भारत के नागरिकों को फतवों से बचाने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए – तुफैल अहमद



28 जुलाई 2017 को, बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार द्वारा शपथ लेने के अगले ही दिन जनता दल (यू) के विधायक और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री फिरोज अहमद उर्फ ​​खुर्शीद ने राज्य विधानसभा के प्रवेश द्वार पर "जय श्री राम" का नारा लगाया । भगवान राम की जय हो, यह कहना इस्लामिक मौलवी सोहेल अहमद कासमी ने इस्लाम विरोधी माना और उसने फिरोज अहमद को इस्लाम से बेदखल करने का फतवा जारी कर दिया । 

जैसा कि आमतौर पर माना जा रहा है - 2050 आते आते भारत दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश होने की संभावना है | ऐसे में इन फतवों और अन्य इस्लामी मुद्दों के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है, क्योंकि ये व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

पटना से प्रकाशित होने वाले उर्दू अखबार रोजनामा संगम के 31 जुलाई के अंक में फतवे का समाचार छपा: "एक मुस्लिम जो कहता है कि मैं राम और रहीम (अल्लाह) दोनों की इबादत करता हूँ और सभी धर्मों को भी आदर देता हूँ, ऐसे व्यक्ति को इस्लाम से निष्कासित कर दिया जाएगा । "

उर्दू दैनिक के अनुसार फतवे में यह भी कहा गया था कि इस गलती के कारण, खुर्शीद का विवाह शून्य हो गया है। ऐसे मुसलमान के साथ किसी भी प्रकार का संबंध रखना आम मुसलमानों के लिए सही नहीं है। स्पष्ट ही ऐसे फतवे एक मुसलमान और आम भारतीय मुस्लिम समाज के निजी जीवन पर असाधारण प्रभाव डालते है।

कासमी, उस इस्लामी संगठन इमारत शरिया के सचिव हैं, जो भारत में शरिया शासन को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है, खासकर मुसलमानों के दिन-प्रतिदिन की आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक जिंदगी में हर संभव दखल रखते हैं । अपनी वेबसाइट पर, इमारत शरिया कहता है: "इस्लाम में व्यक्तिगत जीवन के लिए कोई जगह नहीं है। पवित्र कुरान और हमारे प्यारे पैगंबर के जीवन का अध्ययन स्पष्ट रूप से बताता है कि सामूहिक जीवन का सिद्धांत ही जीवित आत्मा है और एक अक्ष है जिसके चारों ओर संपूर्ण इस्लामी आज्ञा घूमती है। " बयान स्पष्ट करता है कि इस्लाम अपने अनुयायियों से पूरी तरह से समर्पण मांगता है।

इमारत शरिया की स्थापना 1921 में हुई थी और बिहार, झारखंड और ओडिशा राज्यों में उसका व्यापक प्रभाव है । एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद की अध्यक्षता में आयोजित हुए एक इस्लामिक सम्मेलन में इमारात शरिया की कल्पना की गई थी। इस वेबसाइट के पन्नों पर मैंने तर्क दिया है कि भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद, वस्तुतः एक कट्टरपंथी जिहादी उपदेशक थे जो किसी भी दृष्टि से इस्लामिक स्टेट के अबू बक्र अल-बगदादी से अलग नहीं थे।

हालांकि भारतीय कानून के मुताबिक़ ज्यादातर फतवे अवैध हैं, और शरिया के अनुसार भी ये केवल इस्लामी कानूनी राय हैं। फ़तवा एक सवाल और जवाब के रूप में होते हैं, एक प्रश्न के जवाब में मुफ्ती द्वारा इसे जारी किया जाता है। भले ही ये कानूनी रूप से लागू नहीं होते हैं, किन्तु अधिकाँश मुसलमान इन्हें अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन पर लागू कर लेते हैं। फतवा किसी भी विषय पर जारी किया जा सकता है, अर्थात् प्रार्थना और विवाह में क्या शिष्टाचार और मानदंडों का पालन किया जाता है, या शौचालय में प्रवेश करते समय कौन से पैर को पहले रखा जाना चाहिए। ऐसे कई फतवे दूसरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं, और मुसलमानों ने अपने रोजमर्रा के जीवन में उनका पालन किया है।

किन्तु दूसरे प्रकार के फतवे जो व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, चिंता का विषय बन जाते हैं । फतवा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए खतरे के रूप में कैसे उभरा है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण तस्लीमा नसरीन हैं | एक फतवे के बाद हर जगह इस उदार लेखिका को यात्रा से या भाषण देने से प्रभावी ढंग से रोका गया है। फतवा एक धार्मिक और राजनीतिक हथियार हैं, जिसका प्रयोग एक इस्लामी मौलवी विरोधियों के खिलाफ उन्माद पैदा करने के लिए करता हैं।

इमारात शरिया का कासमी एक संवैधानेतर अधिकारी है जो बिहार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री जैसे भारतीय नागरिकों की संवैधानिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करने में संलग्न है। यह संगठन "मुसलमानों के बीच इस्लाम की न्यायिक व्यवस्था स्थापित करना और उसे कार्यान्वित करना चाहता है।"

