूसरे मंत्र में उल्लेख आता है। जिसका क्रम निम्नानुसार है
"सविता प्रथमेऽहन्नग्नि र्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदिचतुर्थे चन्द्रमा: पञ्चमऽऋतु:षष्ठे मरूत: सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे।
एक,दस,शत,सहस्र,अयुक्त,नियुक्त,प्रयुक्त,अर्बुद्ध, न्यर्बुद्र,समुद्र,मध्य,अन्त और परार्ध। इस प्रकार परार्ध का मान हुआ १०१२ यानी दस खरब।
द्वितीय शतगुणोत्तर संख्या अर्थात् बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से सौ गुना अधिक। इस संदर्भ में ईसा पूर्व पहली शताब्दी के ‘ललित विस्तर‘ नामक बौद्ध ग्रंथ में गणितज्ञ अर्जुन और बोधिसत्व का वार्तालाप है,जिसमें वह पूछता है कि एक कोटि के बाद की संख्या कौन सी है?
इसके उत्तर में बोधिसत्व कोटि यानी १०७ के आगे की शतगुणोत्तर संख्या का वर्णन करते हैं। १०० कोटि,अयुत,नियुत,कंकर,विवर,क्षोम्य,निवाह,उत्संग,बहुल,नागबल,तितिलम्ब,व्यवस्थान,प्रज्ञप्ति,हेतुशील,करहू,हेत्विन्द्रिय,समाप्तलम्भ,गणनागति,निखध,मुद्राबाल,सर्वबल,विषज्ञागति,सर्वज्ञ,विभुतंगमा, और तल्लक्षणा।
अर्थात् तल्लक्षणा का मान है १०५३ यानी एक के ऊपर ५३ शून्य के बराबर का अंक। तृतीय कोटि गुणोत्तर संख्या कात्यायन के पाली व्याकरण के सूत्र ५१,५२ में कोटि गुणोत्तर संख्या का उल्लेख है। अर्थात् बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से करोड़ गुना अधिक। इस संदर्भ में जैन ग्रंथ ‘अनुयोगद्वार‘ में वर्णन आता है।
यह संख्या निम्न प्रकार है कोटि कोटि,पकोटी, कोट्यपकोटि,नहुत,निन्नहुत,अक्खोभिनि,बिन्दु, अब्बुद,निरष्बुद,अहह,अबब,अतत,सोगन्धिक, उप्पल कुमुद,पुण्डरीक,पदुम,कथान,महाकथान और असंख्येय।
असंख्येय का मान है १०१४० यानी एक के ऊपर १४० शून्य वाली संख्या। उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में अंक विद्या कितनी विकसित थी,जबकि विश्व १०,००० से अधिक संख्या नहीं जानता था। उपर्युक्त संदर्भ विभूति भूषण दत्त और अवधेश नारायण सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दू गणित शास्त्र का इतिहास‘ में विस्तार के साथ दिए गए हैं।
आगे चलकर देश में आर्यभट्ट,भास्कराचार्य,श्रीधर आदि अनेक गणितज्ञ हुए। उनमें भास्कराचार्य ने ११५० ई. में ‘सिद्धान्त शिरोमणि‘ नामक ग्रंथ लिखा। इस महान ग्रंथ के चार भाग हैं।
(१) लीलावती
(२) बीज गणित
(३) गोलाध्याय
(४) ग्रह गणित।
श्री गुणाकर मुले अपनी पुस्तक ‘भास्कराचार्य‘ में लिखते हैं कि भास्कराचार्य ने गणित के मूल आठ कार्य माने हैं
(१) संकलन (जोड़)
(२) व्यवकलन (घटाना)
(३) गुणन (गुणा करना)
(४) भाग (भाग करना)
(५) वर्ग (वर्ग करना)
(६) वर्ग मूल (वर्ग मूल निकालना)
(७) घन (घन करना)
(८) घन मूल (घन मूल निकालना)।
ये सभी गणितीय क्रियाएं हजारों वर्षों से देश में प्रचलित रहीं। लेकिन भास्कराचार्य लीलावती को एक अदभुत
बात बताते हैं कि ‘इन सभी परिक्रमों के मूल में दो ही मूल परिकर्म हैं- वृद्धि और वृद्धि है, घटाना ह्रास है। इन्हीं दो मूल क्रियाओं में संपूर्ण गणित शास्त्र व्याप्त है।‘
