कैसे राष्ट्रवाद इस्लाम के संकट का समाधान कर सकता है ?



27 मई, 2017 को पेरिस के एक जर्नल में श्री सोहराब अहमदी का संपादकीय आलेख प्रकाशित हुआ ! शीर्षक था - कैसे राष्ट्रवाद इस्लाम के संकट का समाधान कर सकता है ?

यह आलेख यूरोपीय पृष्ठभूमि में लिखा गया था, किन्तु यदि हम इसे भारतीय पृष्ठभूमि में पढ़ें तो लगता है कि आलेख भारत के विषय में ही है ! बस यूरोप के स्थान पर भारत करते जाएँ और पढ़ते जाएँ ! 

दशकों तक, पश्चिम ने स्वयं को दक्षिणपंथी उदार नियमों का अधिष्ठाता माना है । भले ही उनके अलग अलग राष्ट्र और सीमाएं थीं, किन्तु वे तेजी से टूट रही थीं | उनका मानना था कि चूंकि उनके यहाँ सभी के अधिकार समान हैं, अतः उनका साम्राज्य जल्द पूरी पृथ्वी पर स्थापित हो जाएगा, जिसमें मुसलमानों सहित सभी लोग अपनी विशिष्ट पहचान खोकर सम्मिलित होंगे । लेकिन ऐसा हुआ नहीं | इंग्लेंड के मैनचेस्टर में किशोरों के एक कॉन्सर्ट में जो नवीनतम जिहादी हमला हुआ, वह यही दर्शाता है । 

अहमदी ने बार बार फ्रांसीसी दार्शनिक पियरे मैनेंट के विचारों का अपने ढंग से उल्लेख किया ! 68 वर्षीय श्री मैनेंट, पेरिस के प्रतिष्ठित स्कूल फॉर एडवांस्ड सोशल स्टडीज में वर्षों से रेमंड आर्न सेंटर फॉर पॉलिटिकल रिसर्च के साथ जुडे रहे हैं | आर्न ने शीत युद्ध के दौरान सोवियत आतंकवाद की निंदा की थी, और मार्क्सवाद से प्रभावित अधिकाँश फ्रेंच विचारकों को “बौद्धिक अफीमची” घोषित किया था ।
यद्यपि श्री मैनेंट अब शिक्षण से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, किन्तु अभी भी वे लिखते भी हैं तथा यूरोप में स्थान स्थान पर व्याख्यान भी देते हैं | उनके व्याख्यान का विषय मुख्यतः वैश्वीकरण के दौर में राजनीतिक स्वतंत्रता, उदारवाद तथा इस्लाम ही होता है । उनके विचारों की पश्चिम में व्यापक स्वीकार्यता है |

मैं उक्त आलेख में ही व्यक्त उन्हीं पियरे मैनेंट के कुछ विचार मित्रों से साझा कर रहा हूँ -

"हमारी सबसे बड़ी समस्या है इस्लाम - जिससे न तो वैश्विक, न ही व्यक्तिवादी, और न ही मानव अधिकारों के दायरे से निबटा जा सकता ।"
श्री मैनेंट अपनी पुस्तक "हाउस ऑफ़ सबमिशन" में लिखते हैं कि इस्लाम ने राजनैतिक भूगोल पर आक्रमण कर दुनिया को विभाजित कर दिया है | मुस्लिमों का मानना है कि जहाँ उनका समुदाय नहीं है, वह युद्ध क्षेत्र है । लेकिन मुस्लिमों और पश्चिम के लिए परेशानी का सबब यह है कि 1 9 24 में तुर्क साम्राज्य के बाद से इस्लाम "एक सम्राट विहीन साम्राज्य रहा है।"

पश्चिम के पेशेवर वर्गों का मानना है कि राजनीतिक सीमाएं अनावश्यक हैं । उनका मानना है कि हम ग्रह पर कहीं भी जाने और काम करने की स्वतंत्रता होना चाहिए । वे दुनिया का नागरिक बनना चाहते हैं । लेकिन श्री मैनेंट का विचार इसके विपरीत है, उनका मानना है कि अभी जबकि दुनिया पूरी तरह विकसित नहीं हुई है, यह रवैया असंतोष और समस्याएं ही पैदा करेगा । यही कारण हैं कि आज की 21 वीं सदी में भी केंद्रीय यूरोप के छोटे छोटे कमजोर देशों ने भी अंतर्राष्ट्रीय उदारवाद के खिलाफ सबसे अधिक प्रतिक्रिया व्यक्त की है। हंगरी का डर है कि कहीं बहुसांस्कृतिक दबाव के सामने वह गायब ही न हो जाए ।
साथ ही अंतर्राष्ट्रीयवाद में एक बड़ा पेच भी है: यह सर्वव्यापी नहीं है। जब इस्लामी देश यूरोप की ओर देखते हैं, तो वे उसे प्रक्रियात्मक मानदंडों, व्यापार संबंधों और बहुलता युक्त जीवन शैली के संघ के रूप में नहीं देखते । वे उसे विशिष्ट राष्ट्र-राज्यों के संग्रह के रूप में देखते हैं, और सबसे अधिक महत्वपूर्ण, वे क्रॉस को देखते हैं |

आतंकवादी हमलों की जिम्मेदारी लेने वाला “इस्लामिक स्टेट” यह दावा करना कभी नहीं भूलता कि "खलीफा के सैनिकों" ने यूरोप के इस या उस राष्ट्र को लक्षित किया, जहाँ "क्रॉस का बैनर” है।" इस तरह के बयानों पर धर्मनिरपेक्ष यूरोपीय प्रतिक्रिया देते हैं कि शायद उनका सोचना यह है कि अमेरिकियों ने इराक में हस्तक्षेप किया | लेकिन हम फ्रेंच धर्म योद्धा नहीं हैं!"
पश्चिम ने आस्था को सदैव व्यक्तिगत माना है, जिसमें आस्तिक, अपने अंतर्मन की गहराईयों से सर्वशक्तिमान से जुड़ता है, लेकिन इस्लाम के अनुयायियों के लिए, ईसाई धर्म को मानने वाले आम जन भी राजनीतिक प्रतिद्वंदी हैं |

मानेंट का मानना है कि "वर्तमान परिस्थितियों में, यूरोप और मुस्लिम दुनिया के बीच तनाव कम करने का एक ही मार्ग है, और वह यह कि ईसाई यह स्वीकार कर लें कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका धर्म मानने या न मानने का समान अधिकार है । दूसरे शब्दों में, यदि पश्चिमी देशों ने उन्हें वे जैसे हैं, बैसे ही स्वीकार कर लिया, तो मुस्लिम विश्व अधिक आसानी से पश्चिमी देशों के साथ आ जाएगा।
अब यूरोपीय संघ द्वारा तुर्की का अधिग्रहण किये जाने की घटना को ही लें, दशकों से यूरोपीय नेता अंकारा को स्वीकार करने की अपनी अनिच्छा को सही ठहराते आये हैं । तो इसका अर्थ यह हुआ कि यह विशुद्ध रूप से "अधिकार" का मामला था, तब तो फिर अंकारा की यह मांग कि उसे यथाशीघ्र प्रवेश दिया जाए, सही ही है । लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि "यूरोप" एक सांस्कृतिक और राजनीतिक समुदाय भी है, जबकि तुर्की एक बडा सुन्नी मुस्लिम राष्ट्र है। इस अंतर को समझकर ही पश्चिम पारस्परिक शर्तों को स्पष्ट कर सकता है और तनाव कम कर सकता है।

हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि जो मुसलमान हमारे बीच में हैं, वे मुसलमान ही रहेंगे। अतः पश्चिम को चाहिए कि वह कुछ ऐसा करे जिससे गैर मुस्लिम वातावरण में भी मुसलमान खुश रहकर काम कर सकें।
बुनियादी बात यह है कि हम मुसलमानों को स्वीकार करते हैं, लेकिन उन्हें भी हमें स्वीकार करना होगा । उन्हें बुरका पहनना है तो पहनने दो ना, वे सूअर का मांस नहीं खाते, तो जबरन स्कूल लंच में न दो ना । मुसलमानों को हमेशा संदेह की नजर से नहीं देखना चाहिए।'
लेकिन साथ ही फ्रांस भी बदले में फ्रांसीसी मुसलमानों से कह सकता है कि आप फ्रांस के हैं और आपने अपनी जिन्दगी इस यूरोपीय देश में बिताने का निर्णय स्वयं लिया है, तो एक बात साफ़ तौर पर समझ लें कि फ्रांस कभी भी एक मुस्लिम देश नहीं बन सकता । 

लेकिन जो सबसे बड़ी कठिनाई है, वह है अलगाव की व्यापक भावना, वह भी विशेषकर युवा मुसलमानों में जो कि महज "पेपर फ्रांसीसी" हैं - राजनीतिक लगाव के बिना नागरिक। ऐसी स्थिति में व्यवहारिक यह है कि सरकार का जोर इस बात पर हो कि मस्जिद और अन्य सांस्कृतिक संगठन, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया और अन्य विदेशी मुस्लिम राष्ट्रों से अपने संबंध कम करें, और इसके स्थान पर स्वदेशी फ्रेंच इस्लाम को सक्रिय रूप से बढ़ावा दें ।
लेकिन इस विचार के सबसे बड़े विरोधी वामपंथी हैं, जो इसे भेदभावपूर्ण बताते हैं, जबकि दक्षिणपंथियों की नजर में यह एक सर्वोत्तम विचार है । बहुतों को लगता है कि अब बहुत देर हो चुकी है, कुछ नहीं हो सकता, लेकिन मानेंट आशावादी हैं और मानते हैं कि राजनीतिक स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद का संयोजन स्थिति को सुधार सकता है।
राष्ट्र के विचार को कमजोर करने का अर्थ है, राष्ट्र की मौत, जो कोई नहीं चाहता ।
साभार आधार - https://www.wsj.com/…/how-nationalism-can-solve-the-crisis-…

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