हिन्दी दिवस पर विशेष "राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोती हिन्दी" - पूनम नेगी



हमारे देश के विभिन्न भागों में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं, फिर भी हिन्दी देश की ऐसी भाषा है, जो प्राय: सारे देश में समान रूप से व्यवहार में लायी जाती है। इसके इसी व्यापक स्वरूप को देखते हुए इसे राजभाषा का दर्जा दिया गया है। हिन्दी को यह महत्व इसलिए नहीं दिया गया कि वह सारी भारतीय भाषाओं में ऊँची है बल्कि इसे "राष्ट्रभाषा" इसलिए माना जाता है क्योंकि हिन्दी को जानने, समझने और बोलने वाले लोग समूचे देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं। भले ही ये लोग शुद्ध हिन्दी का प्रयोग न जानते हों, इनके व्याकरण में अनेक त्रुटियां हों, फिर भी हिन्दी बोलते और समझते जरूर हैं। हिन्दी की यही सर्वग्राह्यता देश की एकता की परिचायक है और इसकी इसी खूबी ने इसे इतना व्यापक बनाया है। हिन्दी केवल हिन्दुओं या कुछ मुट्ठीभर लोगों की भाषा नहीं है; अपितु देश के लाखों-करोड़ों लोगों के संवाद का सर्वाधिक सहज और सरल माध्यम है। देश में फैली विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के बीच यदि भारतीय जीवन की उदात्तता एवं एकात्मकता किसी एक भाषा में दिखाई देती है तो वह हिन्दी में ही है। देश में तकरीबन एक अरब लोग हिंदी लिखते, बोलते और समझते हैं तथा दुनियाभर में लगभग 60 करोड़ लोगों का हिंदी बोला जाना इस भाषा की वैश्विक लोकप्रियता का प्रमाण है।
हिन्दी की इसी विशिष्टता को परख कर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजादी के बाद एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा था, "जैसे अंग्रेज अपनी मातृभाषा अंग्रेजी में बातचीत करते हैं और उसे अपने दैनिक जीवन और कार्य संस्कृति में प्रयोग में लाते हैं, उसी तरह मेरा आप सब देशवासियों से विनम्र निवेदन है कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। हिन्दी हम सब समझते हैं इसलिए इसे राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में सहयोग करके हम सबको अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।" गौरतलब हो कि केवल महात्मा गांधी ने ही हिन्दी को राष्ट्र की उन्नति का मूल समझकर यह बात नहीं कही थी, अपितु हिन्दी के महत्व को देश के विभिन्न प्रांतों के साधु-संत, समाज-सुधारक और राजनेताओं ने भी काफी पहले ही बखूबी समझ लिया था। 

स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व हिन्दी के माध्यम से भारत के अनेक संतों, सुधारकों, मनीषियों और राजनेताओं ने अपने विचारों का प्रसार-प्रचार किया था। अपनी दूरदर्शिता के कारण उन्होंने इस भाषा को अपनी भावधारा के प्रचार का साधन बनाया जो देश के सभी भूभागों के अधिकांश जन-समुदाय को एकता के सूत्र में पिरो सकती थी। उत्तर प्रदेश में कबीर, पंजाब में नानक, सिंध में सचल, कश्मीर में लल्लन, बंगाल में बाउल, असम में शंकरदेव आदि संतों ने जिस सांस्कृतिक एकता को आधार बनाकर अपने काव्य की रचना की थी; दक्षिण के वेमना अलवर आदि संतों की कविता की मूल भावभूमि भी वही थी। खास बात है कि इनके संदेशों में कहीं भी भाषागत विघटन के स्वर नहीं दिखते बल्कि सभी की रचनाएं उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक समान रूप से समादृत थीं, कहीं भी भाषा का कोई झगड़ा नहीं था।

हिन्दी के प्रचार-प्रसार में स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रही। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि हिन्दी के प्रचार का कार्य स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं ने ही शुरु किया था। हिन्दी राष्ट्रीय एकता की एक मजबूत कड़ी है, इस तथ्य को ध्यान में रखकर अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के कई महापुरुषों ने भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान राष्ट्रीयता के एक मजबूत सूत्र के रूप में हिन्दी को अपनाने पर अत्यधिक बल दिया। इन महापुरुषों में स्वामी दयानंद सरस्वती, लोकमान्य तिलक, केशवचंद्र सेन, राजा राममोहन राय, नवीनचंद राय, जस्टिस शारदाचरण मित्र के नाम प्रमुख हैं। मातृभाषा हिन्दी न होते हुए भी इस महनुभावों ने देश में हिन्दी का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। इस कड़ी में सर्वप्रथम वाराणसी में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 1893 में हुई और 1910 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना प्रयाग में हुई। इन संस्थाओं की स्थापना से हिन्दी आंदोलन को काफी बल मिला। इस सम्मेलन में स्वतंत्रता की भावना जागृत करने का विचार महात्मा गांधी ने शुरु किया और सारे देश के लिए एक राष्ट्रभाषा बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। सन् 1918 में कांग्रेस के इंदौर अधिवेशन में भी महात्मा गांधी ने हिन्दी को अपनाने का अनुरोध किया और उनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन से उसी वर्ष दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की नींव पड़ी। दक्षिण के राज्यों में इस संस्था के द्वारा हिन्दी का प्रचार-प्रसार होने लगा और अन्य प्रदेशों में हिन्दी का प्रचार करने के लिए 1937 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना वर्धा में हुई।

