दासता के एक हजार वर्षों में हिन्दू , लगभग ८०० वर्ष इस्लामी, तुर्क, अफगान अथवा मुग़ल शासकों के अधीन रहे ! इस काल खंड में, अत्यंत कठोर वाता...

दासता के एक हजार वर्षों में हिन्दू , लगभग ८०० वर्ष इस्लामी, तुर्क, अफगान अथवा मुग़ल शासकों के अधीन रहे ! इस काल खंड में, अत्यंत कठोर वातावरण में भी, हिन्दुओं ने अपना संघर्ष जारी रखा ! १८वी शताब्दी के अंत तक, भारत के अधिकांश भाग से उन्होंने इस्लामी राज्य हटा दिया था ! तत्पश्चात हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अंग्रेज शासकों के अधीन आ गए ! १८वी शताब्दी के बाद, हिन्दू संघर्ष मूलतः अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हो गया ! अंग्रेजी शासन के विरुद्ध, सन १८५७ का असफल विद्रोह, जिसे पहला स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है, जैसे कुछ ही हिन्दू-मुस्लिम का संयुक्त प्रयास कहा जा सकता है !
१५ अगस्त का अर्थ क्या है ?
सन १८५७ के स्वातंत्र्य समर के दौरान, सुप्रसिद्ध मुसलमान नेता सर सैय्यद अहमद खान ने अत्यंत निष्ठा से अंग्रेजों की सेवा की, जिसके लिए ब्रिटिश साम्राज्य ने उन्हें सर की उपाधि प्रदान की ! सैय्यद ने अंग्रेजों का साथ इसलिए दिया था कि, उनकी सोच में, यदि १८५७ के युद्ध में अंग्रेज हार जाते तो भारत में पुनः हिन्दू राष्ट्र ही स्थापित होता और मुसलमानों का भविष्य अंधकारमय हो जाता ! उन्होंने, इस युद्ध में बहुत से अंग्रेजों के प्राण बचाए थे, और कई प्रसिद्ध मुसलमान नेताओं और जमींदारों को अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में शामिल होने से रोका था ! इसलिए १९ वी शताब्दी के उतरार्ध से २० वी शताब्दी, (लगभग सन १८८० से सन १९४७ तक) तक अधिकाँश मुसलमानों ने अंग्रेजों का साथ दिया ! विडम्बना यह है कि हिन्दू जनमानस को यह लगा कि अंग्रेज शासन हटने के बाद कहीं पुनः दिल्ली की मुग़ल बादशाहत न कायम हो जाए ! शायद यही कारण रहा कि १८५७ का स्वातंत्र समर असफल हुआ !
खैर, जो भी हो, १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजी राज्य की समाप्ति पर, जहाँ हिन्दू नेताओं और बुद्धिजीवियों ने कहा भारत को एक हजार वर्षों की पराधीनता से मुक्ति मिली है, वहीँ मुसलमानों, जिन्हें उपहारस्वरूप पाकिस्तान की प्राप्ति हुई, ने कहा कि उन्हें तो हिन्दू प्रभुत्व से मुक्ति मिली है ! जो पाकिस्तान न जाकर भारत में रह गए, केवल उन मुसलमानों ने कहा कि उन्हें १५०-२०० वर्षों के अंग्रेजी शासन से मुक्ति मिली है !
