ग्रामीण पत्रकारिता के जनक - स्वतंत्रता सेनानी पं.गोपालकृष्ण पुराणिक - प्रमोद भार्गव

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एक छोटे से कस्बे भटनाबर में पुराणिक जी द्वारा स्थापित आदर्श विद्यालय उन दिनों ग्वालियर संभाग के श्रेष्ठ विद्यालयों में से एक था। तब यहां...



एक छोटे से कस्बे भटनाबर में पुराणिक जी द्वारा स्थापित आदर्श विद्यालय उन दिनों ग्वालियर संभाग के श्रेष्ठ विद्यालयों में से एक था। तब यहां आर्थिक स्वाबलंबन के कार्य व गुर भी सिखाए जाते थे। यह आवासीय विद्यालय था। स्वतंत्रता के पूर्व जब ग्वालियर राज्य में शिक्षण संस्थानों की कमी थी और नई पाठशालाओं के खोले जाने पर इसलिए प्रतिबंध लगा हुआ था कि कहीं लोग जागरुक ना हो जाएं, तब पुराणिक जी ने महात्मा गांधी के संदेश “भारत का उद्धार गांव में है” से अभिप्रेरित होकर 12 जनवरी 1921 को पहले अभावग्रस्त ग्राम भटनावर में आदर्श विद्यालय खोला। 1930-31 में इसे स्थानांतरित करके पोहरी लाया गया। बाद में उन्होंने यहीं एक महाविद्यालय की भी बुनियाद रखी। रोजगार आधारित शिक्षा के रूप में यहां कतली व चरखे से सूत कताई, खादी निर्माण, दियासलाई तथा कागज बनाना सिखाया जाता था।
1938 में ग्राम विकास को ध्यान में रखते हुए पुराणिक जी ने “रुरल इंडिया” नाम से एक अंग्रेजी मासिक पत्रिका निकालने का संकल्प लिया और इसका प्रकाशन मुंबई से कराया। वे स्वयं इसके मुद्रक, प्रकाशक व संपादक रहे। इस पत्रिका में उस समय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े बड़े से बड़े नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के ग्रामीण विकास और आंदोलन में वैचारिक प्रवाह को गति देने वाले सचित्र आलेख प्रकाशित होते थे।

गोपालकृष्ण पुराणिक का जन्म आषाढ़ शुक्ल 12 संवत 1957 अर्थात 9 जुलाई 1900 के दिन शिवपुरी जिले के ग्राम पोहरी में हुआ था। इनके पितामह पं वासुदेव पुराणिक संस्कृत और ज्योतिष के बड़े विद्वान थे। इनके पिता नरहरि प्रसाद की मृत्यु तब हो गई थी जब गोपाल मात्र तीन वर्ष के थे। दादा वासुदेव ने पुत्र शोक से उबरने के साथ ही गोपाल को घर में ही संस्कृत की शिक्षा देना प्रारम्भ किया । जब गोपाल सात वर्ष के थे, तब दुर्योग से इनके दादा का भी निधन हो गया। माता का निधन पहले ही हो चुका था। अनाथ हो जाने के कारण उन्हें पढ़ाई का अवसर नहीं मिला। किंतु वे घर में रखे पुराणों व श्रीमद् भगवत का निरंतर अध्ययन करते रहे। वे सार्वजनिक रूप से कथा का वाचन भी करते थे। लेकिन चढ़ोतरी अथवा दक्षिणा नहीं लेते थे। ऐसा करना वे ज्ञान का सौदा मानते थे। दादा की मृत्यु के बाद उन्होंने अकादमिक शिक्षा लेने की बहुत कोशिश की, लेकिन मार्ग नहीं सूझा। परिवार में दादा की मृत्यु के बाद कोई दूसरा सरंक्षक नहीं रह गया था। इस विपरीत अवस्था में वह स्वयं को अनाथ अनुभव करने लग गए थे। एक बार उनके ही कथित सत्यवादी रिश्तेदारों ने उन पर अपना उल्लू सीधा करने के लिए चोरी तक का आरोप लगा दिया। इस झूठे इल्जाम से वे इतने दुखी व कुपित हुए कि उन्हें कथित संस्कारी पंडितों और संस्कृत भाषा तक से वितृष्णा हो गई थी। वे सोचने लगे कि संस्कृत पढ़ने से संस्कारी होने का दावा करने वाले ब्राह्मण ही जब संस्कारवान नहीं बन पाए, तो वे इस भाषा का बोझ क्यों ढोएं ?

