सनातन सत्य है, अधर्म का नाश होगा ही - संजय तिवारी

सनातन परंपरा में अधर्म का नाश सुनिश्चित है। न तो संत का कपड़ा पहन लेने से कोई संत हो जाता है और न ही उसमे संत के गुण आ सकते हैं। संत होने के लिए हमारी परंपरा में बहुत कड़ी शर्ते हैं, नियम हैं और साधना है। भारतीय संत परंपरा में सन्यासी होना सभी के लिए संभव नहीं है। शास्त्र सम्मत सन्यासी होना बहुत कठिन है लेकिन आजकल जिस तरह से भगवाधारी, संत का चोला पहने गैर संत लोगो ने अपना प्रभुत्व हासिल कर दिया है, अब समय आ गया है कि उस पर अंकुश लगाया जाय। हमारी परंपरा में संत, संन्यासी होने की पहली शर्त है कि व्यक्ति ब्राह्मण यानी द्विज हो। द्विज का अर्थ,जिसके दो जन्म हो चुके हो, एक माता के गर्भ से, दूसरा यज्ञोपवीत के समय। दूसरी शर्त है वेदपाठी हो। तीसरी शर्त कि किसी सक्षम आचार्य , गुरु द्वारा दीक्षित हो , चौथी शर्त ,वह अपने पूरे कुल का पिण्डा दान करने के बाद स्वयं का पिंड दान करे और फिर गुरु उसे संन्यास की दीक्षा दे। सन्यासी केवल भिक्षाटन पर जीवन यापन करता है। किसी मठ , महल या ऐश्वर्य में नहीं। 

अब यह जन को अर्थात लोक को विचार करना है कि वह संत अथवा सन्यासी के रूप में जिस व्यक्ति से जुड़ रहा है वह वास्तव में सन्यासी ही है या सन्यासी का रूप धारण कर कोई भोग विलासी पिपासु ? वास्तविकता यह है कि जो एक बार सन्यासी बन चुका उसके लिए परमपिता के लोक से बड़ा कुछ भी नहीं होता। इस धरती के किसी भोग या ऐश्वर्य से उसे कुछ लेना देना नहीं होता। 

यह हमारे समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा की लोग संत और सन्यासी के रूप में पूजे जा रहे हैं जिनका संत या सन्यासी भाव से कोई सम्बन्ध नहीं है। दुःख तो यह है कि हमारी राजसत्ता भी ऐसे पाखंडियों को ही प्रश्रय दे रही है। राजसत्ता को भी संत साधको और वास्तविक सन्यासियों की सुधि नहीं है। वह उन्हें ही महत्व देती है जिनके पास मतावलम्बियों की संख्यात्मक वोट शक्ति हो। ऐसे पाखंडियो को हमारी राजसत्ता ने अब सत्ता का हिस्सा भी बनाना शुरू कर दिया तो सन्यासी की कौन सुने ?

रामरहीम अर्थात रामपाल अर्थात आशाराम अर्थात नित्यानंद अर्थात भीमनद , जयगुरुदेव और न जाने कितने, ऐसे संत सामने आ चुके जो वास्तव में कभी संत थे ही नहीं लेकिन राजसत्ता ने उन्हें संत का दर्जा देकर खूब सम्मानित किया। इनमे से कोई भी संत की पहली ही शर्त पूरी नहीं करता। इनमे से कोई द्विज नहीं है। ये सभी गैर ब्राह्मण, यानी अद्विज है और ये कथित बाबा ही देवदासी रखते है, जिसके लिए ब्राह्मण आज तक बदनाम हो रहे है। मुझे यह लिखने कोई संकोच नहीं है कि संत के नाम पर जितने लोगो को आज की राजसत्ता ने प्रश्रय दिया है उनमे से अधिकाँश सन्यासी के किसी गुण धर्म से जुड़े नहीं हैं। एक ब्राह्मण संत करपात्री जी महाराज ने राजनीति में कुछ शुद्धिकरण का प्रयास किया था , राजनीतिक पार्टी भी बनायीं , चुनाव भी जीते , लेकिन कभी अपने लिए न तो कोई महल बनाया और न ही ऐश्वर्य का सामन जुटाया। अंजुरी की भिक्षा से ही जीवन गुजार दिया। 

यह शाश्वत सत्य है की एक ब्राह्मण जब बाबा बनता है, तो वह शंकराचार्य होता है, धन की लालसा नही होती ,
किसी का बलात्कार नही करता। कलयुग में इन पाखंडी बाबाओं का ही बोलबाला है। राष्ट्र हित और धर्म के प्रति इनकी कोई निष्ठा नहीं है। यह सिर्फ अपनी दुकान चलाते हैं और कुछ हमारे अपने ही मूर्ख भाई इनके भक्त बनकर ढोंगी बाबाओ और इनके नाम को बढावा देते हैं। 

जय गुरुदेव(यादव), गुरमीत राम रहीम(जाट), रामपाल(जाट) , राधे मां(खत्री), आशाराम(सिंधी), नित्यानंद द्रविण जैसे गैर ब्राह्मणों ने सनातन परंपरा की वाट लगाई है। बाबाओ ने किया देश का बेडा गर्क और ब्राम्हण तो जबरदस्ती बदनाम है.....?

इन सबके बावजूद बाबा चाहे किसी भी जात,धर्म या सम्प्रदाय का हो,आज वो धर्म की आस्था का प्रतीक है इसलिए हमारी आस्था से खिलवाड़ करने वाले ऐसे किसी भी धर्म के बाबाओ के भक्तों को ये समझना चाहिए कि कौन धर्म के कर्म कर रहा है और कौन धर्म की आड़ में अधर्म की दुकान चला रहा है। हमारी परम्परा है -धर्म की विजय, अधर्म का विनाश होता रहा है और होता रहेगा माध्यम बदलते रहेंगे....लेकिन परिणाम एक ही होगा.. धर्म की जय हो.... अधर्म का नाश हो।

संजय तिवारी 
संस्थापक – भारत संस्कृति न्यास,
वरिष्ठ पत्रकार 

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