ईरान में वैदिक संस्कृति

हम इस देश को ईरान कहें या पर्शिया (फारस), सभी संस्कृत नाम हैं। ईरान "ईरानम्" से व्युत्पन्न है और पर्सिया "परसिका" से। ईरान का शाही परिवार - पहलवी आर्य क्षत्रिय भारतीय परिवार है। पहलवी नाम सर्वप्रथम रामायण में वाल्मीकि जी की कामधेनु का विश्वामित्र द्वारा अपहरण किये जाने के यत्न वाले प्रसंग में आता है। कामधेनु द्वारा अपनी रक्षा के निमित्त उत्पन्न किये गए योद्धा वर्गों में पहलवी एक है। विक्रमादित्य के समय मे हमें फिर यह नाम मिलता है। पल्लव लोग पहलवियो की एक उप - शाखा हैं।

"शाह" शीर्षक भी भारतीय उपाधि है। नेपाल का सम्राट भी "शाह" की उपाधि से विभूषित था। "शाह" एक सामान्य आर्य कुलनाम भी है। भारत की प्रतिरक्षा के लिए महाराणा प्रताप सिसोदिया के चरणों में अपनी समस्त धन संपत्ति अर्पित करने वाला धनिक राष्ट्रभक्त भामाशाह कहलाता था। मुस्लिमो द्वारा सिंहासन-च्युत ग्वालियर का क्षत्रिय राजा रामशाह था। अतः ईरानी बादशाहों द्वारा धारण की गई "शाह" की उपाधि पहलवी परिवार का भारतीय क्षत्रिय-मूल होने का स्मरणकारी ही है। सुप्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय परिवारों की ही भाँति 2500 वर्ष प्राचीन ईरानी राजवंश अपना उद्गम सूर्य से ही मानता है।

इतिहास में यह लिखित है कि पारसी नाम 'नौशेरवाँ' अनुश्रवण का संक्षिप्त रूप है। अनुश्रवण विशुद्ध संस्कृत शब्द है।

भारत की ओर वापसी

ईरान के विरुद्ध इस्लामी आक्रमणों का तांता प्रारम्भ होने के समय सामान्य जनता का एक बड़ा भाग भारत आ गया था। वे लोग पारसी कहलाते हैं। इतिहास में ये भी उल्लेख है कि ईरान का राजपरिवार भी ईरान को छोड़ देने और भारत मे आकर शरण लेने का विचार कर रहा था। इससे न्यूटन की भांति मौलिक विचार करने की प्रेरणा मिलनी ही चाहिए। जिस प्रकार न्यूटन ने सेब को पृथ्वी की ओर गिरते हुए ( न कि आकाश की ओर जाते हुए) देखकर यह निष्कर्ष निकाला था कि यह तो पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण ही था जिसके वशीभूत होकर फल पृथ्वी की ओर ही आता था, उसी प्रकार इतिहासकारों को भी यह विचार करना चाहिए कि ऐसा कौन सा कारण था जिसके वशीभूत हो ईरानी राज परिवार तथा ईरानी जनता, दोनों ने ही विश्व के अन्य समस्त देश छोड़कर भारत मे आने का विचार किया। प्रसंगवश, हमे एक आधुनिक उदाहरण भी उपलब्ध हैं। जब भारत का एक भाग, पाकिस्तान के नाम से भारत से काटकर अलग कर दिया गया, तब कौन लोग थे, जिन्होंने भारत मे शरण ली ? वे आर्य नागरिक ही थे। अतः यही तथ्य कि इस्लामी आक्रमणों का प्रारंभ होते ही ईरानी राज परिवार तथा ईरानी सामान्य जनता भारत आने का विचार कर रहे थे, सिद्ध करता है वे सब आर्य ही थे।

संस्कृत से ईरान का संबंध

हमारा निष्कर्ष कुछ अन्य प्रमाणों से भी पुष्ट होता है। ईरानी भाषा स्वयं ही एक संस्कृत का अपभ्रंश रूप है। भाषाओं के तथाकथित भारोपीय परिवार में संस्कृत को सहभागी मानना भयंकर भूल है। ऋग्वेद अत्यंत प्राचीन तथा प्राचीनतम लिखित वाङमय होने के कारण इसकी भाषा संस्कृत तो सभी ज्ञात भाषाओं की पड़नानी है। अतः फ़ारसी भाषा तो संस्कृत की एक परिवर्ती बोली मात्र है। संस्कृत भाषा ईरानी लोगो की बोलचाल की भाषा थी। यही कारण है कि फ़ारसी हमे आज भी उतनी ही संस्कृतमय मिलती है जितनी भारत की प्राकृत भाषाए।

ईरान के अनेक नगरों के नाम संस्कृत में ही हैं। नामी फ़ारसी शायर उमर खैय्याम का जन्म स्थान निशापुर विशूद्ध संस्कृत नाम है।

जब वैदिक सभ्यता के प्रमाण मिले

प्रथम और द्वितीय विश्व- महायुद्ध के समय पश्चिम एशिया में स्थित भारतीय सैनिक ने प्रतिवेदन दिया था कि उन्होंने ईरान, अफगानिस्तान और अन्य देशों के दूरस्थ निर्जन प्रदेशों में गणेश और शंकर जैसे भारतीय देवताओ के मंदिरों के भग्नावशेष देखे हैं।

ईरानी पौराणिकता का प्राचीन भारतीय पांडित्य से संबंध है। उनकी कथाओं में आर्य हनुमान जी का भी समावेश है। ईरान से प्राप्त इनका एक चित्र हैदराबाद के सालारजंग अद्भूतगार (म्युज़िम) में टंगा हुआ देखा जा सकता है। अपने पिछले पैरों पर खड़े हुए और अपने सिर से ऊपर दोनों हांथों पर एक बड़ी चट्टान उठाये हुए एक बड़े रूखे बालो वाला वानर (वन में रहने वाले मनुष्य) दिखाया गया है। भारतीय (आर्य) पावन वाङमय से उनका संबंध शताब्दियों से अचानक टूट जाने के कारण ईरानी पौराणिक साहित्य में इस वानर देव को एक जिन्न या शैतान के रूप में जीवित रखा हुआ है।

इस्लाम मे धर्म परिवर्तन के लिए जाने से भयभीत होकर पारसियों ने भारत मे आने का विचार इस कारण किया क्योंकि वो प्रमुख रूप में वैदिक अग्नि पूजक थे। वे भी यज्ञोपवीत पहिनते हैं, और किशोरों का यज्ञोपवीत संस्कार कराते हैं। अग्नि में आहुति देने के लिए वे चंदन सम्मिलित करते हैं। आर्यों की ही भाँति वे अपने मकानों के प्रवेश द्वारों के सम्मुख सफेद चूने में ज्यामितीय आकार रेखांकित करते हैं। उनके आर्देशिर ( उर्ध्वशिर) अर्थात "अपना मस्तक" सदैव ऊंचा रखने वाला तथा अनुश्रवण का अर्थ द्योतक "नौशेरवाँ" संस्कृत मूलक है।

यह प्रदर्शित करता है ईरान तथा अन्य देशों पर इस्लाम का बलात आधिपत्य होने से पूर्व उन क्षेत्रों के निवासीगण वैदिक जीवन-पद्धति के अनुयायी थे।

संदर्भ: पुरुषोत्तम नागेश ओक
भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें