दीनदयाल जी के अनुसार राजनीति का नियंता कौन - जन सामान्य या कि अमीर घराने ? - प्रोफेसर राकेश सिन्हा

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दीन दयाल उपाध्याय की विचारधारा और उनकी राजनीतिक गतिविधि पार्टी लाइन को पार कर सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती थी, इसीलिए वह आज अपन...



दीन दयाल उपाध्याय की विचारधारा और उनकी राजनीतिक गतिविधि पार्टी लाइन को पार कर सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती थी, इसीलिए वह आज अपने समय की तुलना में अधिक प्रासंगिक है |

दीन दयाल उपाध्याय के जन्म शताब्दी समारोह और कुछ योजनाओं का नामकरण विपक्षी दलों को नागवार गुजरा और विरोध के स्वर मुखरित हुए | उन्होंने आरोप लगाया कि उन्हें राष्ट्रीय प्रतीक बनाया जा रहा है। उपाध्याय महज भारतीय जनसंघ के नेता और आरएसएस के स्वयंसेवक थे, और यही उनकी एकमात्र पहचान है, अतः उनका सम्मान अर्थात संघ व भाजपा की विचारधारा का सम्मान । 

ऐसे में आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक, श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर ने उनके विषय में जो कहा वह विचारणीय है | श्री गोलवलकर ने उन्हें "शत प्रतिशत स्वयंसेवक" के रूप में वर्णित किया। स्वयंसेवक अर्थात स्वेच्छा से समाज सेवा को समर्पित | उनका समूचा दर्शन और विचार सम्पूर्ण राष्ट्र व समाज के लिए उपयोगी हैं | आज प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी में जो ग़रीब हितैषी प्रतिबद्धता द्रष्टिगोचर होती है, उसके पीछे मुख्य प्रेरणा श्री उपाध्याय के व्यक्तित्व और कृतित्व की ही है। वस्तुतः श्री उपाध्याय ने भारत के राजनीतिक क्षेत्र की विचार प्रक्रिया में एक बड़ी भूमिका निभाई।

दलगत राजनीति से इतर समकालीन राजनेताओं पर उनका प्रभाव स्पष्ट है | श्री उपाध्याय की राजनीतिक डायरी की प्रस्तावना वयोवृद्ध कांग्रेसी और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद ने लिखी थी | उन्होंने उपाध्याय को "हमारे समय के सबसे उल्लेखनीय राजनीतिक नेताओं में से एक कहा, देश के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति, एक असाधारण चरित्र का व्यक्ति, एक नेता जिसके प्रभावी शब्दों पर हजारों शिक्षित देशवासियों का भरोसा था" और राजनीतिक डायरी भावी राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक का कार्य करेगी | उस डायरी में दीनदयाल जी की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अंतर्दृष्टि समाहित है | स्पष्ट ही तत्कालीन राजनेताओं पर उनका नैतिक प्रभाव था तथा वे उन्हें एक मूल विचारक के रूप में स्वीकार करते थे, सचाई तो यह है कि वे पार्टी संबद्धता को पार कर चुके थे । 

क्या यह एक त्रासदी नहीं है कि 1950 और 60 के दशकों में जो राजनीतिक सामजिकता और पारस्परिक सद्भाव की भावना दिखाई देती थी, आज समाप्त होती जा रही है? नेहरूवादी-बामपंथी बौद्धिक धारा ने अपने से भिन्न विचारों और मानकों को स्वीकारने से स्पष्ट इनकार किया। हमारे इतिहासवैज्ञानिकों ने केवल कुछ लोगों पर ईश्वरत्व का आवरण चढ़ाया और उनकी भूमिका को बढाचढा कर गौरव दिया। गांधी और नेहरू के अलावा वे किसी को महापुरुष मानने को तैयार नहीं हैं । जबकि स्वाधीनता संग्राम में जमीन से जुड़े कई महान योद्धाओं का योगदान था | अनुसंधान ने स्वतंत्रता आंदोलन से अनेकों वीर महिलाओं और आत्माहुति देने वाले शहीदों को सामने लाया है । इनमें से एक थीं उदा देवी | क्या उस दलित महिला की देशभक्ति रानी लक्ष्मीबाई से कमतर मानी जाएगी?

