क्या आप जानते है राम-भरत संवाद में छुपा हुआ है भारत की गौरवशाली प्राचीन राजनीति एवं रामराज्य का रहस्य ? - दिवाकर शर्मा

वैश्विक स्तर पर रामराज्य की स्थापना गांधीजी की चाह थी ! गांधीजी ने भारत में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद ग्राम स्वराज के रूप में रामराज्य की कल्पना की थी !  हिन्दू संस्कृति में राम द्वारा किया गया आदर्थ शासन रामराज्य के नाम से प्रसिद्ध है ! वर्तमान समय में रामराज्य का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट शासन या आदर्श शासन के रूपक (प्रतीक) के रूप में किया जाता है ! मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय–शोक दूर हो गए एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई ! कोई भी अल्पमृत्यु, रोग–पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे ! 

रामराज्य अपनी शासन व्यवस्था के कारण नहीं सराहा गया ! वहां हर बात के लिए क़ानून नहीं बनाए जाते थे, राम का आचरण ही क़ानून था ! जनता के प्रति उनकी संवेदना ही शासन की नीति थी ! वर्ण की व्यवस्था कर्म के आधार पर बनी थी ! कोई छूत-अछूत नहीं था, कोई बड़ा-छोटा नहीं था ! उस समय की सामाजिक व्यवस्था मनुष्य को महामानव बनाना सिखाती थी, जबकि आज की सामाजिक व्यवस्था में झूठ, फरेब, अन्याय, अत्याचार और पाखण्ड का बोलबाला चहुँ ओर व्याप्त है ! जनता में कर्तव्य बोध नहीं है ! उके ह्रदय में तामसी गुणों की प्रधानता है ! राजा जो जनता की सूक्ष्म मनोवृत्तियों का विराट स्वरुप होता है अतः वर्तमान में मंत्री और अधिकारी भ्रष्ट और दुराचारी है ! वर्तमान शिक्षा पद्धति व्यक्ति को मशीनी बनाती है, इंजीनियर या डॉक्टर बनाती है परन्तु एक अच्छा इंसान नहीं बना पाती है ! शिक्षा नीति के निर्माता, शिक्षक और विद्यार्थी सभी की प्रवत्तियां लालची हो गयी है ! वर्तमान परिवेश को देखते हुए आज रामायण के उस अध्याय से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है जिसे ‘कच्चित अध्याय’ कहा जाता है ! इस अध्याय में परमराजनीतिज्ञ मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने भरत को वैदिक राजनीति एवं राजा द्वारा अनुष्ठेय आचरण का उपदेश अत्यंत सुन्दर एवं मार्मिक रूप में दिया है ! यह है हमारे भारत की गौरवमयी प्राचीन राजनीति ! 

भरत के राम से मिलने पहुचने पर विवर्णमुख और कृश भाई भरत को राम ने ह्रदय से लगाया, फिर उन्हें अपनी गोद में बिठाकर सर्वप्रथम अपने पिता के स्वास्थ्य की पूछ परख ली तत्पश्चात माता कोशल्या सुपुत्रवती माता सुमित्रा एवं परमश्रेष्ठा देवी कैकेई के स्वास्थ्य के बारे में भी भरत से जानकारी ली ! इसके बाद राम भरत से पूछते है –

1. हे तात ! तुम देव = विद्वानों, पितर = रक्षकों, नौकरों, गुरुओं और पिता के समान पूज्य बड़े बूढों, वैद्यों और ब्राह्मणों का सत्कार तो करते हो ?

2. हे भाई ! तुम बाण और अस्त्रविधा में निपुण तथा अर्थशास्त्रज्ञ = नीति-शास्त्र-विशारद धनुर्वेदाचार्य सुधन्वा का आदर सत्कार तो करते हो ?

3. हे तात ! क्या तुमने अपने समान विश्वसनीय वीर, नीतिशास्त्रज्ञ, लोभ में न फंसने वाले, प्रामाणिक कुलोत्पन्न और संकेत को समझने वाले व्यक्तियों को मंत्री बनाया है ? क्यूंकि हे राघव ! मंत्रणा को धारण करने वाले नीति-शास्त्र-विशारद सचिवो के द्वारा गुप्त रखी हुई मंत्रणा ही राजाओं की विजय का मूल होती है !

