हिन्दू धर्म पर मुख्य आक्षेप और समाधान - भाग 1


अंग्रेजी साप्ताहिक “ऑर्गेनाइजर”, (13-19 फरवरी 2006), में एक विस्तृत रपट थी, बेंगलूर शहर में हुई एक विशाल हिन्दू और मुहम्मदी धर्म प्रतिनिधियों कि, जिसमे मुहम्मदी मत के मुख्य प्रवक्ता जाकिर नाइक और हिन्दू धर्म के मुख्य प्रस्तोता श्री रवि शंकर थे ! श्रोतागण मुख्यतः (९५ प्रतिशत) मुसलमान थे ! समयाभाव के कारण अथवा परिस्थिति वश हिन्दू प्रवक्ता खुल कर अपनी बात नहीं कह पाए क्यूंकि निम्नांकित प्रश्न या संदेह बार बार उठाये जाते है और आम हिन्दू को इसकी जानकारी न के बराबर है, इसलिए इन्हें और उनके संक्षिप्त उत्तर दिए जा रहे है ! 

प्रश्न 1. मुसलमानों की परमात्मा कृत एक धर्म पुस्तक है जिसे कुरआन कहते है और सभी मुसलमान इसे ईश्वरीय वाणी मानते है ! इसी प्रकार ईसाइयों की धर्म पुस्तक बाइबल है ! किन्तु हिन्दुओं की सैकड़ों नहीं हजारों धर्म पुस्तकें है, यथा चार वेद; अठारह पुराण, अनेक उपपुराण, सैकड़ों उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता, नाना स्मृतियाँ आदि आदि ! ऐसे में हिन्दू धर्म, धर्म नहीं कपोल कल्पनाओं, मनघडंत दन्त कथाओं और अंधविश्वासों का जंगल है !

उत्तर – यह अज्ञान मुहम्मदी और मसीही प्रचारकों ने फैलाया हुआ है ! यह तो सर्वमान्य है कि हिन्दू धर्मियों की सबसे प्राचीन और सर्वमान्य धर्म पुस्तकें वेद है ! वही वेद हिन्दू धर्म के मूल मान्य ग्रन्थ है ! परमात्मा का सर्वोत्तम सर्वसम्मत नाम ‘ओ३म्’ (ॐ) है जिसे सभी हिन्दू सम्प्रदाय, यथा वैदिक, पौराणिक, योगी, गृहस्थ, गुणी, निर्गुणी, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि स्वीकार करते है ! यह नाम वेद का ही दिया हुआ है ! परमेश्वर के अन्य नाम गुणवाचक यानी विशेषण ही है ! वेदों को ईश्वरीय ज्ञान और अपौरुषेय कहा गया है ! क्यूँकि, उसकी रचना किसी मनुष्य ने नहीं की ! वैदिक मंत्र ईश्वरीय प्रेरणा से विशिष्ठ ऋषियों-मुनियों को उनकी तपश्चर्या या गहन ध्यानावस्था में अनुभूत हुए थे जिनका ज्यौं-का-त्यौं उन्होंने उच्चारण किया ! इसलिए वेद वचन को स्वतः प्रमाण माना गया है ! यह भी जानने योग्य है कि वैदिक मंत्र ही मंत्र कहलाते है – अन्य ग्रंथों की रचनाएँ श्लोक या सूक्त कहलाती है !

वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण का अत्याधिक महत्त्व है ! इसलिए उन्हें सदगुरुओं के पास शिष्य भाव से पढ़ना आवश्यक है ! इसलिए उन्हें श्रुति की संज्ञा दी गयी है ! इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वैदिक काल में ऋषि गण पढना लिखना नहीं जानते थे या वेदों को लिपि बद्ध करने की मनाही थी ! 

जैसे जैस सभ्यता का विकास हुआ, वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की कालांतर में व्याख्याएं और टीकाएँ भी लिखी गयी ! प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति और विस्तार के साथ सांसारिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में भी विकास होता गया ! परिणामस्वरूप 6 शास्त्रों की रचना हुई ! इतने बड़े एशिया महाद्वीप में, जिसे जम्बूद्वीप कहा जाता था, कई प्रकार के मानव समुदाय थे जिन्हें अपने परम्परागत पारिवारिक रीति रिवाजों से भी लगाव था ! इसलिए समय समय पर, स्थान विशेष की सुविधानुसार, विभिन्न स्मृतियाँ बनती गयीं ! ये स्मृतियाँ मूल रूप से आचार संहिताएं है ! आज लगभग 24 स्मृति ग्रन्थ और अनेक श्रोत ग्रन्थ है ! सबसे वृहद और प्राचीन मनु स्मृति है किन्तु वर्तमान मनु स्मृति में काफी मिलावट बाद में की गयी है ! यह दूषित प्रक्रिया ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लगाकर नवीं शताब्दी तक चली जब हिन्दू धर्म के विभिन्न मत-मतान्तरों में ईर्ष्या, द्वेष का संचार होने लगा और विदेशी आक्रमणकारियों का बड़ी संख्या में भारत में प्रवेश हुआ ! इसी काल खंड में पुराणों की रचनाएँ हुई ! यह सभी पुराण अलंकारिक भाषा में, रूपकों के माध्यम से, सृष्टि निर्माण, इतिहास और सभ्यताओं के क्रमिक विकास की विभिन्न दार्शनिकों के द्वारा की गयी व्याख्याओं के संकलन है ! इनमे काफी हद तक मिलावट और पुनरावृत्ति दोष है ! इसका गहन अध्यन और इसके पश्चात इनमे शुद्धि की आवश्यकता है जो एक सार्वभौमिक हिन्दू आचार्य सभा के तत्वाधान में ही हो सकता है !

संतोष की बात यह है कि हमारे वेदों, शास्त्रों, ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों म मिलावट नहीं हुई है ! इसलिए परवर्ती ग्रंथों की मिलावट को वेदों के साथ तुलना करते हुए अशुद्धियों और दूषित सामग्री को निकालना आसान है ! रामायण और महाभारत ऐतिहासिक महाकाव्य है और इसी रूप में इनका मूल्यांकन होना चाहिए !

संक्षेप में, वेद हिन्दू धर्म, जिसका वास्तविक नाम सनातन धर्म या वैदिक धर्म है, के मूल प्रामाणिक धर्म ग्रन्थ है ! अन्य धर्म ग्रन्थ सहायक ग्रन्थ है, यथा, छः शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद, स्मृति ग्रन्थ ! स्मृति ग्रन्थ दैनिक जीवन से सम्बंधित है और स्थान तथा काल के अनुसार परिवर्तनशील है ! इसलिए समस्त स्मृतियों और शास्त्र, वेदों को ही प्रमाण मानती है !

प्रश्न 2. कुरआन के समान वेदों में भी मूर्ति पूजा का स्पष्ट निषेध है ! इसलिए क्योँ नहीं सारे हिन्दू धर्मी मूर्ति पूजा को त्याग कर मुहम्मदी धर्म को अपना लेते ?

उत्तर – वास्तविकता यह है कि कोई भी हिन्दू धर्मी उस अर्थ में मूर्तिपूजक नहीं है जिस अर्थ में इस शब्द का ईसाई और मुहम्मदी मत वाले प्रचार करते है ! प्रत्येक हिन्दू धर्मी जानता है और मानता है कि परमात्मा निराकार है, सर्वव्यापी है ! तो फिर उसकी मूर्ति या चित्र कैसे बन सकता है ? तथापि, वह यह भी मानता है कि परमात्मा का कण कण में वास है ! वह जगन्नियंता हमारा पिता भी है, माता भी है (त्वमेव माता च पिता त्वमेव) ! क्वाल समझने मात्र के लिए हिन्दू चिंतकों ने परमात्मा के तीन मुख्य कार्यों को तीन वर्गों में बांटा है – (1) उत्पत्ति, निर्माण, (2) निर्मित सृष्टि का पालन-पोषण संवर्धन, (3) क्षरण, क्योंकि जो भी वस्तु उत्पन्न होती है उसका एक न एक दिन क्षरण, अंत, अथवा विनाश होना निश्चित है ! इन तीनों शाश्वत ईश्वरीय क्रियाओं को आम जनता को बोध गम्य बनाने के लिए अथवा काव्यात्मक रूप देने के लिए परवर्ती कवियों व विद्वानों, ने इन्हें रूपित कर दिया ! उत्पत्ति व निर्माण को ‘ब्रह्मा’, पालन पोषण संवर्धन को ‘विष्णु’ और क्षरण अथवा विनाश को ‘रूद्र’ रूप डे दिया ! इस सन्दर्भ में यह भी जानना आवश्यक है कि हिन्दू धर्म के अनुसार कोई वस्तु सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होती, बल्कि उसका रूप बदलता रहता है ! इसलिए, प्रत्येक मृत्यु के साथ उसका पुनर्जन्म और जन्म के साथ मृत्यु का अटूट सम्बन्ध है ! इसलिए, प्रत्येक प्रलय के बाद सृष्टि की पुनः रचना होती है ! इस मानव शरीर की मृत्यु का अर्थ है कि उसके प्रकृति दत्त तत्वों (मिटटी, वायु, अग्नि, जल, आकाश) का विलीनीकरण और सत्य तत्व आत्मा का शरीर धारण करना पुनर्जन्म !

इसी सत्य का निरूपण करता है वह वेद मंत्र, जिसे बिना अर्थ जाने ‘सेक्युलरवादी’ यानी सर्वधर्म समभाव’ के प्रचारक और प्रणेता बखान करते रहते है, इस प्रकार है –

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: (ऋग्वेद, मंडल, 1, सूत्र 164, मंत्र 46)
अर्थात – ‘उस एक परम सत्य परमेश्वर को कोई इन्द्र कह देते है, कोई मित्र, कोई वरुण, कोई अग्नि, कोई दिव्य, कोई गरुत्मान (महान आत्मा), कह देता है ! विद्वान व कथा वाचक लोग उसी एक सनातन सत्य को अनेक रूपों में बखान करते है, चाहे अग्नि रूप में चाहे परम ज्योति रूप में, चाहे यम रूप में और चाहे विश्वात्मा रूप में !’ इस मंत्र का किसी भी तरह यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि सब धर्म, यानी हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म या अन्य धर्म बराबर है या एक ही सत्य का प्रतिपादन करते है ! वास्तविकता यह है कि उपरोक्त मंत्र के प्रकट होने के समय ईसाई, इस्लाम या किसी और मत का अस्तित्व ही नहीं था !

परमात्मा के उपरोक्त नामों और उनके गुणों की कल्पना कर कलाकारों ने अपनी अपनी कल्पना से ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, शिव इन्द्र आदि देवताओं की प्रतिमाएं बना डाली ! तथापि उन सबकी पूजा अर्चना का पहला शब्द ‘ओ३म’ ही होता है जो प्रभु का पुरुष वाची नाम है और इस शब्द का प्रयोग हिन्दू धर्म की सभी शाखाओं (जैन, बौद्ध, सिक्ख समेत), परमात्मा के लिए करती है ! कुछ व्यक्तियों में माता के प्रति श्रद्धाभाव अधिक होता है ! सो, वे ईश्वर को माता रूप में दखना पसंद करते है ! उन्होंने माता दुर्गा के रूप में उसी ओंकार के दर्शन किये ! ये सभी मूर्तियाँ परमात्मा के ही विभिन्न स्वरूपों का ध्यान करने के साधन या प्रतीक मात्र है न कि परमात्मा ! 20 वीं शताब्दी के शुरू तक साधारण पढ़े-लिखे हिन्दू धर्मी को भी यह पता था ! अंग्रेजी शिक्षा और मार्क्सवादी प्रचार ने विद्वान हिन्दू-धर्मियों को भी भटका दिया है !

यजुर्वेद (३२/३) में ठीक ही लिखा है, “न तस्य प्रतिमा अस्ति”, अर्थात “उस निराकार और सर्वव्यापी परमेश्वर की कोई प्रतिमा नहीं हो सकती !” किन्तु इसका यह तो अर्थ नहीं कि जिनकी प्रतिमा न बन सके उसका सांकेतिक अथवा प्रतीकात्मक रूप में ध्यान भी नहीं हो सकता !