सार्वजनिक जीवन में महानता को केवल राजनीतिक सफलता से नहीं बल्कि मानवीय मूल्यों की उन्नति में दिए गये योगदान से भी मापा जाता है, जो लोकतंत्र को भी महान बनाती हैं। 1950 के दशक की शुरुआत में भारतीय राजनीति ने दो विरोधाभासी घटनाओं को देखा। कांग्रेस कार्य समिति ने 1952 में लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों में 4,000 से अधिक उम्मीदवारों के चयन का अंतिम निर्णय जवाहरलाल नेहरू पर छोड़ा । इससे पता चलता है कि इनकी राजनीतिक संरचना कितनी कमजोर और नेहरू के सामने पंगु थी | दुर्भाग्य से नेहरू के विरासत के समक्ष यह स्थिति आज भी यथावत है |

जहाँ कांग्रेस ने व्यक्तिवाद को चुना, तो दूसरी ओर श्री उपाध्याय ने प्रारम्भ से ही भारतीय जनसंघ में व्यक्तिवाद को जड़ नहीं जमाने दीं | उनके समय में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष प. मौलिचन्द्र शर्मा और एक अन्य अनुभवी व वरिष्ठ नेता, वसंतराव ओक को निष्कासित कर दिया गया । यह परंपरा भाजपा की संसदीय पार्टी और पार्टी संगठन की सहजीवी स्वायत्तता की परिचायक है । लोकतंत्र में, पार्टी के भीतर के ऐसे प्रयोग प्रयोग बड़ी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन जाते है। स्पष्ट ही कांग्रेस और बीजेपी दो अलग-अलग राजनीतिक संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। विगत चुनाव में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की वंशवादी राजनीति पर मोदी की सामान्य पृष्ठभूमि की विजय आमजन में वंशवाद के प्रति विरक्ति को दर्शाती है ।

उपाध्याय का आदर्शवाद अपने समय की तुलना में आज के भारत में कहीं अधिक प्रासंगिक है। 1963 में चार लोकसभा सीटों में उप-चुनाव हुए, जिनमें कांग्रेस और विपक्ष के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई हुई। विपक्ष के दिग्गज समाजवादी राम मनोहर लोहिया फर्रक्काबाद से, जेबी कृपालानी अमरोहा से, स्वतंत्र पार्टी के मीनु मसानी सूरत से और उपाध्याय जौनपुर से मैदान में थे।

उपाध्याय की जीत को प्रारम्भ से ही दो कारणों से संदिग्ध माना जा रहा था: एक तो भारतीय जनसंघ के सांसद की मौत के कारण रिक्त हुए उस निर्वाचन क्षेत्र में उसकी जाति का प्रत्यासी न होना तथा उपाध्याय के लिए राजनीति एक व्यवसाय न होकर एक मिशन होना। उन्होंने जाति के ध्रुवीकरण और जाति-आधारित मतदान के खिलाफ बात की, जिससे रूढ़िवादियों ने उन्हें हराने के लिए कमर कस ली । हालांकि, श्री उपाध्याय ने अपनी हार को भारतीय जनसंघ की जीत ही माना । उन्होंने पार्टीजनों से कहा कि क्षणिक लाभ के लिए सिद्धांतों का त्याग नहीं करना चाहिए और राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे लोगों की गलत सोच को परिमार्जित करते हुए उन्हें एक विवेकपूर्ण और बुद्धिमान तरीके से अपने मताधिकार का प्रयोग करने हेतु प्रेरित करें ।

उपाध्याय भारतीय राजनैतिक विचार को परिमार्जित करना चाहते थे, जैसा कि उन्होंने कहा, "भारतीय पृष्ठभूमि में एक पश्चिमी राजनीतिक तस्वीर"। उन्होंने राजनीति में बाएं दायें के विभाजन को रचनात्मक, परिवर्तनकारी, लोक समर्थक विचारधारा के विकास के लिए हानिकारक बताया और दृढ़ता से अपनी बात रखी । उनका तर्क था कि यह यह वर्गीकरण भारत की राजनीति को सही दिशा नहीं देता क्योंकि इन पार्टियों के कई कार्यक्रम स्वतः इस रूढ़िवादी आधार का विरोध करते हैं"।

दशकों के बाद, यह दृश्य दुनिया के कई कोनों से उभर रहा है। 1960 के दशक में उन्होंने अलग अलग राजनैतिक विचारधाराओं के बीच सामंजस्य पैदा किया | भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और सीपीआई ने न सिर्फ गठबंधन किया बल्कि उनके बीच बौद्धिक विमर्श भी प्रारम्भ हुआ । यह अलग बात है कि बाद में विदेशी हस्तक्षेप ने इस शैक्षिक और राजनीतिक सामाजिकीकरण की भ्रूण हत्या कर दी ।