स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीयता का प्रतीक बनी। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का प्रचार करने के लिए हर प्रदेश की आवश्यकता और अनुकूलता के अनुसार विभिन्न संस्थाओं की स्थापना हुई। इस समय भारत में 17 ऐसी स्वैच्छिक संस्थाएं हैं जो परीक्षाओं का संचालन करती हैं और इनकी परीक्षाओं को भारत सरकार से मान्यता प्राप्त है। ये संस्थाएं असम, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, ओडिसा, बिहार और उत्तर प्रदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त इन संस्थाओं की शाखाओं द्वारा देश के अन्य प्रदेशों में जम्मू-कश्मीर, बंगाल, अरुणाचल, नगालैण्ड, मिजोरम, लक्षद्वीप समूह आदि में भी हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य किया जा रहा है। इन शिक्षण-संस्थाओं के अतिरिक्त सैंकड़ों ऐसी संस्थाएं हैं जो पुस्तकालय, साहित्य-सृजन आदि द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं।

आज हिन्दी के सूत्र के सहारे कोई भी व्यक्ति देश के एक कोने से चलकर दूसरे कोने तक जा सहजता से आ-जा सकता है और अपना काम चला सकता है। देश में फैली विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के बीच यदि भारतीय जीवन की उदात्तता एवं एकात्मकता किसी एक भाषा में दिखाई देती है तो वह हिन्दी में ही है। चाहे सब लोग हिन्दी न जानते हों लेकिन फिर भी इसके द्वारा वे अपना काम आसानी से चला लेते हैं। उन्हें इसमें कोई कठिनाई नहीं होती। उल्लेखनीय है कि भारत की बहुभाषिकता का प्रश्न उठाकर जो लोग हिन्दी के राष्ट्रभाषा के मार्ग में रुकावट डालते हैं वे यह कैसे भूल जाते हैं कि रूस ने इस समस्या का किस प्रकार समाधान किया है। उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि सोवियत-संघ में 66 भाषाएं बोली तथा लिखी जाती हैं किंतु फिर भी वहां की राष्ट्रभाषा रूसी ही है। सोवियत संघ की मंगोल और तुर्की भाषा के शब्दों का रूसी भाषा से कोई सम्बंध नहीं है।

देश में हिन्दी की सार्वजनिक उपयोगिता और महत्ता का इसी से पता चलता है कि इसे दूसरे प्रदेशों के निवासी, नेताओं और विचारकों ने भी अपने विचारों के प्रकट करने का माध्यम बनाया। आज दक्षिण के चारों राज्यों में हिन्दी का जो सफल लेखन, पठन और अध्यापन हो रहा है उसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा स्थापित "दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा" और "राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा" जैसी अनेक संस्थाओं का अत्यधिक योगदान है। इसी प्रकार उड़ीसा, असम तथा मेघालय में भी हिन्दी का व्यापक प्रचार तथा प्रसार दिखता है। विभाजन के उपरांत देश के विभिन्न अंचलों में फैले सिंधी भाई भी किसी से पीछे नहीं है। आज के हिन्दी के लेखन में भारत के सभी भाषा भाषियों का उल्लेखनीय योगदान है। 

हां, यह बात सच है कि आजादी के 70 दशक बाद देश में हिन्दी की जो मजबूत स्थिति होनी चाहिए थी, राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण वैसी नहीं है फिर भी हिन्दी की जड़ें बहुत मजबूत हैं। यह पेड़ तो वटवृक्ष है, हम खाद-पानी न भी डालें, खर पतवार से घिरा रहने दें, तो भी गिर नहीं सकता। उसकी जड़ें जमी ही रहेंगी। कुछ लोगों का मानना है कि जो भाषा रोजगार नहीं दे सकती, वह विलुप्त हो जाती है। यदि यह सही है तो अब तक तो संस्कृत और लैटिन का लोप हो गया होता। मगर ये भाषाएं अब भी प्राथमिक कक्षाओं से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर और पी.एच.डी. स्तर तक पढ़ी और पढाई जाती हैं। फिर भी जरूरत इस बात की है कि देश में हिन्दी पढ़ाने हेतु उच्च-स्तरीय कक्षाओं के लिए अच्छे पाठ विकसित किये जाएं। यह पाठ स्थानीय परिवेश में, स्थानीय रुचि वाले होने चाहिए। हिन्दी में संसाधनों का अभाव हिन्दी जगत के लिए विचारणीय मुद्दा है। अच्छे स्तरीय पाठ तैयार करना, सृजनात्मक/रचनात्मक अध्यापन प्रणालियां विकसित करना, पठन-पाठन की नई पद्धतियां और पढ़ाने के नए वैज्ञानिक तरीके खोजना जैसे कदम देश में हिन्दी के विकास के लिए जरूरी हैं।

बावजूद इसके, अब देश बदल रहा है। देशवासी भारतीय कहलाने और हिन्दी बोलने में गर्व महसूस करते है। अच्छी और शुद्ध हिन्दी का प्रयोग अच्छे पढ़े-लिखे और सम्मानित लोग भी करते हैं और गर्व भी महसूस करते है। हिन्दी हमारी मातृभाषा के साथ साथ पहली राजभाषा भी है। यह भारत में सबसे अधिक बोली समझी जाने वाली भाषा है। भाषा सदैव उच्चारण से आती है और आम भाषा में हिन्दी सवार्धिक प्रचलित है। यह गर्व की बात है कि आज हमारे देश में हर धर्म का व्यक्ति हिन्दी में बात करना जानता है। 

पूनम नेगी
16 ए, अशोक मार्ग
पटियाला कम्पाउण्ड
हजरतगंज, लखनऊ
पिन कोड- 226001
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