भारत, भारतवर्ष, भारतमाता और भारतमाता की जय – भाग 3 – (उमेश कुमार सिंह)


भारतमाता 

बंकिमचंद्र अपने गीत का प्रारंभ ‘वंदे मातरम’ से करते हैं ! बंकिम बाबू जिसे ‘वंदे मातरम्’ कहते हैं वह माता भारत माता है, वह शक्ति की प्रतीक है ! शक्ति का अर्थ आनंद की प्रतिमूर्ति है ! स्वामी विवेकानंद सन्यासी बन कर मोक्ष प्राप्त कर सकते थे, किंतु रामकृष्ण ने उन्हें नर सेवा नारायण सेवा का मंत्र दिया क्योंकि उन्हें दिखाई दे रहा था भारत का वह दृश्य जिसे प्रोफेसर राजेंद्र सिंह रज्जू भैया अपने एक साक्षात्कार में बाद में बताते हैं –“कैसी विडंबना है कि आज स्वतंत्र होने के बाद भी इसी समाज के खाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं ! कहीं अरब देश से पैसा आता है कहीं गिरे मंदिरों को फिर से बनने नहीं दिया जाता था ! कहीं वनवासी, गिरी वासी बंधुओं को ईसाई मिशनरियों द्वारा घूम रहा करके धर्मांतरित किया जा रहा है ! किसी पूजा पद्धति से हमारा बैर नहीं है किंतु; अनुभव यह है कि समाज से प्रथक होने के बाद रास्ते से भी प्रथक होना शुरू हो जाता है ! मेघालय व मिजोरम में हम भारत के अंग नहीं जैसी खतरनाक भावना घर कर रही है कभी अपना देश बहुत समृद्धि था तभी तो यहां सर्वाधिक विदेशी आक्रमण हुए ! अगर यह देश सब प्रकार से गया बीता गरीब देश होता तो कोई विदेशी हमलावर यहां क्यों आता ? गरीब के झोपड़े में डकैती नहीं पड़ती ! भारत में उत्सवों और त्योहारों की लंबी श्रंखला है जो समृद्धि के बिना संभव नहीं ! भवभूति ने अयोध्या का वर्णन नृत्य उत्सव नगरी के रूप में किया है आज भी देश दरिद्रता की सीमा पर पहुंच जाता है, विश्वभर में सामने हाथ फैलाता है भारत की अन्नपूर्णा स्वयं भूखी है !

“वसुन्धैवकुटुम्बकम” का सूत्र साहित्य एवं अन्य कला रूपों में केंद्र में रहा है, फिर भी अथर्ववेद का सूत्र ‘माता भूमिः पुत्रोsहं पृथिव्याः’ प्रत्येक व्यक्ति के सामने पृथ्वीपुत्र होने का प्रदर्शन रखता है ! इसी बात को वाल्मीकि राम के मुख से कहलवाते हैं – “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी !” अपनी जन्मभूमि के प्रति प्रेम की इसी अभिव्यक्ति से ‘राष्ट्र’ की अवधारणा ने जन्म लिया ! यजुर्वेद इसी राष्ट्र गीत के प्रति जागरूक होने का आव्हान करता है – ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः|’ स्थानीयता के आग्रहों के बावजूद भारतीय जनमानस यज्ञानुष्ठानों में ‘जम्बूदीपे, भरतखंडे, आर्यावर्तदेशंतार्गते’ कहकर अपनी भूमि के प्रति लगाव की अभिव्यक्ति कई शताब्दियों से करता आ रहा है !

१८५७ से लेकर १९०० तक आते आते ‘भारत दुर्दशा’ की पहचान भारतेंदु हरिश्चंद्र को होने लगती है ! द्विवेदी युग इसमें अपनी गाँव की मिटटी से प्रेम के साथ सर्वमंगल की कामना और राष्ट्रीय जीवन के सन्दर्भों को उठाकर राष्ट्रीयता के उभार में जिन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया, उनमे मैथलीशरण गुप्त प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी “प्रेमधन”, पं. श्रीधर पाठक आदि उल्लेखनीय है ! राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा में जहाँ स्वदेशाभिमान के साथ साथ राष्ट्र के मर्म की बहुआयामी अभिव्यक्ति हुई, वहीँ राष्ट्र्मुक्त के लिए निवृति के स्थान पर प्रवृति के पथ पर चलने का आह्वान जन-जन को आंदोलित करने लगा ! ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’, ‘वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला हो’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘वीरों का कैसा हो बसंत’ जैसे गीत राष्ट्र-जीवन को गति देते हुए नयी प्रेरणा का संचार करने लगी ! भारतीय राष्ट्रीयता के उन्मेष में बहुविध स्वर मिले है ! सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता – ‘जय स्वतंत्रिणी भारत माँ’ यूं कहकर मुकुट लगाने दो ! हमें नहीं इस भू-मंडल को माँ पर बलि-बलि जाने दो !’ इसके प्रमाण है ! भौगोलिक और राष्ट्रीय चेतना को सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से प्रथक मानना बहुत बड़ी भूल होगी ! इन सभी कवियों का संकेत साफ़ है कि हम राजनैतिक दृष्टी से ही स्वाधीन न हों, वैचारिक धरातल पर भी स्वातंत्र्य चेतन बनें ! इसलिए दिनकर को लगता है, आज भी समर शेष है –“समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा ! और नहीं तो तुझ पर पापिनी महाव्रज टूटेगा !” कश्मीर का द्विराष्ट्रवाद, दक्षिण भारत में नदियों का जल बंटवारा, बंगाल, केरल, त्रिपुरा की वामपंथी सरकारों के हिंसात्मक कृत्य, भारत को माता न मानने और उसकी संतान को सहोदर भ्राता न मानने का परिणाम है ! 