आजकल कम्प्यूटर द्वारा बड़ी से बड़ी और कठिन गणनाओं का उत्तर थोड़े से समय में मिल जाता है। इसमें सारी गणना वृद्धि और ह्रास के दो चिन्ह (अ,-) द्वारा होती है। इन्हें विद्युत संकेतों में बदल दिया जाता है। फिर सीधा प्रवाह जोड़ने के लिए,उल्टा प्रवाह घटाने के लिए। इसके द्वारा विद्युत गति से गणना होती है। आजकल गणित एक शुष्क विषय माना जाता है। पर भास्कराचार्य का ग्रंथ ‘लीलावती‘ गणित को भी आनंद के साथ मनोरंजन,जिज्ञासा आदि का सम्मिश्रण करते हुए कैसे पढ़ाया जा सकता है, इसका नमूना है।
लीलावती का एक उदाहरण देखें
‘निर्मल कमलों के एक समूह के तृतीयांश,पंचमांश तथा षष्ठमांश से क्रमश: शिव,विष्णु और सूर्य की पूजा की,चतुर्थांश से पार्वती की और शेष छ: कमलों से गुरु चरणों की पूजा की गई।
अय बाले लीलावती,शीघ्र बता कि उस कमल समूह में कुल कितने फूल थे?‘
उत्तर-१२० कमल के फूल।
वर्ग और घन को समझाते हुए भास्कराचार्य कहते हैं
‘अये बाले,लीलावती,वर्गाकार क्षेत्र और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है। दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है और बारह कोष्ठों और समान भुजाओं वाला ठोस भी घन है।‘
‘मूल‘ शब्द संस्कृत में पेड़ या पौधे की जड़ के अर्थ में या व्यापक रूप में किसी वस्तु के कारण, उद्गम अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए प्राचीन गणित में वर्ग मूल का अर्थ था ‘वर्ग का कारण या उद्गम अर्थात् वर्ग एक भुजा‘।
इसी प्रकार घनमूल का अर्थ भी समझा जा सकता है।
वर्ग तथा घनमूल निकालने की अनेक विधियां प्रचलित थीं।इसी प्रकार भास्कराचार्य त्रैराशिक का भी उल्लेख करते हैं। इसमें तीन राशियों का समावेश रहता है। अत: इसे त्रैराशिक कहते हैं। जैसे यदि प्र (प्रमाण) में फ (फल) मिलता है तो इ (इच्छा) में क्या मिलेगा?
त्रैराशिक प्रश्नों में फल राशि को इच्छा राशि से गुणा करना चाहिए और प्राप्त गुणनफल को प्रमाण राशि से भाग देना चाहिए। इस प्रकार भाग करने से जो परिणाम मिलेगा वही इच्छा फल है। आज से दो हजार वर्ष पूर्व त्रैराशिक नियम का भारत में आविष्कार हुआ। अरब देशों में यह नियम आठवीं शताब्दी में पहुंचा। अरबी गणितज्ञों ने त्रैराशिक को ‘फी राशिकात अल्-हिन्द‘ नाम दिया। बाद में यह यूरोप में फैला जहां इसे गोल्डन रूल की उपाधि दी गई। प्राचीन गणितज्ञों को न केवल त्रैराशिक अपितु पंचराशिक,सप्तराशिक व नवराशिक तक का ज्ञान था।बीज गणित-बीज गणित की उत्पत्ति का केन्द्र भी भारत ही रहा है। इसे अव्यक्त गणित या बीज गणित कहा जाता था। अरबी विद्वान मूसा अल खवारिज्मी ने नौवी सदी में भारत आकर यह विद्या सीखी और एक पुस्तक ‘अलीजेब ओयल मुकाबिला‘ लिखी। वहां से यह ज्ञान यूरोप पहुंचा। भारत वर्ष में पूर्व काल में आपस्तम्ब,बोधायन, कात्यायन तथा बाद में व्रह्मगुप्त,भास्कराचार्य आदि गणितज्ञों ने इस पर काम किया।
भास्कराचार्य कहते हैं, "बीज गणित का अर्थ है अव्यक्त गणित,इस अव्यक्त बीज का आदिकारण होता है, व्यक्त। इसलिए सबसे पहले ‘लीलावती‘ में इस व्यक्त गणित अंकगणित का चर्चा की। बीजगणित में भास्कराचार्य शून्य और अनंत की चर्चा करते हैं।
वधा दौ वियत् खं खेनधाते,खहारो भवेत् खेन भक्तश्च राशि:।
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