किंतु समय ने पलटा खाया और उनकी मानसिकता बदल गई। कविवर रविंद्रनाथ टैगोर को जब विद्या वाचस्पाति (डॉक्टरेट) की उपाधि से विभूषित करने के लिए शान्ति निकेतन में अलंकरण समारोह हुआ तो पदवी देते समय लेटिन में भाषण पढ़ा गया। तत्पश्चात जब टैगोर के भाषण का अवसर आया तो उन्होंने अपना भाषण तो संस्कृत में दिया ही, पिछले वक्तव्य में जो प्रश्न खड़े किए गए थे, उनके प्रतिउत्तर भी संस्कृत में दिए। इस आयोजन के समाचार जब पुराणिक जी ने रेडियो पर सुने व अखबारों में पढ़े तो वे चकित रह गए। संस्कृत के महत्व और गौरव का उन्हें अनुभव हुआ कि “रविन्द्रनाथ चाहते तो अपना भाषण अंग्रेजी अथवा बांग्ला भाषाओं में दे सकते थे, लेकिन उन्होंने स्वयं और देश का स्वाभिमान ऊंचा बनाए रखने के लिए संस्कृत में भाषण दिया। उनके मस्तिष्क में इस वक्तव्य की छाप ऐसी पड़ी कि जब कालांतर में इस नोबेल पुरस्कार विजेता का स्वर्गवास हुआ तो उनकी स्मृति में अपनी पत्रिका “रुरल इंडिया” में उन्होंने संस्कृत में अनेक श्लोक लिखे। आदर्श विद्यालय में उन्होंने संस्कृत पढाने के लिए उच्चकोटि के विद्वान रखे और नियमित संस्कृत में प्रवचन का सिलसिला शुरू किया।

विद्यालय में राष्ट्रवादी शिक्षा देने और विद्यार्थियों में राष्ट्रप्रेम जागृत करने की शिक्षा मुख्य रूप से दी जाती थी। जिससे राष्ट्र सेवा के लिए सिपाही तैयार हो सकें। यहां से अध्ययन कर छात्र राष्ट्रसेवा का व्रत लेकर निकलने लगे। इनमें से कई क्रांतिकारी बने तो कइयों ने आंदोलनकारियों को अप्रत्यक्ष मदद कीं। इसकी जानकारी मिलते ही ग्वालियर राज्य के तात्कालिक शासक जीवाजीराव सिंधिया और अंग्रेजों के कान खड़े हो गए। ग्राम भटनावर सरदार शितोले साहब की जागीर पोहरी के अंतरर्गत आता था। वे स्वयं प्रखर राष्ट्रवादी विचारों के प्रणेता थे। उन्होंने इस विद्यालय को ही नहीं गोपालकृष्ण द्वारा लड़ी जा रही आजादी की लड़ाई व प्रत्येक नवोन्मेशी प्रयोग को आर्थिक सहायता और भूमियां उपलब्ध कराईं, साथ ही उनका अंग्रेजों से सरंक्षण भी किया। इसलिए जब ग्वालियर रियासत की ओर से विद्यालय पर प्रतिबंध के प्रयत्न किए तो वे टालते चले गए।

मुंतजिम जागीरदारान कोर्ट ऑफ वार्डस 1922-23 की रिपोर्ट में शितोले को हिदायत दी, “पोहरी में आदर्श विद्यालय के नाम से एक प्राईवेट मदरसा जारी है, जो एक ब्राह्मण गोपालकृष्ण ने खोला है। चंदा इलाकेजात गैर से वसूल होकर इस मदरसे के मषारिफ चलाए जाते हैं। मैंने गोपालकृष्ण से बात की। उससे मैंने यह नतीजा निकाला कि यह उस पार्टी के दिल, दादा षैदा हैं, जो आजकल इंडिया में वाइस तबाही हो रही है। चुनांचे इस पर निगरानी रखने के लिए सरदार शितोले साहब को यह मशविरा दिया गया है।“

इसके बाद ग्वालियर राज्य के होम मेंबर की तरफ से दिनांक 21 अप्रैल 1923 के ग्वालियर राजपत्र में 1979 क्रमांक का एक परिपत्र जारी किया गया, जो इस प्रकार था – “चंद रोज हुए कि जागीर पोहरी में एक स्कूल “आदर्श विद्यालय” कायम हुआ। जिसमें अखबारात जो ममूनअ करार दिए गए हैं और इसी तरह की और भी काबिले ऐतराज बातें मस्लन चर्चा खिलाफत व स्वराज वगैरह होता था। चूंकि यह बात मुमकिन है कि दीगर जागीरात में इस किस्म के इंस्टीट्यूशन आयंदा शायद कायम हों या अब पाई जाएं या सभाएं कायम चर्चा हों, इसलिए यह सर्क्युलर जारी किया जाता है कि अगर ऐसी सूरतों का होना पाया जाए, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है, तो जागीरदार साहब का फर्ज है कि फौरन उसकी रोक करें और दरबार को बजरिए तार व चिट्ठी इत्तला दें।“