हिंदुस्तान टाईम्स के अनुसार कासमी द्वारा फतवा जारी किए जाने के बाद, बिहार के मंत्री ने जय श्री राम का नारा लगाने की अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने की मांग की। मंत्री का मानना ​​था कि इस तरह के नारे सकारात्मक हिंदू-मुस्लिम संबंधों को बढ़ावा देते हैं। इस्लाम सभी धर्मों के लिए सम्मान सिखाता है । अगर जय श्री राम कहने से मैं मुसलमानों के लिए कुछ अच्छा कर सकता हूं, तो इसके खिलाफ चीख पुकार क्यों? 

हालांकि 31 जुलाई के रोजनामा संगम के मुताबिक, इसके तुरंत बाद, मंत्री मुफ्ती कासमी और अन्य मौलवियों के पास पहुंचे और अफसोस व्यक्त करते हुए दुबारा कलमा पढ़कर इस्लाम में फिर से दाखिल हुए ।

फतवों से परिस्थितियों में कई मुद्दे पैदा होते हैं। पहला तो यह कि फ़तवा नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खतरा बनकर उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से प्रभावी रूप से वंचित करता है; दूसरा यह कि फतवे के कारण एक धार्मिक समुदाय के सदस्यों द्वारा अन्य भारतीय नागरिकों का सामाजिक बहिष्कार किया जा सकता है, जिससे देश को गंभीर आर्थिक और राजनीतिक नुकसान हो सकता है। तीन, फतवा बैसे तो केवल मौलवियों की राय भर है, जिसे मानने की कोई बाध्यता नहीं है, किन्तु व्यावहारिक तौर पर वे विरोधियों के प्रति भीड़ को उकसाते हैं; चौथा यह कि फतवा अदालतों के आदेशों की धज्जियां उड़ा सकता है, एक पिता के शब्दों में, कई बार तो यह लड़की के दूल्हा चुनने की स्वतंत्रता पर भी बंदिश लगाते हैं |

जैसा कि जर्मन सैन्य विचारक कार्ल वॉन क्लॉज़विट्ज़ ने कहा, "युद्ध एक प्रकार से राजनीति की निरंतरता है।" इसी प्रकार मैं कहता हूं कि फतवा इस्लामी कट्टरपंथियों और जिहादियों के हाथों में एक राजनीतिक हथियार है, फतवा अपने आप में जिहाद हैं। भारत को चाहिए कि वह फतवे जारी करने जैसी संवैधानेतर प्रथाओं पर अंकुश लगाने और उनसे निपटने के लिए प्रभावी कार्यविधि विकसित करने पर विचार करे । एक आदर्श कदम समान नागरिक संहिता हो सकता है, जो फतवा जारी करने वाली गतिविधियों को रोकेगा | मैंने व्यापक सार्वजनिक चर्चा के लिए समान नागरिक संहिता का पहला खाका तैयार किया है | साथ ही सोशल मीडिया पर फतवा उद्योग को कैसे नियंत्रित और विनियमित किया जाए, उसके व्यावहारिक तरीके क्या हो सकते हैं, इस पर चर्चा जारी है । 

यह एक विचार है - आप भी अपने विचार साझा करने को स्वतंत्र हैं | फतवा जारी करने के लिये मौलवियों की एक परिषद बनाई जा सकती है, जिससे चाहे जिस मौलवी को फतवा जारी करने से रोका जा सके । ऐसी परिषद को सरकार का समर्थन हो सकता है, लेकिन जरूरी है कि वह भारतीय राज्य का हिस्सा न हो। अधिकांश फतवे से संबंधित मुद्दे भी भारत में कानून के शासन की विफलता को दर्शाते हैं; सरकार को पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधारों और कानून के शासन हेतु पुलिस कर्मियों को प्रशिक्षण देने पर जोर देना चाहिए, यह सलाह भी दी जा सकती है। सरकार पूरे भारत में महाराष्ट्र के सामाजिक बहिष्कार कानून की गुंजाइश भी बढ़ा सकती है, जिससे मुसलमानों की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले विषय फतवे के दायरे से बाहर हो जाएँ | 

अगर राजनीतिज्ञों को "समान नागरिक संहिता" शब्द बोलने में संकोच होता है, तो सरकार को मानवाधिकार अधिनियम पर बहस करना और उसे अधिनियमित करना चाहिए, जिसमें उपरोक्त सभी सुझावों को तथा भारत के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के उपयोगी प्रावधानों को समाहित किया जा सकता है । 

लेखक, बीबीसी के पूर्व पत्रकार, फर्स्टपोस्ट के सहयोगी संपादक और ओपन सोर्स इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के कार्यकारी निदेशक हैं। 

साभार आधार - http://www.firstpost.com/india/fatwas-restrict-individuals-constitutional-freedom-india-must-create-laws-to-insulate-citizens-3877819.html

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