4. तुम निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते ? यथा समय उठ तो जाते हो तथा रात्री के पिछले पहर में अर्थ की प्राप्ति के उपायों का चिंतन तो करते हो ?

(महर्षि मनु ने प्रातः ब्रह्ममूहर्त में उठ कर धर्म-अर्थ चिंतन का विधान किया है –
मनुष्य को चाहिए कि रात्रि के चौथे पहर में उठे तत्पश्चात धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों – उनके कारणों और वेद के रहस्य का चिंतन करे ! )

5. तुम अकेले तो किसी बात का निर्णय नहीं कर लेते अथवा तुम बहुत से लोगों में बैठ कर तो विचार-विमर्श नहीं करते ? तुम्हारा विचार कार्यरूप में परिणत होने से पूर्व दूसरे राजाओं को विदित तो नहीं हो जाता ?

6. मंत्रियों के साथ किये गए तुम्हारे अकथित निश्चयों को दुसरे लोग तर्क और युक्तियों से जान तो नहीं लेते ? और तुम व तुम्हारे मंत्री अन्यों के गुप्त रहस्यों को जान लेते हो न ?

7. हे भरत ! अल्प प्रवास से सिद्ध होने वाले और महान फल देने वाले कार्य को करने का निश्चय कर तुम उसे शीघ्र आरम्भ कर देते हो न ? उसे पूर्ण करने में विलम्ब तो नहीं करते ?

8. तुम हजार मूर्खों की अपेक्षा एक बुद्धिमान परामर्शदाता को रखना अच्छा समझते हो न ? क्यूंकि संकट के समय बुद्धिमान व्यक्ति महान कल्याण करता है !

9. हे तात ! तुम उत्तम नौकरों को उत्तम कार्यों में, मध्यम नौकरों को मध्यम कार्यों में और साधारण नौकरों को साधारण कार्यों में लगाते हो न ?

10. क्या तुम धर्म-अर्थ-काम में सुपरिक्षित, कुल परंपरा से प्राप्त, पवित्र और श्रेष्ठ मंत्रियों को श्रेष्ठ कार्यों में नियुक्त करते हो ?

11. हे कैकेईनंदन ! तुम्हारे राज्य में उग्रदंड से उत्तेजित प्रजा तुम्हारा अथवा तुम्हारे मंत्रियों का अपमान तो नहीं करती ?

12. जिस प्रकार स्त्रियाँ पर-स्त्रिगामी पतित पुरुष का तिरस्कार करती है अथवा जिस प्रकार याजक लोग यज्ञ-कर्म से हीन व्यक्ति का अनादर करते है उसी प्रकार "कर" लेने से प्रजा तुम्हारा अनादर तो नहीं करती ?

13. जो राजा साम आदि कूटनीति-विशारद वैध को, सज्जनों में दोष लगानेवाले नौकर को और ऐश्वर्य के अभिलाषी सूर को नहीं मारता वह स्वयं मारा जाता है ! (तुम कहीं ऐसे लोगों को तो अपने पास नहीं रखते ?)

14. हे भरत ! क्या तुमने व्यवहारकुशल, शूर, बुद्धिमान, धीर, पवित्र, कुलीन, स्वामिभक्त और कर्मकुशल व्यक्ति को अपना सेनापति बनाया है !

15. तुम्हारी सेना में जो अत्यंत बलवान, युद्धविधा में निपुण, सुपरिक्षित और पराक्रमी सैनिक है तुम उन्हें पुरुस्कृत कर सम्मानित करते हो या नहीं ?

16. तुम सेना के लोगों को कार्यानुरूप भोजन और वेतन जो उचित परिमाण में और उचित काल में देना चाहिए उसे यथासमय देने में विलम्ब तो नहीं करते ?

17. भोजन और वेतन ठीक समय पर न मिलने से नौकर लोग क्रुद्ध होते है और स्वामी की निंदा करते है ! नौकरों का ऐसा करना भारी अनर्थ की बात समझी जाती है !

18. क्षत्रियकुलप्रसूत मुख्य लोग तुम्हारे प्रति अनुराग तो रखते है न ? क्या समय आने पर वे तुम्हारे लिए अपने प्राण तक न्योछावर करने को उद्धत रहते है ?