वर्तमान काल में हिन्दू-धर्मियों में प्रतीक पूजा के स्थान पर मूर्ति पूजा का विकार चल पड़ा था जिसका खंडन आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती को करना पड़ा ! वैसे स्वयं उन्होंने अपने प्रसिद्द ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के सांतवे समुल्लास में समाधियोग द्वारा आत्मा का परमात्मा से योग के सन्दर्भ में उपासना शब्द को परिभाषित करते हुए पातंजलि योग दर्शन में वर्णित यम,नियम आदि का सम्पूर्ण रूप से पालन करने का निर्देश दिया है ! उसी पातंजलि योग दर्शन के समाधिपाद – 1 के दूसरे और तीसरे सूत्र में योग का ध्येय और लक्षण बताते हुए कहा है, “योगश्चित्तवृति निरोधः” (1/2), अर्थात मन की चंचल वृत्तियों का निरोध, यानी नियंत्रण, ही योग है ! अगले सूत्र (1/3) में योग का फल बताते कहा गया है, “तदा द्रष्टुः स्वरुपेऽवस्थानम्”, अर्थात जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है उस समय दृष्टा यानी आत्मा अपने स्वरुप में स्थित हो जाती है ! क्यूंकि इससे पहले वृत्ति के अनुरूप ही आत्मा का स्वरुप बना रहता है ! (1/4) अब, आगे चित्त की विभिन्न वृत्तियाँ, उनके निरोग के उपाय और वित्त की स्थिरता के उपायों में एक उपाय यह भी बताया है, “यथा अभिमत ध्यानाद्दा” (1/39), अर्थात ‘अपनी रूचि अनुसार अपने ईष्ट (देव) का ध्यान करने से भी चित्त की स्थिरता आती है !’ सो, प्रतिमा अथवा मूर्ति और कुछ भी नहीं, केवल आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के साधन स्वरुप मन को एकाग्र करने की एक विधि, या क्रियात्मक उपाय है और उसी दृष्टी से मूर्ति का महत्त्व समझना चाहिए !

मानव मात्र का स्वभाव विश्व भर में एक जैसा है ! उपरोक्त रूप में मूर्ति पूजा का प्रचलन मूर्ति पूजा के घोर विरोधियों में भी व्याप्त है ! मुहम्मदियों का विश्व के कोने-कोने से हजयात्रा के लिए हजारों मील चलकर, लाखों रुपये खर्च करके मक्का में ‘काबा’ का दर्शन करने जाना उसकी परिक्रमा करना, उसे चूमना, ईसाइयों का ईसा मसीह के जन्म दिन पर उसके जन्म स्थान, यरूशलम स्थित बीथलहीम की यात्रा करना, सिक्ख बंधुओं द्वारा गुरु ग्रन्थ साहिब की पोथी शीश पर रखकर शोभा यात्रा निकालना, इसी अवधारणा के कारण पुण्य कार्य कहलाते है ! केवल हिन्दू धर्मियों की मूर्ति पूजा के लिए भर्त्सना करना अनुचित है !

प्रश्न 3. परमात्मा की चार हाथों वाले विष्णु तथा अनेकों अन्य रूपों में की जाने वाली हिन्दुओं की व्याख्याएं निरर्थक, अव्यवहारिक और गलत है ! यहाँ तक कि वे इंसान तक को भगवान् की पदवी दे डालते है !

उत्तर- हिन्दू धर्म पर यह आक्षेप अज्ञान सूचक और दूषित मनोवृत्ति का प्रमाण है ! तात्विक दृष्टी से हिन्दू धर्म सभी चार-अचर वस्तुओं में सर्वव्यापी परमेश्वर को देखता है ! श्वेताश्वर उपनिषद, (3/19), में कहा गया है, “अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु : सा श्रीनोत्वकर्ण :| सा वेत्तिविश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमहुरग्रयम पुरुषं पुराणं ||” परमेश्वर के हाथ नहीं है, पर व्यापक होने पर सब स्थानों पर जाता है, आँखें नहीं है, पर सब कुछ देखता है, कान नहीं है, पर सबकुछ सुनता है, आदि आदि” ! संत तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में इसी सत्य को कुछ यूं कहा है, “बिनु पग चलइ सुनहि बिनु काना। कर बिनु कर्म करहिं विधि नाना .....” “वह परमेश्वर बिना पाँव के सब जगह जाता है ; बिना कान के सब कुछ सुनता है ; बिना हाथ के सारी क्रियाएं करता है आदि-आदि !” इन सभी वाक्यों से स्पष्ट है कि हिन्दू धर्मी अच्छी तरह जानता है कि परमेश्वर निराकार है, तथापि सारा ब्रहमाण उसी से ओत-प्रोत है ! यजुर्वेद (40,5) कहता है “तदेजति तन्‍नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके | तदन्‍तरस्‍य सर्वस्‍य तदु सर्वस्‍यास्‍य बाह्यत:”, “वह परमात्मा चलता है, पर स्वयं नहीं भी चलता, वह दूर भी है, पास भी; वह सबके भीतर है और सबके बाहर भी” ! परमात्मा के इस अनंत और सर्वव्यापी रूप का ही वर्णन सभी मान्य हिन्दू ग्रंथों में है ! इसलिए उसके चार हाथ, बारह हाथ या हजार हाथ, हजार आंकें, मूंह आदि बनाना मनुष्य की अपनी निजी कल्पना और अनुभूति की अभिव्यक्ति है ! इस मानव प्रकृति के कारण ही संत तुलसीदास ने कहा. “जाकी रही भावना जैसी, प्रभू मूरत देखि तिन जैसी !”