सत्य यह है कि अंग्रेजों का भारत से जाना और खंडित भारत के प्रशासन की डोर कांग्रेसी नेताओं के हाथ में आना, मात्र सत्ता का हस्तांतरण था ! हिन्दू नेताओं ने इसे स्वतंत्रता मान कर एक महान भूल की ! इससे भी बड़ी भूल मुसलमानों द्वारा भारतीय इतिहास की व्याख्या कर निहित अर्थ समझने की है ! आज भी मुस्तिम दृष्टिकोण यह है कि अंग्रेजी राज्य से पहले लगभग ८०० वर्षों का तुर्की, मुग़ल अथवा अफगानी राज्य उनका अपना ही स्वर्ण युग था ! इस ऐतिहासिक विचार भिन्नता में ही हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के बीज पड़े है, क्यूंकि हिन्दू इन्ही ८०० वर्षों को अपना सबसे अधिक त्रासपूर्ण कालखंड मानते है ! यही वह काल था, जब उन पर हिन्दू-धर्मी होने के कारण, जजिया नामक धार्मिक कर लगाया जाता था, उनके तीर्थ स्थानों पर जाने का कर, उनके व्यापारिक सामग्री पर दुगनी-तिगुनी चुंगी और उत्पादन कर लगाया जाता था ! इनके अलावा हिन्दुओं को अपमानित करने के और भी राजकीय प्रावधान थे ! धर्म-पंथ ही नहीं बल्कि यह ऐतिहासिक तथ्य ही हिन्दू-मुस्लिम विवाद की जड़ है ! यही अलगाववादी अवधारणा थी, जिसके कारण, विभाजन से पूर्व मुसलमानों ने पाकिस्तान की मांग उठाई और उनकी वर्तमान पीढ़ी शेष हिन्दू भारत को, छल, बल और अन्य उपायों से, विजय करने को उद्यत दिखाई देती है ! यदि धर्म-पंथ ही विवाद की जड़ होते, तो सबसे पहले हिन्दू-ईसाई, हिन्दू-पारसी, हिन्दू-यहूदी आदि झगडे हुए होते ! पर ऐसा नहीं हुआ ! जब भी हुए, हिन्दू-मुस्लिम दंगे !
मुग़ल-राज्य की वापसी का अभियान
कम्युनिष्ट और नेहरूवादी ‘सेक्युलर’ दस्ते यह सब अच्छी तरह जानते थे ! सन १९४७ से ही उनका पूर्णकालिक कार्य यह था कि ब्रिटिश राज्य से पूर्व इस्लामी राज्य को स्वशासन और सुशासन के रूप में प्रस्तुत किया जाए, और मुग़ल राज्य को तो भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग साबित किया जाए ! साथ ही उनका भरसक प्रयत्न था कि इस्लामी राज्य काल में हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों को झूठा बताया जाए और हजारों हिन्दू मंदिरों को तोड़े जाने की घटनाओं के लिए तर्क दिया जाए कि यह मध्यकालीन राजनीति थी कि विजेता अपने पूर्ववर्ती शासक के धर्म स्थानों को भी नष्ट करते थे ! २० वी शताब्दी में हुए ‘महात्मा गांधी’ को राष्ट्रपिता बनाना उपरोक्त हिन्दू-विरोधी अभियान का सबसे आवश्यक अंग था ! हिन्दू-मुस्लिम विवाद सुलझाने की उनकी यही योजना थी ! नेहरूवादियों को प्रायः यह कहते सुना जा सकता है, “यदि सारे हिन्दू इस्लाम धर्म स्वीकार कर लें तो इसमें हर्ज ही क्या है ? अंततः ईश्वर एक है ! चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारो !”