19. हे भरत ! अपने ही राज्य में उत्पन्न, दूसरों के अभिप्राय को जानने वाले, समर्थ, प्रत्युत्पन्नमति, यथोत्त्वादी=सन्देश को ठीक ठाक पहुँचानेवाले पंडित को तुमने अपना दूत बनाया है या नहीं ?

20. हे भरत ! तुम परस्पर अनभिज्ञ तीन-तीन गुप्तचरों के द्वारा अपने राज्य के पंद्रह तथा पर राज्य के १८ तीर्थों का हाल जानते रहते हो न ?

(नीति शास्त्रों में १८ तीर्थों के नाम निम्न है – 1. मंत्री, 2. पुरोहित, 3. युवराज, 4. सेनापति, 5. द्वारपाल, 6. अन्तः पुराधिकारी, 7. बंधनगृहाधिकारी (दरोगा जेल), 8. धनाध्यक्ष, 9. कार्यनियोजक (राजा की आज्ञानुसार नौकरों को आज्ञा देनेवाला), 10. प्राडिववाक् (वकील), 11. धर्माध्यक्ष, 12. नगराध्यक्ष (कोतवाल) 13. राष्ट्रांतपाल (सीमान्त का अफसर) 14. दंडपाल (मजिस्ट्रेट) 15. दुर्गपाल, 16. वनाध्यक्ष, 17. कर ग्रहीता, 18. सभ्य
स्वपक्ष में मंत्र, पुरोहित और युवराज को छोड़कर पंद्रह पुरुष बचते है – हलायुद्ध )

21. हे शत्रुसंहारक ! पराजित करके अपने राज्य से भगाए हुए शत्रुओं के किसी प्रकार पुनः लौटकर आ जाने पर उनको दुर्बल समझकर कहीं तुम उनकी उपेक्षा तो नहीं करते ?

22. तुम नास्तिक ब्राह्मणों की संगती तो नहीं करते ? अपने को पंडित समझने वाले ये मूर्ख धर्मानुष्ठान से लोगों का चित्त हटाकर उन्हें नरक भेजने में बड़े कुशल होते है !

23. हे राघव ! पापी लोगों से रहित, मेरे पूर्वजों के द्वारा सुरक्षित तथा समृद्ध कोसल देश सुखी तो है ?

24. हे तात ! कृषि=गौरक्षा आदि में लगे हुए तुम्हारे सब प्रियजन सुखी तो है न ? व्यवसाय=लेन-देन के कार्य में नियुक्त रहकर ही वैश्य लोग धन-धान्य से युक्त होते है न ?

25. तुम उन लोगों को उनकी इष्ट वस्तु प्रदान कर और उनके अरिष्टों को दूर कर उनका भरण-पोषण तो करते हो ? राज्य के निवासियों की रक्षा राजा को धर्मपूर्वक=ईमानदारी से करनी चाहिए !

26. तुम हाथीवाले वनों की रक्षा तो करते हो ? जो हथनियाँ, हाथियों को पकड़वाती है, उनका पालन पोषण तो ठीक रूप से होता है न ? हाथियों, हथनियों और घोड़ों के लाभ से तुम तृप्त तो नहीं होते ?

27. हे राजपुत्र ! तुम प्रतिदिन प्रातः काल उठकर और सब प्रकार से सुभूषित होकर दोपहर से पहले ही सभा में जाकर प्रजाजनों से मिलते हो या नहीं ?

28. तुम्हारे नौकर निर्भय होकर सदा तुम्हारे सामने तो नहीं नहीं चले आते अथवा डर के मारे सदा तुमसे दूर तो नहीं रहते ? ये दोनों ही स्थितियां ठीक नहीं ! नौकरों के साथ मध्यम व्यवहार ही उचित है !

29. तुम्हारे सब दुर्ग धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यन्त्र, शिल्पियों और धनुर्धारियों से परिपूर्ण तो है ?

30. हे राघव ! तुम्हारी आय अधिक और व्यय न्यून है न ? तुम्हारे कोष का धन अपात्रों=नाच-गाने वालों में तो नहीं लुटाया जाता ?