उपाध्याय का मानना ​​था कि प्रतिक्रियावादी राजनीति से पुनर्निर्माण की संभावना समाप्त होती है तथा विकल्प हीनता की स्थिति बनती है । उन्होंने अपने राजनैतिक कार्यों में इन मान्यताओं की छाप छोडी । जब भारतीय राजनीति में आरएसएस-जनसंघ के खिलाफ प्रचार चरम पर था, तब कई लोग जनसंघ को दक्षिणपंथी राजनीति का वैचारिक केंद्र बिंदु बनाना चाहते थे। हालांकि उनके प्रयास व्यर्थ थे। उपाध्याय को पता था कि कम्युनिस्टों ने खुद को भारतीयत्व की भावना से प्रथक रखा है, अतः उनका पतन सुनिश्चित हैं और उन्होंने पूर्व में ही यह भविष्यवाणी कर दी थी । उन्होंने समानतावाद को पार्टी का प्रथम सिद्धांत बनाया, भले ही इसके चलते राजस्थान विधानसभा में आठ जनसंघ विधायकों में से पांच को पार्टी से बाहर निकालना पड़ा, यह उनके द्वारा जमींदारी उन्मूलन का विरोध करने के कारण हुआ ।

1962 के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी ने महत्वपूर्ण सफलता अर्जित की, उसका वोट प्रतिशत भी काफी बढ़ा । परिणाम के बाद, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और स्वामी करपात्री जी की राम राज्य परिषद के विलय की चर्चा चली । उपाध्याय ने इस तरह के विलय को लेकर मौलिक प्रश्न उठाए: उन्होंने स्वतंत्र पार्टी को "दलाल स्ट्रीट पार्टी" के रूप में वर्णित किया और कहा कि साम्यवाद का विकल्प, बदनाम पूंजीवाद नहीं हो सकता । सामाजिक दर्शन की समानता के बाद भी उन्होंने रामराज्यपरिषद का मुखर विरोध किया | उन्होंने पांचजन्य में लिखा कि "यह पार्टी स्वामी करपात्री जी की कुटिया से नहीं बल्कि भूमि अधिग्रहण करने वाले पूंजीपतियों के महल से चलती है।"

राजनीति को जनता द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए, अमीरों द्वारा नहीं। नवउदारवाद ने लोकतंत्रों को विवश किया है कि वे कॉर्पोरेट हितों के संरक्षक न बनें। 

उपाध्याय ने साम्यवाद और पूंजीवाद से इतर एक "तीसरा मार्ग" सुझाया जो उनके दर्शन एकात्म मानववाद में परिलक्षित होता है, जिसमें उन्होंने मानव कल्याण का समग्र विचार प्रदान किया था। भौतिकवाद, अध्यात्मवाद और इच्छाओं की पूर्ति आदि की खुशी प्राप्त करने में एक भूमिका तो है, किन्तु केवल आर्थिक उन्नति ही आत्म संतुष्टि या प्रसन्नता का एकमात्र उपाय नहीं हो सकता । उन्होंने आत्म केन्द्रित के स्थान पर आर्थिक और सामाजिक दर्शन में विविधता की वकालत की और उसे ही राष्ट्र व विश्व कल्याण का मार्ग कहा ।

दशकों तक अधिकांश लोग दीनदयाल जी के विचारों से अनजान रहे हैं और अब जबकि श्री मोदी उनके विचारों पर जोर दे रहे हैं, तब महज राजनीतिक चश्मे से उन्हें देखा जा रहा है | क्या यह उचित नहीं होगा कि दीनदयाल जी के विचारों को लेकर भारत में सार्वजनिक चर्चा हो ? 

दीनदयाल जी की राजनैतिक डायरी की प्रस्तावना लिखते हुए डॉ. सम्पूर्णानन्द ने कहा था कि यह पुस्तक "कुछ लोगों के लिए आश्चर्यजनक" हो सकती है। इसलिए, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आज के राजनीतिक कूपमंडूक अज्ञानी बुद्धिजीवियों को उपाध्याय केवल एक पार्टी के विचारक प्रतीत होते हैं | जबकि डॉ. संपूर्णानंद के शब्दों में वे समकालीन भारत के लिए एक ज्योतिस्तंभ हैं: उन्होंने राजनीतिक डायरी की प्रस्तावना में लिखा कि हमें "सहिष्णुता के महान गुणों की एक सहज अभिव्यक्ति" का अभ्यास करना चाहिए ... यदि हम अपने देश में लोकतंत्र को पल्लवित पुष्पित होते देखना चाहते हैं । "

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर और भारत नीति फाउंडेशन के मानद निदेशक हैं

सौजन्य: इंडियन एक्सप्रेस

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