सर्वश्रेष्ठ आप्रवासी - हिन्दू - तथागत रॉय



[मैंने इस ब्लॉग को काफी समय पूर्व लिखा था, और एक ब्लोगिंग साईट पर पोस्ट किया था | किन्तु इसे और मेरे सभी ब्लॉग को वहां से हटा दिया गया | मुझे हैरत भी हुई, दुःख भी और क्षोभ भी, किन्तु मैं क्या कर सकता था | किन्तु अभी कुछ दिन पूर्व चमत्कारिक रूप से मुझे यह ब्लॉग मेरे फेसबुक पेज पर मिला | यह कैसे आया था – यह मुझसे मत पूछो]

मैं आजकल अपनी बेटी के परिवार से मिलने के लिए निजी यात्रा पर अमरीका आया हुआ हूं, और इसके पूर्व एक पुराने मित्र से मिलने के लिए कुछ दिनों तक कनाडा भी रहा । 2007 में इसी तरह की यात्रा पर मैं स्विट्जरलैंड आया था और साथ ही ऑस्ट्रिया, जर्मनी और बेल्जियम का भी दौरा किया था। 2006 में मैं यूनाइटेड किंगडम का दौरा किया। इस पहली दुनिया में हर बार, हर जगह, एक विशेष बात आपका ध्यान आकृष्ट करती है: वृद्ध पुरुषों और महिलाओं की बड़ी तादाद | 1 9 40 के दशक के मध्य या अंत में पैदा हुए बच्चे अब साठ वर्ष की आयु को पार कर चुके हैं, वे यातो रिटायर हो चुके हैं, या रिटायर होने के नजदीक हैं | पीढी बदल रही है, किन्तु कई देशों द्वारा प्रोत्साहनों के बावजूद, नौजवानों की नई पीढी के पास पर्याप्त बच्चे नहीं हैं | परिणामस्वरूप औसत आयु बढ़ रही है | हालत यह हो गई है कि अब ऐसे प्रत्येक देश को आर्थिक और तकनीकी गतिशीलता हेतु. युवा पुरुषों और महिलाओं की आवश्यकता है, और सशस्त्र बलों को भी भरना है। नतीजतन, प्रत्येक ऐसे देश को आप्रवासियों की आवश्यकता का सामना करना पड़ रहा है।

किन्तु अब कोई देश ऐसा नहीं करना चाहता, क्योंकि आप्रवासियों का मतलब है परेशानी । आप्रवासी ही आप्रवासियों को आत्मसात नहीं करते, वे उन्हें छठी उंगली मानते हैं | आप्रवासी प्रथक बस्तियों में रहते हैं | वे उस देश की संस्कृति में रचने पचने का प्रयत्न नहीं करते | मूल भूमिपुत्रों के साथ झगड़ते हैं | फिर भी आप्रवासियों की आवश्यकता रहती है। इसलिए प्रश्न उठता है कि सबसे अच्छा आप्रवासी कौन ?

औरों की तुलना में दुनिया के कुछ देशों ने अधिक आप्रवासियों को भेजा है | इनमें से, पश्चिमी यूरोपीय देशों और इज़राइल को आज आप्रवासियों की गिनती से बाहर रखा जा सकता है । क्योंकि अंग्रेज, स्कॉट्स, आयरिश, जर्मन, फ्रांसीसी, डच, इटालियन, स्वीडन, यहूदी आदि पश्चिमी यूरोपियन और यहूदी ही तो हैं, जिन्होंने अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका को समृद्ध बनाया और अब अपने ही देश में समृद्ध हो रहे है, ये अब खुद भी जनशक्ति की कमी का सामना कर रहे हैं | ये अब अप्रवासी नहीं होने वाले । ठीक यही स्थिति स्पेनिश और लैटिन अमेरिका के पुर्तगालियों की है | अरब तो स्वयं ही तेल-समृद्ध देश हैं, अतः उनके अप्रवासी बनने का सवाल ही नहीं । तो कौन अपना देश छोड़कर अप्रवासी बनेगा?

यह निम्नलिखित समूहों में से ही होंगे :

(1) अपेक्षाकृत कम समृद्ध पूर्वी और दक्षिणी यूरोपीय देश, विशेष रूप से गैर यूरोपीय संघ के देश : बेलारूस, अल्बानियन, बल्गेरियाई, मोल्दोवियन, बोस्नियन, तुर्क
(2) गैर-तेल उत्पादक अरब देश, जैसे फिलीस्तीन, सीरिया, लेबनान, मिस्र
(3) ईसाई अफ्रीकी, उदाहरण केन्या, दक्षिणी नाइजीरिया, घाना
(4) मुस्लिम अफ़्रीकी, उदाहरण मोरक्को, सूडान, सोमालीया
(5) अफ्रीकी मूल के लोग, ज्यादातर विकासशील देशों के ईसाई, उदाहरण – केरेबियन
(6) दक्षिण एशियाई, मुख्यतः भारतीय, हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध
(7) दक्षिण एशियाई मुसलमान, मुख्य रूप से पाकिस्तानी, भारतीय और बांग्लादेशी।
(8) दक्षिण-पूर्व एशियाई विकासशील देश जैसे - कंबोडिया, वियतनाम, फिलीपींस, म्यामार
(9) चीनी

आईये अब हम इन श्रेणियों की एक-एक करके जांच करते हैं | इस परीक्षण में, यह स्मरण रखना चाहिए कि धारणा भी तथ्य के समान बड़ी भूमिका निभाती है। लेकिन, यह भी याद रखना जरूरी है कि यह धारणा तथ्य का सबसे छोटा भाग है, यह सम्पूर्ण तथ्य नहीं है।

श्रेणी 1, पूर्वी और दक्षिणी यूरोपीय यानी, यूरोपीय संघ के देशों के लोगों का पश्चिमी यूरोप के अत्यधिक विकसित अर्थव्यवस्थाओं में स्वागत किया जाता हैं, तथा उन्हें अन्य प्रवासियों की तुलना में रोजगार में प्राथमिकता मिलती है । इसलिए उन्हें कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं होती | हालांकि, यह अनिश्चित है कि यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की जनशक्ति आवश्यकता केवल पूर्वी और दक्षिणी यूरोपियों द्वारा पूरी हो सकती है या नहीं। तो उन्हें और अधिक आप्रवासियों की आवश्यकता होगी – इसी प्रकार उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को भी। इसके बाद नंबर आता है गैर यूरोपीय संघ के यूरोपीय देशों के नागरिकों का, जिनका स्वागत इन देशों में किया जाएगा | भले ही वे इसे स्वीकार न करें किन्तु इसमें मुख्य भूमिका उनके त्वचा के सफ़ेद रंग की होगी | लेकिन इसमें भी दो प्रमुख समस्याएं रहेंगी: सबसे पहली यह कि वे अंग्रेजी, फ्रेंच या जर्मन नहीं बोल पाते; और दूसरी यह कि वे शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं ।

श्रेणी 2, इसमें गैर-तेल उत्पादक अरब देश आते है, जैसे फ़िलिस्तीनी, सीरियाई, लेबनानी, मिस्र के लोग; श्रेणी 4, में मुस्लिम अफ्रीकी है, उदाहरण - मोरक्को, सूडानी, सोमाली; और श्रेणी 7, में दक्षिण एशियाई मुसलमान हैं, मुख्य रूप से पाकिस्तानी, भारतीय और बांग्लादेशी – इनका केवल तेल से अमीर अरब देशों के अलावा कहीं भी स्वागत नहीं होगा, क्योंकि वे मुसलमान हैं, और 9/11 (साथ ही लन्दन के 7/7 और मुंबई के 26/11) आज एक वास्तविकता है। मुसलमान तेजी से बढ़ते हैं, क्योंकि वे छोटे परिवारों में विश्वास नहीं करते । मुसलमान सहअस्तित्व कतई नहीं मानते, अतः कुछ समय बाद ही अलग स्कूलों की मांग करते हैं, अलग ड्रेस कोड, यहां तक ​​कि पृथक कानून भी। इसमें जेहाद के कर्तव्य को भी जोड़ लें, जो कि हर गैर-मुस्लिम के साथ युद्ध की घोषणा है – और हर मुस्लिम पर लागू होती है, जिसमें यह वायदा किया गया है कि यदि वे गैर मुस्लिम को मारेंगे तो उन्हें स्वर्ग में हूरें मिलेंगी, और इसी कारण उनका स्वागत नहीं किया जाएगा |
ये सब एक समान बिल्कुल नहीं हैं । अरब और दक्षिण एशियाई मुसलमान तेजी से सीखते हैं, उनकी उपद्रव करने की फितरत भी नहीं है, साथ ही वे अफ्रीकी मुसलमानों की तुलना में अधिक सुसंस्कृत हैं। बांग्लादेशी भी अधिकतर ज्यादा रूढ़िवादी या अपराध-प्रवण नहीं हैं, और कड़ी मेहनत करते हैं। लेकिन इसके बाद भी कुछ देशों में उनके साथ भेदभाव होंगे, और वे मुसलमानों के एक समूह पर दूसरे समूह को प्राथमिकता देंगे।

श्रेणी 3 में ईसाई अफ्रीकी है, उदाहरण केन्या, दक्षिणी नाइजीरिया, घाना, कांगो, आदि। और श्रेणी 5 में विकासशील देशों के अफ्रीकी मूल के लोग हैं, वे भी अधिकतर ईसाई हैं , उदाहरण – केरेबियन, इनके साथ धार्मिक समस्या नहीं है, लेकिन वे कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा कर रहे हैं | हालांकि ऐसा भी नहीं है कि वे हर जगह कानून और व्यवस्था में समस्याएं पैदा करते हैं, किन्तु फिर भी उनके साथ भेदभाव होता है, तो उसका मूल कारण तथ्य कम, धारणा अधिक है, जिसे हम किसी हद तक पूर्वाग्रह भी कह सकते हैं | 