वस्तुतः आजादी की रक्षा तभी संभव है, जब हम राष्ट्रीयता के निर्धारक तत्वों की खरी पहचान ही नहीं रखें, उन्हें जीवन में आत्मसात भी करें ! गिरिजा कुमार माथुर ‘पंद्रह अगस्त’ को केवल रस्म अदायगी के रूप में ही नहीं लेते है ! इसके जरिये वे गहरी सजगता का आह्वान भी करते है, जिसकी जरूरत आज ज्यादा महसूस हो रही है –“आज जीत की रात/पहरुए सावधान रहना/खुले देश के द्वार/अचल दीपक समान रहना !’ ( भारती कि कविता ‘मुक्ति का आह्वान’ से ) ! यह सम्पूर्ण बोध माता और पुत्र का बोध है ! भारतमाता का बोध है !

भारतमाता की जय 

आज भारतवर्ष के अन्दर ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारतमाता की जय बोलना’ इन्डियन को उनके मजहब के प्रतिकूल लगता है ! जरा उसी जय का अर्थ समझने का प्रयत्न करें ! ‘जयं वैरम पश्चति दुखम सेति पराजितो उपसंतो सुखम सेति हित्वा जय पराजयम !’ अर्थात विजय बैर को उत्पन्न करती है ! पराजित पुरुष दुःख की नींद सोता है ! लेकिन जो उपशांत है, वह जय और पराजय को छोड़कर सुख की नींद सोता है ! उपशांत ही आनंदित है ! ऐसा बुद्ध का विश्वास है ! इसे बुद्ध एक घटना से समझाते है – कौशल नरेश प्रसेनजित काशी नरेश अजातशत्रु से तीन बार हार गया ! वह बहुत चिंतित रहने लगा ! उसके पास कुछ कमी न थी ! कौशल का पूरा राज्य उसके पास था ! लेकिन काशी खटकती थी ! उसके पास अपना बहुत कुछ था, किन्तु जो दूसरे के कब्जे में था, वह खटकता था ! तीसरी बार की हार ने उसके दर्प को आघात पहुँचाया ! वह सोचने लगा, “में दुग्धमुख लड़के को भी न हरा सका ! ऐसे मेरे जीवन से भी क्या होगा ?” ऐसा सोच उसने खाना-पीना छोड़ विछावन पर लेट गया ! तब भी निंद्रा नहीं, शांति नहीं ! वह विक्षिप्त हो गया ! भगवान् बोले. ‘भिक्षुओं, न जीत में सुख है, न हार में; क्यूंकि दोनों में उत्तेजना है ! उत्तेजना में शांति और सुख कहाँ ! व्यक्ति जीत कर बैर को उत्पन्न करता है और हारा हुआ सुख से सो नहीं पाता !’ लेकिन जो उपशांत है, वह जय और पराजय को छोड़ सुख की नींद सोता है ! ‘भारतमाता की जय’ का अर्थ बोध भी यही है !

अब जरा इस कथा को खोला जाए ! इस देश में इस्लाम आया ! उसके पूर्व अनेक जातियां आई ! वे सभी अजेय भारत में शान्ति टापू में आत्मसात हो गयी ! विभाजन के बाद भारत के सामने चीन और पाकिस्तान बहुत कुछ प्रसेनजित की भूमिका में दिखाई देते है ! चीन और पाकिस्तान भारत की बढती ताकत, दृण नेतृत्व के सामने व्याकुल है ! उन्होंने भारत के अन्दर रह रहे इंडियन को भड़काने का कोई भी अवसर न छोड़ने का संकल्प लिया है ! उनको धरती का स्वर्ग कश्मीर दिखाई देता है ! चीन की विस्तार और दूसरे के अधिकार को अपने में समाहित करने की बलवती इच्छा पुरानी है ! यह दोनों की आत्महत्या की नियति है ! यदि हमें अपनी भूमि के लिए मातृभूमि का बोध हो तो इसमें मजहब कहीं आड़े नहीं आता ! किन्तु आक्रमणकारी पूर्वजों के स्वप्नों में जीने वाले ‘इन्डियन’ देश को अजेय रहने देना नहीं चाहते ! 

वस्तुतः भारतवर्ष के जीवन का अर्थ ही भिन्न है ! इसे ‘भारत माता की जय’ के माध्यम से समझना होगा ! 

राम ऋषि सरभंग के आश्रम में पहुँचते है ; प्रतिज्ञा करते है, ‘निसिचर हीन करौं महि भुज उठाई प्रण कीन्ह | सकल मुनिन्ह के आश्रम जाय जाय सुख दीन्ह || निशाचरों का विनाश करना और सदवृत्तियों का पोषण करना राम का कर्तव्य था ! इसलिए जब वे किसी राक्षस, वानर का राज्य जीतते है तो उसे अपने पास नहीं रखते ! उसको अजेय भाव से जीवन की सार्थकता बोध कराते हुए उसे अथवा उसकी संतान को वहां का राजा बना देते है ! कृष्ण ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम | धर्म संस्थापनाय संभवामि युगे युगे |’ कृष्ण भी लगभग यही बात कहते है और करते है ! बंगलादेश भारत का आज के युग का उदाहरण है !

समझना चाहिए कि राम और कृष्ण दोनों अपराजेय है उनके कारण उनकी यह वत्सल मातृभूमि भी अजेय है ! इसलिए जब हम ‘भारत माता की जय’ बोलते है तो उसमें – अजेय शक्ति, शील, जागृत विवेक, अक्षय ध्येय निष्ठा और सर्वेभवन्तु सुखिनः का वीरव्रत और कर्म की अपनी अवधारणा को पक्का करते है ! ‘भारतमाता की जय’ भारती के सुतों के सामने अपनी विराटता का बोध है ! तभी तो भारत, भारतवर्ष और भारतमाता की जय होने की सार्थकता को व्यक्त करती ‘वैदिक’ प्रार्थना विश्व के शांति की कामना करते हुए कहती है –‘ॐ धौं शांतिः, अंतरिक्ष शांतिः, पृथीवी शांतिः, आपः शांतिः, ओषधयः शांतिः, वनस्पतयः शांतिः, विश्वे देवाः शांतिः, ब्रम्हा शांतिः .... (यजुर्वेद/३६१-६७) |

श्री मा.स.गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी कहते है, “सच्चा पुत्र तो कभी भी नहीं भूल सकता, और तब तक शांत भी नहीं बैठ सकता जब तक उसकी माँ की अखंड प्रतिमा पुनः स्थापित न हो जाए ! यदि विभाजन निर्णीत सत्य है तो हम उसे अनिर्णीत करने के लिए उपस्थित है ! इस संसार में वास्तव में कोई भी वस्तु निर्णीत सत्य नहीं होती ! वस्तुएं मनुष्य की इच्छानुसार निर्णीत या अनिर्णीत हुआ करती है ! मनुष्य की इच्छा अपने पवित्र और श्रेष्ठ कार्य के प्रति समर्पण के साथ फौलाद जैसी दृण बन जाती है ! .. कुछ अन्य लोग भी है जो विभाजन को यह कहकर न्याय सिद्ध करते है कि आखिर हिन्दू और मुसलमान “भाई” ही तो है ! विभाजन उनकी संपत्ति का बंटवारा मात्र है ! किन्तु क्या हमने ऐसे बच्चे कहीं सुने है, जिन्होंने अपनी माता को संयुक्त कहकर काट डाला हो ? यह कितना घोर पतन है कि मातृभूमि एक सौदे की वस्तु मात्र बन कर रह गयी है, आनंद-भोग के लिए एक स्थान मात्र किंवा केवल एक होटल के समान भोग-भूमि ! उसमे धर्म-भूमि, कर्मभूमि और पुण्यभूमि का कोई भाव नहीं रहा है ! इस जघन्य वृत्ति के कारण ही हमने माता के अंग काटकर फैंक दिए और अपने लाखों भाइयों के रक्तप्रवाह के रूप में उसका मूल्य चुकाया ! आज भी विभाजन की दुखद बात का अंत नहीं हो रहा है !” (राष्ट्र, जानकी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. १३७)

उमेश कुमार सिंह
निदेशक,साहित्य अकादमी ,भोपाल
umeshksingh58@gmail.com

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें