भारत में अल्ला का इस्लाम या मुल्ला का इस्लाम - दिवाकर शर्मा

भारत में फतवों का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है ! भारत जैसे देश में फतवों के बीच सुराज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ! मुस्लिम कट्टरपंथियों के द्वारा जारी किये जा रहे इन फतवों को देख कर एक विचार मन में आता है कि कहीं इन फतवों की आड़ में भारत के तालिबानीकरण की साजिश तो नहीं रची जा रही ? इन फतवों के विरुद्ध भारत के मुसलमानों की चुप्पी पर भी प्रश्नचिन्ह उठते है, दरअसल उनकी चुप्पी भयभीत करने वाली है ! एक के बाद एक फतवों के आने से प्रख्यात पाकिस्तानी पत्रकार-लेखक-विचारक तारिक फतह का वह उर्दू चैनल को दिया इंटरव्यू याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘भारत में ‘अल्ला का इस्लाम’ नहीं, ‘मुल्ला का इस्लाम’ चलाया जा रहा है जिसका मजहब से कोई वास्ता ही नहीं है !’’ वास्ता है सिर्फ वास्ते की राजनीति से !

अकारण और बात-बात पर बेहूदे फतवे जारी करने वालों से समूचे इस्लाम की छवि प्रभावित हो रही है किन्तु फतवों के इस दौर में किसी भी भारतीय मुसलमान के द्वारा इन फतवों का विरोध नहीं किया जाता  ! लगता है कि भारत के मुस्लिम समाज में इन फतवों को लेकर मुल्लाओं की दहशत है जिस कारण से भारत के मुसलमान इन फतवों को जारी करने वालों के विरुद्ध खड़े होने की हिम्मत नहीं कर पाते है ! 

हमारे देश का एक दुर्भाग्य यह भी है कि हमारे राजनैतिक दल हिन्दुओं के अपमान पर अपना मूंह नहीं खोलते है ! राजनैतिक दलों को वोटों की चिंता ने अपंग सा बना दिया है ! इसका एक कारण यह भी है कि हिन्दू समाज में एकजुटता नहीं है ! नेताओं की नजर में हिन्दू समाज का अपना कोई वोट बैंक नहीं है अतः आज हिन्दुओं के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है कि वह अपने हितों की रक्षा करने के लिये राजनैतिक ऐकता जुटायें और ऐक संगठित वोट बैंक कायम करें ! हिन्दुओं के संगठित न होने के कारण ही एम एफ हुसैन जैसा सिरफिरा पेंटर हिन्दू आस्थाओं का उपहास करता रहा और भारत सरकार इस बात को व्यक्तिगत अधिकार मान कर उसे सम्मानित करती रही ! सोचिये यदि हिन्दू समाज उस समय संगठित होता तो क्या हुसैन जैसे लोग इसी देश में रहकर हमारे सम्मान की दुर्गति करने का साहस कर सकते थे ? क्या कोई सोच सकता है कि कोई मुहम्मद साहब का अपमान किसी मुस्लिम देश में करे और वहाँ की सरकार और न्यायपालिका चुप रहै ? 

हमारे देश के कानून में धर्म के प्रचार की छूट है, अधिकार है, पर धर्म के नाम पर, साम्प्रदायिकता के आधार पर वोट लेने या मांगने की नहीं ! किन्तु वास्तविकता यह है कि साम्प्रदायिकता से कोई भी राजनैतिक दल शुद्ध रूप से परे नहीं है ! कितने भी ऊंचे आदर्शों वाली पार्टी हो, हर निर्वाचन क्षेत्र के लिए प्रत्याशी चुनने का मापदंड सम्प्रदाय व जाति ही होती है ! अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिये किसी-न-किसी धर्मगुरु से फतवे एवं अपील जारी करवाने का प्रचलन-सा चल पड़ा है | देश के विभाजन का जो आधार रहा, वह विभाजन के साथ समाप्त नहीं हुआ अपितु अदृश्य रूप में विभाजन का यह विकृत स्वरुप करोड़ों दिमागों में घुस गया ! इसलिए ऐसे दिमाग नये-नये फतवे गढक़र साम्प्रदायिकता का जहर समाज में उलीच रहे हैं, एक और विभाजन के ताने बाने बुन रहे हैं | या यूं कहें कि गृहयुद्ध का षडयंत्र रच रहे हैं |

ऐसे दिमाग नये-नये नारे गढक़र साम्प्रदायिकता और जाति के आधार पर राजनीति चला रहे हैं ! न नेता इनको छोड़ पाये हैं, न मतदाता समझ पाये हैं ! भारत में इन्ही फतवों की आड़ में कट्टरपंथियों द्वारा मुसलमानों को भड़काने का कार्य तेजी से किया जा रहा है ! इसी कारण कभी कश्मीर, कभी कैराना, कभी मालदा तो कभी धुलागढ़ जैसे हादसे रोज देखने को मिल रहे है ! यदि इस तरह के असहिष्णु तथा कट्टरपंथी तत्वों को भारत में पनपने दिया गया तो यह भारत और दुनिया के लिए खतरनाक साबित होगा !

भारत में फतवे जारी करने वाले कट्टरपंथी क्या उन माता-पिता के विरुद्ध फतवा जारी करते है जो अपने बच्चों को विद्यालय भेजने से बचते है ? क्योँ इनके फतवे परिवार नियोजन के पक्ष में नहीं आते ? फतवे उन मुसलमानों के विरुद्ध जारी नहीं होते जो कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन आईएसआई के प्रति नरम रवैया अपनाते हैं ? यह भी सोचने का विषय है कि क्यों फतवे औरतों के खिलाफ ही ज्यादा से ज्यादा जारी होते हैं ? आश्चर्य तब होता है जब कॉनवेन्ट स्कूलों और सरस्वती शिशु मंदिरों में पढ़ने वाले बच्चों और ‘को-एजुकेशन’ शिक्षा संस्थानों में पढ़ने वाली मुस्लिम बालिकाओं के माता-पिता के समाज से बहिष्कार और कब्रिस्तान में जगह न देने तक के फतवे देने वाले मुल्ला उन बड़े मुस्लिम अधिकारियों, जजों, वकीलों, डॉक्टरों और सांसदों के खिलाफ फतवा नहीं जारी करते जो आपने बच्चों को कभी मदरसों में नहीं भेजते, लड़के-लड़कियों को नामी-गिरामी कान्वेंट और ‘को-एजुकेशनल’ स्कूल-कॉलेजों और आवासीय विद्यालयों में पढ़ाते हैं ! यदि वे अंग्रेजी और ‘को-एजुकेशन’ में अपने बच्चों को पढ़ा कर भी ‘सच्चे मुस्लमान’ बने रह सकते हैं, तो मुल्लाओं का फतवा क्या केवल ‘गरीब और कमजोर’ मुसलमानों के लिए ही है ?

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें