35A जैसे दमनकारी कानून संविधान की आत्मा का हनन - डॉ नीलम महेंद्र



महाराष्ट्र के प्रमुख विचारक स्व. नरहर क्रोणकर जी ने लिखा कि जो महापुरुष होते हैं, वे काल से ऊपर उठकर दो सौ तीन सौ साल पीछे और दो सौ तीन सौ साल आगे देखते हैं ! इसलिए उनका जीवन लक्ष्य, उनके कार्य, उनके जीवन में पूर्ण न भी हुए तो उनके बाद भी चलते रहते हैं !

1674 में शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ ! आम जन को लगा कि बस अब ये शिवाजी सीधे औरंगजेब पर चढ़ दौड़ेंगे ! किन्तु 1674 से 1680 में शिवाजी की मृत्यु तक ऐसा कुछ हुआ नहीं ! औरंगजेब दिल्ली में था, किन्तु उससे विपरीत दिशा में दक्षिण में तमिलनाड के जिन्जी तक शिवाजी ने अपने राज्य का विस्तार किया ! महाराष्ट्र में अपने अधिपत्य के 300 किलों में से प्रत्येक किले को मजबूती दी, उसे अभेद्य बनाया ! प्रजा की सुख समृद्धि की ओर ध्यान दिया ! प्रजा बड़ी हैरान कि यह हो क्या रहा है ! 

बाद में शिवाजी की मृत्यु के बाद जब औरंगजेब ने महाराष्ट्र पर चढ़ाई की, तब शिवाजी के उत्तराधिकारी राजाराम उस समय जिन्जी पर थे, इतनी जल्दी उनका वापस लौटना संभव नहीं था ! इसके बाबजूद औरंगजेब को एक एक किला जीतना मुश्किल हो गया ! एक किला जीतने में दो दो तीन तीन साल लगते थे ! तीन चार किले जीतकर आगे बढ़ा तब तक मराठे पहले जीते किले वापस अपने अधिकार में ले लेते थे ! 27 साल तक औरंगजेब लडता रहा और आखिर में बहीं मर गया और वहीं पर मुग़ल सल्तनत की कबर खुद गई !

क्रोणकर लिखते हैं कि 1674 से 1680 तक शिवाजी ऐसे औरंगजेब से लडे, जो महाराष्ट्र में आया ही नहीं था ! और 1680 के बाद 27 साल औरंगजेब ऐसे शिवाजी से लड़ा जो इस दुनिया में ही नहीं थे !

जो बात शिवाजी के लिए सकारात्मक लिखी गई, वह हमारे प्रथम प्रधान मंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू के लिए नकारात्मक लिखी जा सकती है ! विशेष रूप से कश्मीर में आज घट रही घटनायें तो भूतकाल में सत्ताधीशो द्वारा किये गए क्रिया कलापों का ही परिणाम है ! 

मूर्खताओं और तानाशाही की हद देखिये –

संविधान में एक भी शब्द जोड़ने या घटाने के लिए संविधान संशोधन आवश्यक है, जिसका अधिकार केवल और केवल संसद को है, उसके लिए भी दो तिहाई बहुमत आवश्यक है | सर्वोच्च न्यायालय भी किये गए संशोधन की वैधानिकता की जांच कर सकता है | किन्तु 14 मई १९५४ को, इस प्रक्रिया की धज्जियां उड़ाते हुए, कश्मीर को शेष भारत के कानूनों से प्रथक करने वाला अनुच्छेद ३५ अ महज राष्ट्रपति के एक कार्यपालक आदेश के माध्यम से जोड़ दिया गया | इस अनुच्छेद के लिए नातो संसद में कोई चर्चा हुई और नाही कोई मत विभाजन | निश्चय ही यह सम्पूर्ण प्रक्रिया घोर अलोकतांत्रिक और तानाशाही पूर्ण थी |

यह सुखद है कि अब सर्वोच्च न्यायालय ने एक विशेष याचिका के माध्यम से इसकी संवैधानिकता के प्रश्न को संज्ञान में ले लिया है | डॉ. नीलम महेंद्र जी द्वारा विस्तार से इस अनुच्छेद की व्याख्या प्रस्तुत आलेख में की है | - सम्पादक 

भारत का हर नागरिक गर्व से कहता कि कश्मीर हमारा है लेकिन फिर ऐसी क्या बात है कि आज तक हम कश्मीर के नहीं हैं?
भारत सरकार कश्मीर को सुरक्षा सहायता संरक्षण और विशेष अधिकार तक देती है लेकिन फिर भी भारत के नागरिक के कश्मीर में कोई मौलिक अधिकार भी नहीं है?
2017 में कश्मीर की ही एक बेटी चारु वलि खन्ना एवं 2014 में एक गैर सरकारी संगठन 'वी द सिटिजंस' द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 35A के खिलाफ याचिका दायर की गई है जिसका फैसला दीवाली के बाद अपेक्षित है।
आज पूरे देश में 35A पर जब बात हो रही हो और मामला कोर्ट में विचाराधीन हो तो कुछ बातें देश के आम आदमी के जहन में अतीत के साए से निकल कर आने लगती हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के यह शब्द भी याद आते हैं कि,
" कश्मीरियत जम्हूरियत और इंसानियत से ही कश्मीर समस्या का हल निकलेगा " ।
किन्तु बेहद निराशाजनक तथ्य यह है कि यह तीनों ही चीजें आज कश्मीर में कहीं दिखाई नहीं देती।
कश्मीरियत, आज आतंकित और लहूलुहान है।
इंसानियत की कब्र आतंकवाद बहुत पहले ही खोद चुका है
और जम्हूरियत पर अलगवादियों का कब्जा है।
और मूल प्रश्न यह है कि जम्मू कश्मीर राज्य को आज तक विशेष दर्जा प्रदान करने वाली धारा 370 और 35A लागू होने के बावजूद कश्मीर आज तक 'समस्या' क्यों है? कहीं समस्या का मूल ये ही तो नहीं हैं?
जब भी देश में इन धाराओं पर कोई भी बात होती है तो फारूख़ अब्दुल्लाह हों या महबूबा मुफ्ती कश्मीर के हर स्थानीय नेता का रुख़ आक्रामक और भाषण भड़काऊ क्यों हो जाते हैं?
आज सोशल मीडिया के इस दौर में धारा 370 और 35A 'क्या है' यह तो अब तक सभी जान चुके हैं लेकिन यह 'क्यों हैं ' इसका उत्तर अभी भी अपेक्षित है।
धारा 370 जो कि भारतीय संविधान के 21 वें भाग में समाविष्ट है और जिसके शीर्षक शब्द हैं "जम्मू कश्मीर के सम्बन्ध में अस्थायी प्रावधान" ,
वो 370 जो खुद एक अस्थायी प्रावधान है,उसकी आड़ में 14 मई 1954 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अनुशंसा पर तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा 35A को 'संविधान के परिशिष्ट दो ' में स्थापित किया गया था।
2002 में अनुच्छेद 21 में संशोधन करके 21A को उसके बाद जोड़ा गया था तो अनुच्छेद 35A को अनुच्छेद 35 के बाद क्यों नहीं जोड़ा गया, उसे परिशिष्ट में स्थान क्यों दिया गया?
जबकि संविधान में अनुच्छेद 35 के बाद 35a भी है लेकिन उसका जम्मू कश्मीर से कोई लेना देना नहीं है।
इसके अलावा जानकारों के अनुसार जिस प्रक्रिया द्वारा 35 A को संविधान में समाविष्ट किया गया वह प्रक्रिया ही अलोकतांत्रिक है एवं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 का भी उल्लंघन है जिसमें निर्धारित प्रक्रिया के बिना संविधान में कोई संशोधन नहीं किया जा सकता।
एक तथ्य यह भी कि जब भारत में विधि के शासन का प्रथम सिद्धांत है कि 'विधि के समक्ष' प्रत्येक व्यक्ति समान है और प्रत्येक व्यक्ति को 'विधि का समान ' संरक्षण प्राप्त होगा तो क्या देश के एक राज्य के "कुछ" नागरिकों को विशेषाधिकार देना क्या शेष नागरिकों के साथ अन्याय नहीं है?
यहाँ "कुछ" नागरिकों का ही उल्लेख किया गया है क्योंकि 35 A राज्य सरकार को यह अधिकार देती है कि वह अपने राज्य के 'स्थायी नागरिकों ' की परिभाषा तय करे। इसके अनुसार जो व्यक्ति 14 मई 1954 को राज्य की प्रजा था या 10 वर्षों से राज्य में रह रहा है वो ही राज्य का स्थायी नागरिक है
इसका दंश झेल रहे हैं वो परिवार जो 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से भारत में आए थे। जहाँ देश के बाकी हिस्सों में बसने वाले ऐसे परिवार आज भारत के नागरिक हैं वहीं जम्मू कश्मीर में बसने वाले ऐसे परिवार आज 70 साल बाद भी शरणार्थी हैं।
इसका दंश झेल रहे हैं 1970 में प्रदेश सरकार द्वारा सफाई के लिए विशेष आग्रह पर पंजाब से बुलाए जाने वाले वो सैकड़ों दलित परिवार जिनकी संख्या आज दो पीढ़ियाँ बीत जाने के बाद हजारों में हो गई है लेकिन ये आज तक न तो जम्मू कश्मीर के स्थाई नागरिक बन पाए हैं और न ही इन लोगों को सफाई कर्मचारी के आलावा कोई और काम राज्य सरकार द्वारा दिया जाता है।
जहाँ एक तरफ जम्मू कश्मीर के नागरिक विशेषाधिकार का लाभ उठाते हैं इन परिवारों को उनके मौलिक अधिकार भी नसीब नहीं हैं।
जहाँ पूरे देश में दलित अधिकारों को लेकर तथाकथित मानवाधिकारों एवं दलित अधिकार कार्यकर्ता बेहद जागरूक हैं और मुस्तैदी से काम करते हैं वहाँ कश्मीर में दलितों के साथ होने वाले इस अन्याय पर सालों से मौन क्यों हैं?
ये परिवार जो सालों से राज्य को अपनी सेवाएं दे रहे हैं विधानसभा चुनावों में वोट नहीं डाल सकते, इनके बच्चे व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नहीं ले सकते।
क्या यही कश्मीरियत है?
क्या यही जम्हूरियत है?
क्या यही इंसानियत है?
वक्त आ गया है इस बात को समझ लेने का कि संविधान का ही उपयोग संविधान के खिलाफ करने की यह कुछ लोगों के स्वार्थों को साधने वाली पूर्व एवं सुनियोजित राजनीति है ।
क्योंकि अगर इस अनुच्छेद को हटाया जाता है तो इसका सीधा असर राज्य की जनसंख्या पर पड़ेगा और चुनाव में उन लोगों को वोट देने का अधिकार मिलने से जिनका मत अभी तक कोई मायने नहीं रखता था निश्चित ही इनकी राजनैतिक दुकानें बन्द कर देगा।
आखिर ऐसा क्यों है कि जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा होते हुए भी एक कश्मीरी लड़की अगर किसी गैर कश्मीरी लेकिन भारतीय लड़के से शादी करती है तो वह अपनी जम्मू कश्मीर राज्य की नागरिकता खो देती है लेकिन अगर कोई लड़की किसी गैर कश्मीरी लेकिन पाकिस्तानी लड़के से निकाह करती है तो उस लड़के को कश्मीरी नागरिकता मिल जाती है।
समय आ गया है कि इस प्रकार के कानून किसके हक में हैं इस विषय पर खुली एवं व्यापक बहस हो।
कश्मीर के स्थानीय नेता जो इस मुद्दे पर भारत सरकार को कश्मीर में विद्रोह एवं हिंसा की बात करके आज तक विषय वस्तु का रुख़ बदलते आए हैं बेहतर होगा कि आज इस विषय पर ठोस तर्क प्रस्तुत करें कि इन दमनकारी कानूनों का बोझ देश क्यों उठाए ?
इतने सालों में इन कानूनों की मदद से आपने कश्मीरी आवाम की क्या तरक्की की?
क्यों आज कश्मीर के हालात इतने दयनीय है कि यहाँ के नौजवान को कोई भी 500 रु में पत्थर फेंकने के लिए खरीद पाता है?
देश आज जानना चाहता है कि इन विशेषाधिकारों का आपने उपयोग किया या दुरुपयोग?
क्योंकि अगर उपयोग किया होता तो आज कश्मीर खुशहाल होता
खेत खून से नहीं केसर से लाल होते
डल झील में लहू नहीं शिकारा बहती दिखतीं
युवा एके 47 नहीं विन्डोज़ 7 चला रहे होते और चारु वलि खन्ना जैसी बेटियाँ आजादी के 70 साल बाद भी अपने अधिकारों के लिए कोर्ट के चक्कर लगाने के लिए विवश नहीं होतीं।

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