31. तुम्हारा धन देव=विद्वान, पितर=रक्षक वर्ग, अभ्यागत, योद्धा और मित्रों पर ही व्यय होता है न ?

32. जब विशुद्धात्मा, पवित्र और श्रेष्ठ लोग झूठ, चोरी आदि के अपवाद से दूषित होकर विचारार्थ न्यायालय में उपस्थित किये जाते है तब तुम्हारे नीतिशास्त्र-कुशल लोग (सरकारी वकील) उनकी परीक्षा किये (जिरह कर सत्यासत्य का निर्णय किये) बिना, लालच में फंसकर, कहीं उन्हें दंड तो नहीं देते ?

33. हे, नरश्रेष्ठ ! जो चोर, चोरी करते हुए पकड़ा गया है, जिरह करने पर जिसका चोरी करना सिद्ध हो चुका है, जो चोरी करते देखा गया है और जिसके पास चोरी का सामान मिला है, कहीं उस चोर को घूँस के लाभ से छोड़ तो नहीं दिया जाता ?

34. धनी और निर्धन का झगडा होने पर तुम्हारे बहुश्रुत मंत्री लोभरहित होकर दोनों का मुकदमा न्यायपूर्वक निबटाते है कि नहीं ?

35. हे राघव ! मिथ्या अपराधों के कारण दण्डित लोगों को आँखों से गिरने वाले आंसू अपने भोग-विलास के लिए शासन करने वाले राजा के पुत्र और पशुओं का नाश कर डालते है !

36. हे राघव ! तुम वृद्ध, बालक, वैद्य और मुखिया लोगों को 1. दान=उनकी अभीष्ट वस्तु प्रदान करके 2. मनसा=उनके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करके 3. वाचा=उनसे आश्वासन-सूचक वचन कहकर – इन तीन प्रकार से तृप्त एवं प्रसन्न तो रखते हो ?

37. तुम धर्मानुष्ठान के समय को अर्थोपार्जन में अथवा अर्थोपाजन के समय को धर्मानुष्ठान में तो नष्ट नहीं कर देते ? अथवा सुखाभिलाषा के लिए कामवासना में फंस अर्थोपार्जन और धर्मानुष्ठान दोनों का समय तो नहीं गँवा देते ?

38. हे विजेताओं में श्रेष्ठ एवं कालों को जीतने वाले भरत ! तुम धर्म, अर्थ और काम का विभाग करके सबका यथासमय अनुष्ठान करते हो या नहीं ? (प्रातः काल संध्या-यज्ञादि कर्म में, मध्यान राज-काज में और रात्री काम के लिए) तुम एक ही काम में तो सारा समय नहीं बिता देते ?

39. हे भरत ! नास्तिकता, असत्य भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता (टालमटोल) सज्जनों से न मिलना, आलस्य, इन्द्रियों की परवशता, मंत्रियों की अवहेलना कर अकेले ही राज्य सम्बन्धी बातों पर विचार करना, अशुभ-चिंतकों अथवा उल्टी बात समझानेवाले मूर्खों से परामर्श करना, निश्चित किये हुए कामों को आरम्भ न करना, रहस्यों को प्रकट कर देना, मंगल-कृत्यों का त्याग, नीच-ऊंच सब को देख उठ खड़े होना अथवा सब शत्रुओं पर एक साथ आक्रमण – इन चौदह राजदोषों को तो तुमने त्याग दिया है न ?

40. हे भरत ! तुम दशवर्ग (शिकार करना, जुआ खेलना, दिन में सोना, परनिंदा, स्त्रियों में अत्याधिक आसक्ति, मद्यादी मादक पदार्थों का सेवन, नृत्य, गीत, वाध्य और व्यर्थ इधर-उधर घूमना – यह देश कामज दोष है), पंचवर्ग (जल, पर्वत, वृक्ष, उजाड़ और मरुप्रदेशों में स्थित – यह पांच प्रकार के दुर्ग होते है), चतुर्वर्ग (साम,दाम, भेद और दंड – यह चतुर्वर्ग कहलाता है), सप्तवर्ग (स्वामी, मंत्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और मित्र – ये राज्य के सात अंग है ), अष्टवर्ग (चुगली, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, निंदा, बलात पर-संपत्ति पर अधिकार, कठोर वचन और तीक्ष्ण दंड – ये आठ क्रोध से उत्पन्न होने वाले दोष है ), त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम), तीनों विधाएं (वेदत्रयी, कृष्यादि वार्ता और नीति), बुद्धि से इन्द्रियों पर विजय, षडगुण (संधि=मेल, विग्रह=युद्ध, यान=आक्रमण करना, आसन=स्थिर रहना, शत्रुओं में फूट डालना, संश्रय= किसी का सहारा लेना – यह छह गुण है ), देव-मनुष्य सम्बन्धी आपत्तियां (अग्नि लगाना, जलप्लावन, व्याधि, दुर्भिक्ष तथा महामारी – यह पांच दैवी-आपत्तियां है ! अधिकारी, चोर, शत्रु, राजा के कृपापात्र और राजा के लोभ से होनेवाली आपत्तियां मानुष आपत्तियां कहलाती है ), राजकृत्य (शत्रु के अपलब्ध वेतन, निरादृत, कोपित तथा भयभीत व्यक्तियों को अपने पक्ष में कर लेना ), विशंति वर्ग (बालक, वृद्ध, दीर्घरोगी, जाती-बहिष्कृत, भीरु, भीरुमंत्री आदिवाला, लोभी, लोभी जनों वाला, विरक्त, इन्द्रीय लोलुप, अस्थिर बुद्धि, देव-ब्राह्मण-निंदक, अभिशप्त, पुरुषार्थहीन, दुर्भिक्षपीडित बहु-रिपु, प्रवासी, सेनाविहीन, यथासमय काम न करने वाला और सत्यधर्म पर दृण न रहने वाला – इन बीस पुरुषों से संधि न करें ), प्रकृति (अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और दंड), तथा मंडल (मध्य में विजय का इच्छुक राजा, उसके सामने पांच, पीछे चार तथा पार्श्व में दो व्यक्ति – इस प्रकार बीस मंडल होते है), यात्रा-विधान (विग्रह, संधि, सम्भूय, प्रसंग और उपेक्ष्य – यान पांच प्रकार का होता है), दंड-विधान (सेना की व्यूह रचना) और संधि-विग्रह (षडगुणोक्त देव्धिभाव-संश्रय संधि के अंतर्गत और यान-आसन विग्रह के अंतर्गत आ जाते है) इन सबको हेय-उपादेयरूप से जानते हो न ? 

41. हे मतिमान ! तुम नीति-शास्त्र के अनुसार तीन-चार मंत्रियों को एकत्र कर एक साथ अथवा पृथक-पृथक उनके साथ विचार-विमर्श तो करते हो ?

42. क्या तुम अग्निहोत्रादि अनुष्ठान करके वेदाध्ययन को सफल करते हो ? दान और भोग में लगाकर क्या तुम अपने धन को सफल करते हो ? यथाविधि संतानोत्पादन कर क्या तुम अपनी स्त्री को सफल करते हो ? तुमने जो शास्त्रश्रवण किया है तदनुसार शील और सदाचारमय जीवन बनाकर क्या तुम अपने शास्त्रश्रवण को चरितार्थ करते हो ? 

(महाभारत में लिखा है –
अग्निहोत्रफला वेदा दत्तभुक्तफलं धनम |
रतिपुत्रफला दाराः शीलवृत्तफलं श्रुतम || महा. आदि. ५ | ११३ 

अर्थात – वेदों का फल है अग्निहोत्र आदि याग करना । धन की सफलता है कि दान करना और भोग करना ।पत्नी की सफलता है कि रति और सन्तान देना । विद्या का फल है कि शुद्ध चरित्रवान् होना ।) 

43. हे भरत ! तुम स्वादु पदार्थों को अकेले ही तो नहीं खा लेते ? खाते समय यदि मित्र उपस्थित हों तो उन्हें देकर खाते हो न ?

44. देखो ! इस प्रकार धर्मानुकूल दंड धारक करनेवाला नीतिज्ञ राजा प्रजा का पालक करके सम्पूर्ण पृथ्वी का स्वामी हो मरने के पश्चात स्वर्ग=सुख विशेष, उत्तम जन्म को प्राप्त करता है !

दिवाकर शर्मा
सम्पादक
क्रांतिदूत डॉट इन
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