वैश्विक भूख सूचकांक की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार भारत में भूखों की संख्या बढी - प्रमोद भार्गव


वैश्विक भूख सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) की वार्षिक रिपोर्ट देश के लिए चिंता की गंभीर सूचना है। इस सूची में 119 देशों में से भारत का स्थान 100वें पायदान पर है। जबकि पिछले साल 97वें सोपान पर था। यह चिंता इसलिए भी गंभीर है, क्योंकि हम उत्तर कोरिया, बांग्लादेश और इराक से भी बद्तर हाल में है। एषियाई देशों की बात करें तो हम केवल पाकिस्तान और अफगानिस्तान से थोड़ी बेहतर स्थिति में हैं। ये दोनों देश क्रमषः 106 और 107वें पायदान पर हैं। यह स्थिति तब है, जब देश में खाद्य सुरक्षा के तहत गरीब व वंचित लोगों को सस्ती दरों पर अनाज वितरित किया जा रहा है और पोषण की अनेक कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। साफ है, योजनाओं के अमल में लोच है । एक तो हमारी नीतियों के क्रियान्वयन में खोट है, दूसरे पारदर्षिता का अभाव । 

भूख सूचकांक एक ऐसा वैश्विक पैमाना है, जो अलग-अलग देशों की जनता को खाने की चीजें कैसी और कितनी मात्रा में मिल रही हैं, इसका आकलन करता है। यह सर्वेक्षण हर वर्ष ताजे आंकड़ों के आधार पर जारी किया जाता है। इस सूचकांक के जरिए विश्व भर में भूख के खिलाफ चल रहे अभियानों की उपलब्धियों और नाकामियों को सामने लाया जाता है। इस सर्वेक्षण की शुरूआत अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ने की थी। वेल्ट और हंगर लाइफ नाम के एक जर्मनी स्वयंसेवी संगठन ने इस सर्वेक्षण की शुरूआत 2006 से की थी और इसके परिणाम 2007 में जारी किए गए थे। 2007 में आयरलैंड का भी एक स्वयंसेवी संगठन इसमें भागीदार हो गया। इस सर्वेक्षण में अंक जितने ज्यादा होंगे और श्रेणी जितनी अच्छी होगी, उस देश में भूख व कुपोषण की समस्या उतनी ही प्रगाढ़ होगी। 

भारत के लिए यह स्थिति सचमुच चिंताजनक हैं । भुखमरी की यह हालत इसलिए शर्मसार करने वाली है, क्योंकि हम अनाज उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर देश है। एक करोड़ 60 लाख टन के करीब खाद्यान्न की उपलब्धता देश में बनी रहती है। इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट “विश्व में खाद्य असुरक्षा की स्थिति-2015” के मुताबिक देश में भूखों की संख्या 19 करोड़ 40 लाख है। इस रिपोर्ट से साफ होता है कि देश धीरे-धीरे स्थायी खाद्यान्न के विस्फोटक संकट की ओर बढ़ रहा है। इसे काबू में नहीं किया गया तो अगले 40 साल में जब हमारी आबादी 160 करोड़ से ऊपर हो जाएगी और खाद्यान्न की मांग भी लगभग डेढ़ गुनी हो जाएगी, तब हमारी भूख का सूचकांक किस मानक स्तर पर होगा, यह वर्तमान हालातों में सोचना ही मुष्किल है | इन दुश्कर हालातों से रूबरू होने के बावजूद हम ऐसे नीतिगत उपाय करने में लगे हैं, जिससे खेती-बाड़ी का रकबा घट रहा है और किसान व किसानी से जुड़े मजदूरों की कमर टूट रही है। कमोवेष यही स्थिति दुधारु पशुओं और उन पर आश्रित मालिकों की है।