तत्कालीन गृह विभाग से इतने सख्त निर्देष मिलने के बावजूद आदर्श विद्यालय का वर्चस्व बना रहा तो इसलिए, क्योंकि पोहरी के जागीरदार शितोले उनके पक्ष में थे। यह विद्यालय और पुराणिक जी द्वारा स्थापित महाविद्यालय आज भी अपना वजूद पूरी सिद्दत से कायम किए हुए हैं।

1930 में जब देश में सत्याग्रह आंदोलन चला तो गोपालकृष्ण उसमें भागीदारी करने दिल्ली चले गए। सत्याग्रहियों के शिविर में पहुंचकर वे उसके सदस्य बने। फिर बृजकृष्ण चांदीवाला और कृष्णन नायर के सहयोगी बन गए। दिल्ली के पास स्थित नरेला ग्राम में गोपालकृष्ण ने एक दिन भाषण दिया। नतीजतन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में भेजने पर उनकी मुलाकात प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेंद्र कुमार जैन से हुई। वे सत्याग्रही के रूप में जेल में थे। मुकदमा चला तो जैनेंद्र जी ने तो अपनी पैरवी स्वयं की, लेकिन गोपालकृष्ण ऐसा मानते ही नहीं थे कि उन्होंने कुछ गलत किया है, इसलिए सफाई देने से इनकार कर दिया। हालांकि जैनेंद्र के साथ उदारमना मजिस्ट्रेट ने उन्हें भी मुक्त कर दिया।

ग्वालियर राज्य के कई शीर्षस्थ देशभक्तों ने अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण राज्य छोड़ दिया। गणेशशंकर विद्यार्थी और बालकृष्ण शर्मा “नवीन” ने कानपुर से अपनी गतिविधिंयां जारी रखीं तो हरिभाऊ उपाध्याय अजमेर चले गए। लेकिन गोपालकृष्ण अपनी जन्मभूमि पोहरी में रहकर ही अपने नवोन्मेशी कार्यों की स्थापना और उत्थान में लगे रहे। यहीं रहते हुए उन्होंने प्रादेषिक स्तर की संस्था “ग्वालियर राज्य प्रजा मंडल” बनाई। इसमे पुस्तके साहब, हरकिशन दास भूता, बाबू तखतमल जैन और हिरवे साहब प्रमुख सदस्य थे। संस्था के विधान को मंजूरी के लिए महाराजा सिंधिया के पास भेजा गया। किंतु स्वीकृति नहीं मिली।

पुराणिक जी समझ गए कि ग्वालियर राज्य में किसी राजनीतिक संस्था को स्वीकृति मिल जाए, इसकी उम्मीद व्यर्थ है। गोया, उन्होंने स्वीकृति की परवाह किए बिना “ग्वालियर राज्य सेवा संघ” का गठन किया और उसके जरिए राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाने के प्रयत्न शुरू कर दिए। इसी संघ की अगुआई में 1938 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथी पर एक बड़ा महोत्सव समारोहपूर्वक मनाया गया। जिसमें प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विनायक दामोदर वीर सावरकर को आतंत्रित किया गया। इन्हीं सावरकर ने 1857 की क्रांति को “1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम” मानते हुए इसी शीर्षक से इस इतिहास को पुस्तक के रूप में लिखा था। इस आयोजन की सफलता के बाद जीवाजीराव सिंधिया विचलित हो गए। उन्होंने गोपालकृष्ण को राष्ट्रीय आंदोलन से विमुख करने के लिए उन्हें ग्वालियर राज्य के मंत्रीमंडल में शामिल करने का लालच दिया, किंतु उन्होंने दृढता से प्रस्ताव ठुकरा दिया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्हेंने अहम् भूमिका अभिनीत की थी।