प्रश्न 4. हिन्दू धर्म का प्रत्येक वस्तु में परमात्मा को देखना अनुचित है ! इस्लाम अल्लाह (परमात्मा) को केवल रचनाकार मानता है, रचना को नहीं और यही सही दृष्टिकोण है और इसे ही सबको ग्रहण करना चाहिए !

उत्तर – रचना से ही रचनाकार की प्रतीति होती है, विशेषकर तब जब रचनाकार स्वयं निराकार हो, अत्यंत दूर हो, या पास ! लगभग 200 वर्षों तक इंग्लैंड का राजा या रानी ही हिन्दुस्तान का बादशाह था (या थी), तथापि, जार्ज पंचम को छोड़कर, उनमे से कोई हिन्दुस्तान की धरती पर नहीं आया ! उसकी शासन या राज्य व्यवस्था से ही उसकी उपस्थिति सबको मालूम थी ! परमात्मा तो सभी बादशाहों, या सम्राटों का सम्राट है ! यह प्रथ्वी, सुरव, चन्द्र, तारागण, संसार के सब जीव जंतु, जंगल पहाड़ देखकर ही हम उसकी शक्ति व अस्तित्व अनुमान लगाते है ! इससे सह अस्तित्व और परस्पर सहयोग की भावना पनपती है, जो विश्व शांति के लिए परमावश्यक है ! ईश्वर को मानना पर उसकी कृति को नकारना एक दूषित वृत्ति को जन्म देती है ! इससे असहिष्णुता उत्पन्न होती है ! तेरे-मेरे के झगडे शुरू होते है ! जो अपने स्वभाव के अनुकूल न हो उसे मार देने या नष्ट कर देने का भाव पैदा होता है ! यह भावना मानव जाति के हित में नहीं है ! इसी की उपज है मुहम्मदी अवधारणा कि सारा विश्व अल्लाह का है, अल्लाह केवल मुहम्मदियों का है, इसलिए सारा विश्व मुहम्मदियों का ही है – उन्हें तो इसे येन-केन-प्रकारेण (छल बल या दोनों से), प्राप्त करना या हथियाना उनका धार्मिक कृत्य भी है और राजनैतिक आवश्यकता भी ! इसलिए मुहम्मदी विद्वान, उलेमा, “सह अस्तित्व” या “सर्व-धर्म-समभाव” के सिद्धांत को नहीं मानते ! इसके विपरीत, हिन्दू धर्म की व्यापक दृष्टी, सर्व धर्म समभाव और सह-अस्तित्व के सिद्धांत ही विश्व शांति के सर्वोत्तम उपाय है !

प्रश्न 5. हिन्दू धर्म की यह मान्यता कि परमात्मा मनुष्य अथवा अन्य रूपों म मानव कल्याण के लिए जन्म लेता है, हास्यास्पद है ! सर्वशक्तिमान परमात्मा को मानव मात्र की रक्षा के लिए जन्म लेने की क्या आवश्यकता है जबकि उसका कोई नबी या रसूल (दूत) यह काम बड़े आराम से कर सकता है ?

उत्तर – हिन्दू धर्म की अटूट मान्यता है कि परमेश्वर अजर, अमर, अजन्मा, सर्व व्यापक और सर्व शक्तिमान है ! हिन्दू धर्म की यह भी निश्चित मान्यता है कि जो भी जन्म लेता है उसका मरण अवश्यम्भावी है ! इस प्रकार, हिन्दू धर्म के अनुसार परमेश्वर के स्वयं जन्म लेने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता ! अवतारवाद का अर्थ परमेश्वर का जन्म लेना नहीं है ! वास्तव में अवतारवाद की अवधारणा वैदिक काल के बहुत बाद में आई !

गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है, “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्,”, (गीता, 4/7) अर्थात जब जब धरती पर धर्म की गिरावट होती है और अधर्म का बोल बाला होता है, तब-तब पुनः धर्म राज्य की स्थापना के लिए में अपने आप को, ‘सृजित’ यानि प्रकट कर्ता हूँ !” यहाँ शब्द ‘जन्म लेता हूँ’ नहीं है ! प्रकट होने और जन्मने में बहुत अंतर है ! सच यह है कि जनम-मरण के बंधन से मुक्त कुछ विशिष्ट आत्माएं परमात्मा के सानिध्य में सदा परमात्मा की स्थिति में रहती है, किन्तु विश्व कल्याण की भावना से प्रेरित होकर, समय समय पर, यह आत्माएं अवतरित होती है और प्रयोजन पूरा करने के बाद फिर से परमात्मा के सानिध्य में चली जाती है ! भगवान् कृष्ण ऐसे ही मुक्त आत्मा थे जिनके मुख से महर्षि वेद व्यास ने उपरोक्त घोषणा करवाई है ! इसी वर्ग में आते है भगवान् राम, जिनके जन्म का वर्णन संत तुलसीदास यूं कर्ट है, “भाई प्रकट कृपाला दें दयाला कौशल्या हितकारी”, यानी दीन पर दया और महारानी कौशल्या को यशस्वी करने वाले कृपालु भगवान् राम प्रकट हुए, (जन्मे नहीं) ! ऐसी महान आत्माएं समय की पुकार सुनकर, पापियों को नष्ट करने और सज्जनों की गरिमा पुनर्स्थापित करने, अव्यवस्था की जगह सुव्यवस्था, अनाचार की जगह सदाचार स्थापित करने आती रहती है ! उनके लिए भगवान् नामक विश्लेषण प्रयुक्त होता है, क्यूंकि उनम परमात्मा के कल्याणकारी गुण का विशेष समावेश होता है ! यह ऐसे ही है जैसे मुसलमान लोग अपने विशिष्ट पुरुष को नबी का नाम देते है !

आज के संसार में अनेकों ढोंगी पुरुष और स्त्रियाँ छोटे-मोटे चमत्कार दिखा कर लोगों से पैसा बटोरते है और उसी पैसे के बल पर अपने आपको भगवान् विष्णु या शिव का अवतार प्रचलित कराते है, अपने नाम की आरती करवाते है ! ये सब पाखंडी बाबा लोग हिन्दू धर्म को बदनाम ही नहीं कर रहे बल्कि अत्यंत हानि पहुंचा रहे है ! विश्वस्त सूत्रों स मालूम हुआ है कि इन ढोंगी साधू बाबाओं को हिन्दू समाज को खंडित करने, गलत रास्ते पर डालने के लिए हिन्दू-धर्म विरोधी देशी और विदेशी एजेंसियां भी इन्हें धन और अन्य सामग्री प्रदान करती है ! हिन्दू धर्म को दोष देने की बजाय इन ढोंगियों को दण्डित करने की आवश्यकता है ! गीता का एक श्लोक –

“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||” (4/8)

“सज्जनों के दुःख दूर करने और दुष्टों का नाश करने के लिए तथा धर्म (राज्य) की स्थापना के लिए में समय-समय पर प्रकट होता हूँ !” – अवतार, ईश्वर-दूत, देवी, देवता, नबी आदि कहलाने वालों को परखने की कसौटी है ! ऐसी किसी भी व्यक्ति से प्रश्न कीजिये, “आपने किन दुष्टों का दामन किया, कहाँ धर्म राज्य की स्थापना की ? मदारियों जैसे खेल दिखाने वाले या इक्का-दुक्का रोगी ठीक करने वाले ‘भगवान् नहीं हो जाते !’


(क्रमशः.....)