यहां इस बाबत यह भी सोचनीय पहलू है कि बीते 25 साल से खेती में निवेष लगातार घट रहा है। कृषि-भूमि लगातार कम होने के साथ उसकी उत्पादक क्षमता भी घट रही है। साथ ही वर्षा की अधिकता (अतिवृष्टि) अथवा सूखे की कुदरती मार भी खेती-किसानी को झेलनी पड़ती है। औद्योगिक विकास और बढ़ता शहरीकरण भी कृषि योग्य भूमि को निगल रहा है। रेल, बुलेट ट्रेन, सड़क, सेज, मॉल के बहाने खेती के लिए उपयोगी भूमि का अधिग्रहण धड़ल्ले से हो रहा है । उद्योगपतियों को कौड़ियों के मोल दी गईं लाखों हेक्टेयर भूमियां बेकार पड़ी हैं। उनमें पिछले दस साल के भीतर न उद्योग लगे हैं और न ही खेती की जा रही है। ऐसी हालत में अनाज का उत्पादन तो घटेगा ही, भुखमरी बढ़ेगी ही ।

इन स्थितियों से निजात के लिए जरूरी है कि बंजर, बीहड़ और रेगिस्तानी भूमियों को उपजाऊ भूमियों में तब्दील किया जाए। ग्रामीण विकास मंत्रालय के हालिया एटलाय के अनुसार देश में इस समय कुल 15 प्रतिषत भूमि पड़त पड़ी हुई है। इस गैर उपजाऊ भूमि का रकवा 4.67 करोड़ हेक्टेयर है। उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात तो इस भूमि को उपजाऊ भूमि में बदलने में लगे हैं, लेकिन महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, मध्य-प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई है । मध्य-प्रदेश में चंबल, पार्वती और आसन नदियों के किनारे श्योपुर, भिंड और मुरैना जिलों में लाखों एकड़ भूमि बीहड़ो के रूप में मौजूद है। इन बीहड़ों को अब तक सभी राज्य सरकारें कृषि भूमि में बदलने में नाकाम रही हैं। यदि इस भूमि का महज समतलीकरण ही कर दिया जाता है, तो लाखों टन खाद्यान्न तो पैदा होगा ही, लाखों लोग कृषि संबंधी रोजगार से भी जुड़ेंगे।

बदलते मौसम में खेती कैसी हो, इस दृष्टि से कृषि में शोध का सिलसिला लगभग ठप है। कृषि कार्यालय तो देश में आजादी के समय से ही प्रभावशील हैं, किंतु अब देश के प्रत्येक जिले में कृषि विज्ञान और मौसम केंद्र भी खुल गए हैं, किंतु ये केंद्र न केवल मौसम की सटीक भविष्यवाणी करने में नाकाम रहे हैं, वहीं संभावित मानसून के अनुरूप कौनसी फसलें बोई जाएं, यह विश्वसनीय जानकारी देने में भी असफल सिद्ध हुए हैं। ऐसे में इनकी मौजदूगी सफेद हाथी साबित हो रही है।

इन सब विपरीत हालातों के बावजूद जैसे तैसे देश का किसान, जो कुछ फसल पैदा करता भी है, तो अनाज के भंडारण और उसकी सुरक्षा में नाकामी, उसकी मेहनत पर पानी फेर देती है । हमारे यहां हर साल लगभग 25-26 करोड़ टन अनाज का उत्पादन होता है। इसमें से सरकार लगभग 5 करोड़ 75 लाख टन अनाज समर्थन मूल्य के आधार पर हर साल खरीदती है। फिलहाल भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में भंडारण की क्षमता 6 करोड़ 64 लाख टन की है। इस स्थिति में ज्यादा पैदाबार के चलते करीब 250 लाख टन अनाज खुले में पड़ा रहता है, जिसमें से बहुत बड़ा हिस्सा असमय बारिश के कारण सड़ भी जाता है। इस सड़े अनाज की मात्रा इतनी होती है कि इससे पूरे एक साल तक दो करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है।

हाल ही में आईएफपीआरआई की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि भारत की महज एक फीसदी आबादी के पास देश के कुल धन का आधे से ज्यादा हिस्सा है। इस असमानता के कारण चंद धन-कुबेरों के पास न केवल धन-संपदा सिमटती जा रही है, बल्कि अधिकांश कृषि भूमि के भी यही मालिक बनते जा रहे हैं। यह स्थिति देश की बड़ी आबादी को भूख की चपेट में ला रही है। नतीजतन भारत वैश्विक भूख सूचकांक के पैमाने पर बद्तर हाल में पहुंच गया है।

प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007

लेखक,वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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