एक बार एक बैठक में किसी ने जवाहर लाल नेहरु से पूछा “श्रीमान यदि सारे हिन्दू मुसलमान हो जाएँ तो आप क्या कहेंगे ?” नेहरु ने कहा, “कोई हर्ज नहीं, यदि स्वेच्छा से सब मुसलमान हो जाए !” उसी समय एक अन्य व्यक्ति पूछ बैठा. “श्रीमान यदि सब हिन्दू हो जाएँ तो ?” तत्काल उत्तर आया, “नहीं, नहीं; इससे तो भारत की विविधता नष्ट हो जायेगी !” किन्तु इससे भी मुस्लिम मानस को संतोष नहीं हुआ ! इसलिए १५ अगस्त सन १९८८ को दिल्ली के लाल किले से भाषण देते हुए तत्कालीन नेहरु-गाँधी परिवार के राजीव गांधी ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में घोषणा कि ; “हमारा प्रयत्न होना चाहिए कि हम इस देश को उस ऊंचाई तक ले जाएँ जहाँ यह २५०-३०० वर्ष पूर्व था, जिसके पूर्व विश्व के लोग, (अंग्रेज, फ्रांसीसी, पुर्तगाली आदि) भारत को ढूँढने निकले !” इतिहास के विद्यार्थी जानते है कि २५०-३०० वर्ष पूर्व भारत में मुगलवंश के क्रूर शासक ओरंगजेब का शासनकाल था ! यह जानते हुए कि भाषण का यह अंश सरासर मुगलिया व इस्लामी राज्य के पक्ष में और अधिकाँश हिन्दुओं को भड़काने वाला था, सदा से नेहरु-भक्त समाचार पत्रों ने इसे नहीं छापा ! हमने इसे अपने कानों से सुना था, सो इधर-उधर बहुत हाथ पैर मारने के बाद यह अंश, भारत सरकार के प्रचार विभाग की एक पुस्तिका “रैस्टोर इंडियाज ग्लोरी विथ स्ट्रेंग्थ” ( No. 1/24/88. pp-3) में मिला, जो अगस्त १९८८ में छपी थी !
खतरे की घंटियाँ
अल्पसंख्यक (मुसलमान-ईसाई) उन्मुख भारत का संविधान, और सभी राजनैतिक दलों की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति, राष्ट्रवादी हिन्दुओं के लिये घोर संकट की घंटियाँ जोर-जोर से बजा रही है ! किन्तु हिन्दू राष्ट्रवादी स्वयं बिखरे और भटके हुए है ! वे रो रहे है, चिल्ला रहे है, पर यह नहीं जानते कि क्या करें, कहाँ से शुरू करें ? यह समझना आवश्यक है कि हिन्दुओं के सामने आज जैसी संकट की घडी इतिहास में कभी नहीं आई ! मध्य युग में राजाओं और सुल्तानों के बीच युद्ध होते थे ! किन्तु आज हमारे सामने जो युद्ध है, वह विरोधी सभ्यताओं व जीवन मूल्यों के टकराव का है ! इसलिए बिना उद्देश्यपूर्ण अखिल भारतीय हिन्दू जनजागरण और सामूहिक प्रयत्नों के दिनों दिन बढ़ते जा रहे इस्लामी आक्रमण से पार पाना अत्यंत कठिन है, विशषकर इसलिए कि कम्युनिष्ट और ‘सेक्युलरवादी’ हिन्दू भी साम्राज्यवादी इस्लाम के संरक्षक और समर्थक है !
किन्तु, हिन्दू समाज को, सामूहिक रूप से, राष्ट्रीय ध्येय के लिए, बिना एक राष्ट्रीय संपर्क भाषा के जागृत करना असंभव है ! यह भाषा वही हो सकती है जो उच्चवर्गीय महानुभावों को ही नहीं, बल्कि आम गलियों, मोहल्लों में रहने वालों को, गगन-चुम्बी इमारतों से लेकर झुग्गी झोपडी तक में रहने वालों को जोड़ सके ! वह भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी ही हो सकती है ! परन्तु अत्यंत दुःख की बात है कि अनेक सेक्युलर दलों, जिनमे हिन्दू द्रोही भी गिने जा सकते है, ने बड़ी चतुराई से हिन्दू बुद्धिजीवियों को हिन्दू-विरोधी तथा उत्तर-दक्षिण, आर्य-द्रविण, संघर्षों में फंसा दिया है ! मजे की बात तो यह है कि ठीक उन्ही दिनों लोगों ने अलगाववादी मुसलमानों को ही प्रोत्साहन देने के लिए उर्दू और इस्लामी शरियत क़ानून को प्रोत्साहन दिया ! यही दो चीजें केरल से कश्मीर तक और उत्तर-पूर्वी भारत से गुजरात तक के मुसलमानों को एकजुट करती है और गैर-मुसलमानों से अलगाववाद की प्रवृति को बढ़ावा देती है !