1931 तक पुराणिक जी ने ग्राम सुधार व विकास से जुड़े इतने कार्यों को जमीन पर उतारा कि उन्हें अनुभव होने लगा कि गांधी जी के ग्रामोत्थान के महत्व को देश-विदेश को समझाना है तो इस लक्ष्यपुर्ति के लिए किसी पत्र-पत्रिका का प्रकाशन जरूरी है। इस स्वप्न के मष्तिष्क में कौंधते ही उन्होंने नवंबर 1938 में बंबई से “रूरल इंडिया” नामक मासिक पात्रिका का अंग्रेजी में प्रकाशन शुरू कर दिया। अंग्रेजी उन्होंने स्वाध्याय से सीखी थी। पात्रिका के लिए अंग्रेजी में गोपालकृष्ण नियमित संपदकीय तो लिखते ही थे, ग्राम विकास से जुड़े लेख भी लिखते थे। इस पात्रिका में महात्मा गांधी, सुभाश चंद्र बोस, पट्टाभि सीतारमैया, विजयलक्ष्मी पंडित, गोविंद वल्लभ पंत, जवाहरलाल नेहरू, काका कालेलकर, हरिभाऊ उपाध्याय, भारतन कुमारप्पा जैसे चर्चित नेता लेख लिखते थे। प्रो एनजी रंगा इसके संचालक मंडल के अध्यक्ष थे। बाद में पाठकों की मांग पर इस पत्रिका में आठ पृष्ठ हिंदी में प्रकाशित किए जाने लगे।

ग्राम विकास के महत्व को रेखांकित करते हुए रूरल इंडिया के नबंबर 1947 के अंक में पुराणिक जी ने अपने लेख में लिखा, “देश में दरिद्रता का नग्न नृत्य हो रहा है, लोग भूखों मर रहे हैं, न खाने को अन्न है और न पहनने को पर्याप्त वस्त्र। शिक्षा व स्वास्थ्य के साधनों का अत्यंत अभाव है। इस संबंध में दुख का पहलू यह है कि इस स्थिति से मुक्ति के लिए लोगों में जो तड़पन होनी चाहिए वह भी नहीं है। वहीं दूसरी तरफ विश्व युद्ध के परिणामरूवरूप एक नई विश्व व्यवस्था कायम करने का विचार उभर रहा है, जिसमें विश्व के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार के अभाव के नहीं होने का दावा किया जा रहा है। क्या ऐसी व्यवस्था अपने आप कहीं आकाश से टपक पड़ेगी ? अथवा उसके लिए स्वयं प्रगाढ़ परिश्रम करना होगा ?”

एक अन्य लेख में पुराणिक जी प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, “आर्थिक गुलामी आदमी के अंदर की इंसानियत को खत्म कर रही है। उनके पास कोई बचत नहीं होती, हमेशा तंगी रहती है। वे ब्याज पर उधार लेने के लिए अंततः साहूकार या जमींदार के पास ही जाने को विवश होते हैं। यही कारण है कि 1935 में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह आय एक रुपया थी, जो 1936 में बढ़कर एक रुपया 12 आना हुई और 1937 में यही आमदनी प्रतिमाह प्रति व्यक्ति दो रुपया एक आना हो पाई।“

इस पत्रिका की समीक्षा करते हुए 1939 में “दि हिंदुं” ने लिखा था- “आदर्श सेवा संघ ग्रामोत्थान का 18 वर्षो का अनूठा संग्रह है, जिसने ग्रामीण भारत के कल्याण के लिए “रूरल इंडिया” नामक पत्रिका का प्रकाशन किया। यह जर्नल प्रसिद्ध संपादकीय मंडल द्वारा बहुत अच्छे ढंग से संपादित किया जा रहा है। यह शायद देश में एकमात्र ऐसा अंग्रेजी भाषा का पत्र है, जिसने ग्राम समस्याओं को राष्ट्र के समक्ष प्रभावी ढंग से रखा है।“

इसी तरह “दि ट्रिब्यून” ने लिखा, “रूरल इंडिया” पत्रिका द्वारा ग्रामीण भारत की समस्या पर जितनी उपयोगी एवं आवश्यक जानकारी प्रकाशित की जा रही है, उतनी पहले कभी प्रकाशित नहीं हुई है। यह पत्रिका ऐसे लोगों को साहस और सहानुभूति दे रही, जो दयनीय स्थिति में हैं।“

ग्राम सुधार और ग्रामीण पत्रकारिता को यथार्थ रूप में जमीन देने वाले इस महान स्वतंत्रता सेनानी का 31 अगस्त 1965 को शिवपुरी के जिला चिकिकत्सालय में निधन हो गया। 1 सितंबर 1965 को इस विभूति का पोहरी के महाविद्यालय प्रांगण में अंतिम संस्कार हुआ। पार्थिव देह को गाड़ी को रथ का रूप देकर उसमें रखा गया। इनकी भव्य अंतिम यात्रा में आदर्श विद्यालय के सभी छात्र शामिल थे। उनमें एक अज्ञानी छात्र मैं भी था, जो तब तक नहीं जानता था कि पत्रकारिता क्या होती है, किंतु अब जब भी पोहरी जाता हूं तो उनकी समाधि पर श्रद्धावनत होना नहीं भूलता।

प्रमोद भार्गव

शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी (म.प्र.)

मो. 09425488224,09981061100

फोन 07492-404524

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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