श्रेणी 8 में विकासशील देशों के दक्षिण-पूर्व एशियाई आते हैं, जैसे - कंबोडियन, वियतनामी, फिलीपींस और श्रेणी 9 में चीनी हैं जो चेहरे और नस्लीय समानताओं की वजह से अक्सर समान होते हैं। इस श्रेणी के लोग पूर्व वर्णित श्रेणियां से जुड़ी समस्याओं से काफी हद तक मुक्त होते हैं – अर्थात वे नातो धार्मिक कट्टरपंथी हैं और नाही उनक कारण कानून और व्यवस्था की समस्याएं पैदा होतीं, वे स्वयं होकर उपद्रव भी नहीं करते । हालांकि कुछ शिकायत उनके खिलाफ भी आती रहती है। जैसे कि वे अच्छी तरह से आत्मसात नहीं होते - न्यूयॉर्क और कोलकाता जैसे शहरों में चाईना टाउन का होना, इसका प्रमाण है | उन पर गोपनीय और अस्पष्ट होने के आरोप भी लगते हैं | इन मामलों में कंबोडिया, वियतनामी या फिलीपींस, चीनी की तुलना में बेहतर हैं | अतः स्वाभाविक ही चीनियों की तुलना में इनका अधिक स्वागत होने की संभावना है।

आईये अब सिखों और जैनों सहित हिंदुओं की बात करें – यद्यपि बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मॉरीशस, त्रिनिडाड, गुयाना, फिजी या सुरीनाम जैसे अन्य देशों में भी हिंदू रहते हैं, किन्तु मुख्य रूप से भारत से ही प्रवासी भारतीय अन्य देशों में जाते हैं | श्रीलंका के बौद्धों को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता हैं, क्योंकि वे जातीय और धार्मिक रूप से भारत के उसी तरह करीब हैं, जैसे सिक्ख और जैन । करीब का मतलब यह नहीं है कि वे अलग नहीं हैं - लेकिन उनमें समानताएं ज्यादा हैं | क्या हिंदू धार्मिक या जातीय कट्टरपंथी हैं? बिल्कुल नहीं - वे अनिवार्य रूप से बहुलतावादी हैं और किसी भी अन्य धर्म या जातीयता के खिलाफ कोई बुरी बात नहीं करते । लेकिन इससे भी ज्यादा, वे एक दूसरे को आत्मसात करते हैं। यह सच है कि साउथॉल (लंदन का एक उपनगर) और टोरंटो में 'लिटिल इंडिया' हैं - लेकिन भारतीय वहां से बाहर जाक़र भी रहते हैं, वे बहां भी रह सकते हैं जहां ब्रिटिश और बहुसंख्यक कनाडाई रहते हैं। वे अलग-अलग क्षेत्रों, ड्रेस कोड या कानूनों की मांग कभी सपने में भी नहीं करेंगे। वे कड़ी मेहनत करते हैं और कानून का पालन करते हैं | कहीं भी हिंदू अपराधी गिरोह या 'गुप्त सोसायटी' (चीनियों के समान) की बात सुनाई नहीं देती | 

इसके साथ ही वे जहाँ बसते हैं, उन देशों को श्रेष्ठ बनाते हैं - नोबेल पुरस्कार विजेता हरगोबिंद खुराना (यूएस), सुब्रमण्यम चंद्रशेखर (अमेरिका), सर विदया नायपॉल (त्रिनिदाद और टोबैगो) और नवीनतम, वेंकटराम रामकृष्णन (यूएस) को देखें। मॉरीशस के राजनैतिक सर शिवसागर रामगुलाम, गुयाना के छेदी जगन, बॉबी जिंदल, लुइसियाना के गवर्नर (बाद में ईसाई धर्म में परिवर्तित), ब्रिटिश कोलंबिया के प्रीमियर उज्जल दोसंघ, ब्रिटिश उद्योगपति लॉर्ड स्वराज पॉल, अर्थशास्त्री भगवान मेघनाद देसाई (हालांकि एक नास्तिक, लेकिन एक हिंदूओं के समान) इस सत्य के प्रमाण हैं । शताब्दियों से आत्मसात करने की यह क्षमता हिंदुओं में जन्मजात रही है । हिन्दू चाहे बाली (इंडोनेशिया) या त्रिनिदाद का हो, मॉरीशस या फिजी का, उसने सहायता के लिए कभी नई दिल्ली की तरफ नहीं देखा। उनके लिए उनका घर डेनपासार, पोर्ट ऑफ स्पेन, पोर्ट लुइस या सुवा है |

यह सब क्या दर्शाता है? एक ही निष्कर्ष कि हिन्दू दुनिया के सबसे अच्छे आप्रवासी हैं, और प्रत्येक राष्ट्र को जिसे मेन पॉवर की आवश्यकता है, उसे इनका स्वागत करना चाहिए।

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