हिन्दुओं के मुख्य संकट
आज हिन्दू-भारत के सामने मुख्य रूप से पांच संकट है जैसे – (१) इस्लामी (सुन्नी) कट्टरवाद और उस पर आधारित आतंकवाद, (२) अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवाद, (३) आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ, (४) विभिन्न नामों और रूपों में सेक्युलरवादी संगठन और (५) हिन्दुओं की आंतरिक फूट और अपनी नाक से आगे देखने से परहेज ! इनमे से इस्लामी आतंकवाद सबसे बड़ा और सबसे अधिक घातक है ! सेक्युलर दल इसे हर प्रकार की सहायता कर रहे है ! ईसाई मिशनरियों का ख़तरा है अवश्य, पर इतना बड़ा नहीं ! भारत से बाहर तो इस्लामी और ईसाई शक्तियों का आपस में गहरा द्वेष है !
फिर क्या किया जाए
अरब मूल के इस साम्राज्यवादी इस्लाम रुपी राक्षस को समाप्त करने के लिए इसकी शक्ति, इसका शक्ति स्त्रोत और उसके अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान आवश्यक है ! संक्षेप में, कुरआन आधारित युद्ध नीति इसकी आधारशिला है; मस्जिदें और मदरसे इसके शक्ति-स्त्रोत है, हजरत मोहम्मद पर अंधविश्वास इसका शक्ति पुंज है ! मदरसा शिक्षित युवक, खनिज तेलों के मालिक, बड़े बड़े शेखों द्वारा दिया गया और जकात के नाम पर इकठ्ठा किया गया अथाह धन तथा हर ओर से, यानि क्रय, चोरी या उधार से प्राप्त किये हथियार, इसके शस्त्रागार है !
इन सबकी बराबरी करने के लिए सर्वप्रथम हिन्दुओं को अपने आप में देश और धर्म की रक्षा के लिए मरने-मारने की मानसिकता जागृत करनी होगी ! यह स्वभाव हिन्दुओं के आर्य पूर्वजों में था जो कि २०वीं शताब्दी में नष्ट-प्राय हो गया है !
१४वी शताब्दी में खूंखार लुटेरे तैमूरलंग के पास दिल्ली गाजियाबाद आने तक भारतीय युद्धबंदियों की संख्या एक लाख हो गयी थी ! तैमूरलंग ने आज्ञा दी कि १५ वर्ष से अधिक, आयु वालों का वध कर दिया जाए ! यथा संभव जल्दी जल्दी काम निपटाने के लिए प्रत्येक सैनिक को १०-१० बंदी दे दिए गए ! सैनिकों में एक सैयाद भी था जिसने कभी एक मुर्गी की भी ह्त्या नही की थी ! उसने प्रार्थना की कि इस नर वध से उसे मुक्त किया जाए ! उसकी प्रार्थना सुन कर तैमूरलंग ने कहा “यदि सैय्यद यह काम नहीं करता है तो यह दस बंदी और सैय्यद भी किसी अन्य सैनिक को वध करने को दे दिया जाए !” यह फैसला सुनकर स्वयं सैय्यद ने उन १० बंदियों का वध किया ! ऐसा न करता तो स्वयं उसका वध हो जाता ! ऐसे ही, यदि आताताई का वध करने के लिए हिन्दू नहीं उठता है तो स्वयं उसका और उसके परिवार का वध निश्चित है !
हिंदुत्व की अवधारणा को सुस्पष्ट और आम आदमी की समझ में आने वाली व्याख्या देनी होगी ! यह बताना होगा कि हिंदुत्व की अवधारणा में व्यक्ति का, परिवार का, समाज का, राष्ट्र का और राज्य का क्या स्थान है, क्या महत्त्व है ! ये सब धर्म के अंग है ! उन सबकी समुचित व्याख्या वेदों, रामायण, महाभारत, गीता, कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि में है ! हिन्दू-बुद्धिजीवियों को उन्हें एक बार फिर से देखने दिखाने की आवश्यकता है ! श्रीमद्भागवत गीता जो महाभारत का ही एक भाग है, धर्मयुद्ध में प्रवृत होने का पाठ पढ़ाती है ! धर्म युद्ध से विमुख हो, पलायन कर रहे अर्जुन को फिर से युद्ध की और प्रेरित कर उसे विजयश्री दिलाने वाला यही गीता ज्ञान है ! आज फिर हिन्दू समाज महाभारत पूर्व की स्थिति में खड़ा है !
सन्दर्भ-वश यह बताना आवश्यक है कि धर्मयुद्ध में प्रवृत होने का गीता का पाठ, न्याय एवं स्वाधिकार प्राप्त करने के लिए है, न कि दुसरे के अधिकार में हस्तक्षेप करने के लिए और इस अर्थ में यह कुरआन के जिहाद वाले सिद्धांत से बिलकुल भिन्न है, जो अरब साम्राज्य को फैलाने, दारुल-हर्ब को दारुल-इस्लाम बनाने या ‘काफिर’ की संज्ञा देकर गैर-मुसलमानों की ह्त्या करने की प्रेरणा देता है !
पिछले ५० से अधिक वर्षों से गांधी जी की अनर्थकारी अहिंसा और जवाहर लाल नेहरु की ‘धर्मनिरपेक्षता’ से अभिभूत, हिन्दू धर्माचार्य अपने ही धर्मग्रंथों की घोर अवहेलना कर रहे है ! उनका सारा बल आत्मा-परमात्मा अथवा आत्म चिंतन पर ही केन्द्रित है ! शायद ही वे कभी अपने शिष्यों और श्रोताओं को अपने समाज, राष्ट्र के प्रति, अपने अपने कर्तव्य पालन की शिक्षा देते है ! आज हिन्दू भारत को गांडीवधारी योद्धा अर्जुनों की आवश्यकता है, न कि ढोल मंजीरा लेकर नाचने गाने वाले वृहन्नलाओं की ! हिन्दू बुद्धिजीवियों को अकर्मण्यता छोड़, कर्मठता की राह पर आना परमावश्यक है !
धनी मानी हिन्दू और धर्म गुरु
व्यवहारिक धरातल पर धनी मानी हिन्दुओं और धर्म-गुरुओं को अपने निजी मान-सम्मान, जाती, सम्प्रदाय आदि से ऊपर उठकर हिन्दू जनता के बीच विचरण करना चाहिए; उन्हें उनकी भाषा में ज्ञान देना चाहिए, उनमे नैतिक बात और भौतिक संतोष का संचार करते हुए उन्हें राष्ट्रीय क्रियाकलापों में भागीदार बनाना चाहिए ! धनी-मानी व्यक्तियों पर नैतिक और कर्त्तव्य बोध का दवाब पड़ना चाहिए कि वे विलासिता, पंच-तारा मंदिरों-महलों के निर्माण, अनावश्यक और खर्चीले विवाह-जन्मदिन आदि की पार्टियों में धन लुटाने की बजाय हिन्दू-समाज और हिन्दू राष्ट्र के हित में लगायें तथा दान दें ! भारत विभाजन से कुछ वर्ष पहले, एक गाँव के मुखिया ने हिन्दू और मुसलमान का भेद यूं समझाया था – ‘यदि एक हिन्दू अमीर हो जाए तो वह तत्काल अच्छे अच्छे वस्त्राभूषण खरीदेगा, किन्तु एक मुसलमान अमीर होते ही सबसे पहले बन्दूक खरीदेगा ! सच यह है कि हिन्दुओं को भी बन्दूक और गोली-बारूद चलाना सीखना चाहिए ! उन्हें भी अपनी रक्षा पंक्ति दृढ करनी होगी और प्रतिरक्षा दस्ते बनाने होंगे !
श्रीमदभागवत गीता का अंतिम श्लोक है –
“यत्र योगेश्वरो कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः |तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम || (१८ : ७८)
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