काश ट्रिपल तलाक पर मुस्लिम पुरुष और महिलाओं के स्वर अलग न होते : डॉ. निवेदिता शर्मा



एक बुनियादी सवाल –
जब निकाह के लिए लड़की का कुबूलनामा जरूरी होता है तो तलाक में उसके कुबूलनामे को अहमियत क्यों नहीं दी जाती?

संभवतः इसी विचार को ध्यान में रखकर सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने 3 – 2 के बहुमत से ही सही, आखिर मुस्लिम समाज की आधी आबादी को अपमान के दंश से मुक्ति तो दिलाई | काश मुस्लिम न्यायाधीश महोदय ने भी इस कुप्रथा को समाप्त करने के स्वर में अपना स्वर भी मिलाया होता, तो अधिक प्रसन्नता की बात होती । 

भारत के एतिहासिक परिदृष्‍य को यदि हम देखें तो भारतीय समाज में कई प्रकार की कुप्रथाएं आईं लेकिन समाज सुधारकों द्वारा बिना किसी कानून को बनाए इन कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया गया । सती प्रथा, बहुविवाह, दासी प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, नारी शिक्षा अन्‍य ऐसे महिलाओं से संबंधित मुद्दों के लिए राजा राममोहन राय , दयानन्‍द सरस्‍वती, ज्‍योतिबा फुले, स्‍वामी विवेकानन्‍द, महात्‍मा गांधी जैसे महापुरुषों ने आन्‍दोलन एवं जनजागरण प्रारंभ किए । किसी भी महिला ने इनकी अगुवाई नहीं की, फिर भी उसका यह परिणाम देखने को मिला कि भारतीय समाज से ये कुरीतियों समाप्‍त हो गईं। इन प्रयासों को स्‍थ‍िरता प्रदान करने के लिए हिन्‍दू मेरिज एक्‍ट, विधवा विवाह पर रोक, संपत्‍त‍ि में स्‍त्री को समानता का अधिकार जैसे कई कानून समय-समय पर बनाए गए परन्‍तु यह सभी कानून केवल उन महिलाओं तक सीमित थे जो इस भारत की जड़ों से उत्‍पन्‍न धर्म और संप्रदायों को माननेवाली थीं। 

लेकिन एक वर्ग अपने को भारतीय बाद में धार्मिक पहले मानता है, इसलिए उस धर्म की कुरीतियों जस की तस बनी हुई हैं। जैसे बुरका प्रथा, मेहर की अदायिगी, हलाला, खतना, तीन तलाक, बहुविवाह आदि । इस्‍लाम पर हिन्‍दू एक्‍ट लागू नहीं होता, मुस्‍लिम महिलाओं को कहीं न कहीं ये बात कचोटती रही कि हमें यह अधिकार कब मिलेंगे? देर से ही सही अंततः मुस्‍लिम महिलाओं ने इस दिशा में एकजुट होकर आवाज तो उठाई, जिसे केंद्र की मोदी सरकार का समर्थन भी मिला । यहाँ एक अंतर ध्यान देने योग्य है की हिन्दू समाज के पुरुषों ने महिलाओं के हित में परिवर्तन किये, किन्तु मुस्लिम महिलाओं को स्वयं अपने हक़ के लिए संघर्ष करना पड़ा |

यह भी गौर करनेवाली बात है कि उत्‍तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव ने यह दिखा दिया था कि केवल मुस्‍लिम पुरुष ही वोट बैंक नहीं हैं, अल्‍पसंख्‍यक महिलाएं भी उस वोट का आधा हिस्‍सा हैं, जो पुरुषों से अपने अलग विचार रख सकती हैं। मोदी सरकार ने कोर्ट में ट्रिपल तलाक के विरुद्ध अपना अभिमत देकर मुस्‍लिम महिलाओं में यह सोच स्‍थापित कर दी है कि वह भी अपनी आजादी की लड़ाई लड़ सकती हैं। आजादी के बाद से अब तक पिछले 70 सालों में सबसे अधिक समय तक सरकार चलानेवाली कांग्रेस पार्टी जिसने भारत के प्रधानमंत्री पद पर महिला को सुशोभित किया, जिसने पहली महिला राष्‍ट्रपति बनाई, जिसकी पार्टी की राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष आज महिला हैं, उस कांग्रेस का दुखद पक्ष यह है कि उस पार्टी ने भी महिलाओं के इतने संवेदनशील मुद्दे को अब तक महत्‍व नहीं दिया था । जबकि एक तरफ हिंदू कोड बिल में काफी सुधार किए गए और उस समाज ने भी उन्‍हें सहज स्‍वीकार किया वहीं दूसरी तरफ एक वर्ग को तुष्‍टीकरण की राजनीति का शिकार बनाते हुए उसकी कुप्रथाओं को कभी कांग्रेस ने छुआ तक नहीं।

शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक, बहुविवाह और हलाला के मुद्दे को चुनौती दी थी, लेकिन उच्‍चतम न्‍यायालय ने प्रारंभ में ही यह साफ कर दिया कि वह समय की कमी के कारण अभी फिलहाल तीन तलाक पर ही विचार करेगी, भविष्‍य में वह हलाला एवं बहुविवाह के मुद्दे पर सुनवाई करेगी। कोर्ट का यह फैसला एक जहरीले पेड़ की जड़ों में मठा डालने जैसा कार्य करेगा यह निश्‍चित है, क्‍योकि तीन तलाक से ही बहुविवाह और हलाला जैसी कुप्रथाओं को बल मिलता है, साथ ही साथ विकृत मानसिकता वाले उन पुरुषों को भी बल मिलता है जो अपनी पत्‍नि को अर्धांगिनी न समझकर केवल सम्‍पत्ति या उपभोग की वस्‍तु समझते हैं।

मुस्‍लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यह कहना कि बीबी को मौत के घाट उतारने से अच्‍छा उसे तलाक देना है। यह कहां तक उचि‍त ठहराया जा सकता है ? इससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी शत्रु को एक बार मारने से अच्‍छा है तिल तिल कर तड़पाकर मारा जाए। तलाक के बाद में महिलाओं को जो यातनाएं और कष्‍ट झेलने पड़ते हैं उसको इस्‍लाम धर्म के ठेकेदार नहीं महसूस कर सकते। 1951 में भी बम्‍बे हाईकोर्ट ने नारसू अप्‍पा माली बनाम बाम्‍बे मामले में कहा था कि मुस्‍लिम पर्सनल लॉ संविधान के अनुच्‍छेद 13 के तहत कोई कानून नहीं है, ना ही उसे यह अधिकार है कि वह सर्वोच्‍च न्‍यायालय के किसी निर्णय की समीक्षा करे। ऐसे में तीन तलाक के मु्द्दे पर सर्वोच्‍च न्‍यायालय का आया यह फैसला बहुत ही प्रासंगिक और बुनियादी अधिकारों के खिलाफ मुस्‍लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के निर्णयों में अदालती हस्‍तक्षेप को मजबूती प्रदान करता है। इस निर्णय ने राजनीतिक रूप से भारत के समान आचार संहिता की ओर जाने के‍ लिए पृष्‍ठभूमि तैयार कर दी है।

तीन तलाक को जब विश्‍व में कट्टरता के प्रतीक बन चुके पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित 22 मुस्लिम देशों ने पूरी तरह से खत्म कर दिया है, फिर वह क्‍यों उसे भारत जैसे सहिष्‍णु देश में बना रहना चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक है, इससे देश की नौ करोड़ मुस्लिम महिलाओं को सीधा लाभ मिलेगा। सीधे तौर पर और अप्रत्‍यक्ष रूप से उनके ऊपर होनेवाले अत्‍याचारों में कमी आएगी।
लेखिका,पत्रकारिता के साथ अटल बिहारी वाजपेयी हिन्‍दी वि.वि. में अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं।

(अंत में प्रख्यात लेखिका डॉ. नीलम महेंद्र के यह विचार ध्यान देने योग्य हैं - सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुना चुका है लेकिन मूल प्रश्न यह है कि क्या यह फैसला मुस्लिम पुरुषों की सोच भी बदल सकता है? जिस खुशी के साथ महिलाओं ने इस फैसले का स्वागत किया है क्या पुरुष भी उतनी ही खुशी के साथ इसे स्वीकार कर पाएंगे?
सवाल जितना पेचीदा है जवाब उतना ही सरल है कि हर पुरुष अगर इस फैसले को अपने अहं को किनारे रखकर केवल अपनी रूह से समझने की कोशिश करेगा तो इस फैसले से उसे अपनी बेटी की आग़ामी ज़िंदग़ी और अपनी बहन की मौजूदा हालत सुरक्षित होती दिखेगी और शायद दिल के किसी कोने से यह आवाज भी आए कि इंशाअलाह यह फैसला अगर अम्मी के होते आता तो आज उनके बूढ़े होते चेहरे की लकीरों की दास्ताँ शायद जुदा होती।
अगर वो इस फैसले को मजहब के ठेकेदारों की नहीं बल्कि अपनी खुद की निगाहों से, एक बेटे, एक भाई, एक पिता की नज़र से देखेगा तो जरूर इस फैसले को तहेदिल से कबूल कर पाएगा।)


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