दीपपर्व पर समझें "श्री" का महात्म्य – पूनम नेगी



हमारे यहां सुख हो या दुख-दोनों अवस्थाओं में प्रकाश करने की पुरातन परंपरा रही है। वैदिक काल में यह प्रकाश अग्निरूप में था, बाद में मंदिर के आरती-दीप के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। वैदिक काल से वर्तमान तक दीपकों के दिव्य आलोक में हम इस उत्सव का अनुष्ठान करते आये हैं। कहते हैं, होली महोत्सव है और दशहरा महानुष्ठान, जबकि एकमात्र दीपावली ही सही संपूर्ण अर्थों में महापर्व है। यह पर्व मां महालक्ष्मी के आह्वान के साथ अज्ञान और अंधकार के पराजय का भी पर्व है। इस दिन दीपों का प्रकाश कर हम दीप प्रज्वलन की वैदिक परंपरा को गतिमान बनाते हैं। महाकवि अश्वघोष ने सौदरानंद महाकाव्य में मोक्ष की उपमा दीपक की निर्वाण दशा से की है। 

पुरातन ग्रन्थों में दीपावली का सम्यक् विवेचन मिलता है। पद्म पुराण में लौकिक मान्यताओं, वैभव एवं प्रदर्शन से पृथक इस पर्व को शालीन, सुसंस्कारिक एवं सुसंस्कृत आवरण पहना कर धार्मिकता एवं सात्विकता की ज्योति से मंडित किया गया है। पौराणिक कथानक के अनुसार वामन रूपधारी भगवान विष्णु ने जब दैत्यराज बलि से संपूर्ण धरती लेकर उसे पाताल लोक जाने को विवश कर दिया तो भक्त बलि ने उनसे निवेदन किया कि भगवन, धरती लोक के कल्याण के लिए मेरी आपसे यह विनती है कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से लेकर आमावस्या के तीन दिनों तक जो प्राणि मृत्यु के देवता यमराज के नाम से दीपदान करे; उसे यम की यातना कभी न मिले और उसका घर श्री-संपदा-सर्वकामना महालक्ष्मी की दया-दृष्टि से सदैव आपूरित रहे। कहा जाता है तभी से दीपोत्सव की परम्परा शुरू हो गयी। कालान्तर में इस पर्व से नरकासुर वध, 14 साल के वनवास और रावण वध के उपरान्त श्रीराम की अयोध्या वापसी का प्रसंग भी जुड़ गया। कहा जाता है कि इसी दिन मृत्यु के देवता यमराज ने जिज्ञासु नचिकेता को ज्ञान की अंतिम वल्लि का उपदेश दिया था।पतिव्रता सावित्री ने भी इसी दिन अपने अपराजेय संकल्प द्वारा यमराज के मृत्युपाश से पति को मुक्त कराया था। जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था और देवों ने दीप जलाकर उनकी स्तुति की थी। ज्योतिपर्व के साथ जुड़े पावन प्रसंगों की एक सुदीर्घ श्रंखला है जो अज्ञान के अंधकार से लड़ने की हमारी उत्कट अभिलाषा और प्रबल जिजीविषा की परिचायक रही है। इससे इतर देशी साहित्य में दीपावली का लौकिक परिदृश्य प्रकट होता है। गृह्य सूत्रों के अनुसार चंद्र संवत्सर नववर्ष के प्रारंभ होने के कारण सफाई आदि की जाती थी। "बुद्धघोष" का राजगृह सजता था पर्व "धम्मपद अल्प कथा" के अनुसार इस अवसर पर "कौमुदी महोत्सव" का आयोजन रात्रि भर चलता था।

दीपावली की पांच दिवसीय पर्व श्रंखला संस्कृति की अनेक धाराओं को ठौर देती है। पांच दिवसीय इस उत्सव का पहला पर्व त्रयोदशी यानी कि "धनतेरस" को पड़ता है। सागर मंथन के दौरान इसी दिन अमृत घट लेकर आयुर्वेद के जनक आचार्य धन्वंतरि प्रकट हुए थे। स्कंदपुराण के अनुसार त्रयोदशी की संध्या में यमदीप दान के उपरान्त मां लक्ष्मी व कुबेर की पूजा के साथ आचार्य धन्वंतरि का पूजन अनुष्ठान किया जाता है। वैद्यगण इस दिन उनसे प्रार्थना करते हैं ताकि उनकी औषधियां आरोग्य प्रदायक हो सकें। इसके अगले दिन नरक-चतुर्दशी को पितरों को दीपदान दिया जाता है। मान्यता है कि श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर का वध किया था। तीसरे दिन महानिशा यानी अमावस्या की रात्रि में दीपोत्सव मनाया जाता है, "धर्मसिंधु" के अनुसार इसी दिन मनुष्य उल्काओं से अपने पितरों की परमगति के हेतु प्रार्थना करते हैं। दीपावली के बाद प्रतिपदा आती है। यह प्रारंभ में नवान्न-पूजा का पर्व था, जो बाद में अन्नकूट-पूजा में परिवर्तित हो गया। दक्षिण भारत में बलि-पूजा भी प्रतिपदा को ही होती है। तत्पश्चात कार्तिक शुक्ल को भाईदूज के दिन बहनें भाई को मंगल तिलक कर उनके कल्याण और दीर्घायु की प्रार्थना करती हैं। 

अनेकानेक प्रेरक प्रसंगों से जुड़ा दीपावली का महापर्व श्रेष्ठ जीवनमूल्यों एवं आदर्शों के प्रति संकल्पित होने का शुभ अवसर है। मगर;आत्म आलोक का यह महापर्व आज मात्र देवपूजन के वाह्य कर्मकांड तथा वैभव के प्रदर्शन तक सिमट गया है। पर्व की आलोकपूर्ण प्रेरणाएं लोगों के अंतस को जाग्रत नहीं करतीं। इस ज्योतिपर्व पर आत्मावलोकन करें तो पाएंगे कि ऋषियों की अमूल्य परम्पराओं को विस्मृत करने का खमियाजा हम सब बेतरह भुगत रहे हैं। हम हंसना भूल गये हैं। सोने की चिड़िया कहे जाने वाले राष्ट्र में भुखमरी का सूचकांक हमारे माथे का बदनुमा कलंक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्षों में आज भारतीय जनमानस की जो स्थिति है, वह एक व्यापक मोहभंग एवं एक भयंकर मनोवैज्ञानिक संघात की है। सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक धरातल पर एक विचित्र सी सड़न व्याप्त है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, और सांप्रदायिकता की बेड़ियों में जकड़ी राजनीति संकीर्ण स्वार्थों की कारा में बंदिनी है। चहुंओर हिंसा, आतंक, भय, घृणा व संशय का वातावरण जनजीवन को आक्रांत कर रहा है। कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की आयेदिन की नापाक हरकतें और चीन के कुत्सित इरादे देशवासियों की नींद हराम किये हुए हैं। 

आतंकी गतिविधियां, घुसपैठ एवं बम-विस्फोटों की रक्तरंजित श्रृंखलाएं जहां राष्ट्र को बाह्य चुनौतियों के रूप में सतत आक्रांत किये हुए हैं; उस पर "करेला-नीम चढ़ा" की भांति देश की भीतरी दुर्दशा से स्थिति और बदतर हो रही है। बेरोजगारी, युवा असंतोष, जातीय हिंसा, साम्प्रदायिक तनाव, माफिया गिरोहों का अंतरजाल आदि समस्याओं से स्थिति भयावह होती जा रही है। इन भयावह आन्तरिक एवं बाह्य समस्याओं तथा चुनौतियों के मकड़जाल में उलझा राष्ट्र इनसे मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है। विडम्बना है कि लम्बे संघर्ष और हजारों लाखों राष्ट्रचेता बलिदानियों के आत्मोत्सर्ग के बाद भले ही हमारी भारतमाता गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हुई, पर आजादी के बाद जिन कंधों पर राष्ट्र को सबल, मजबूत तथा स्वावलम्बी बनाने का दायित्व देश की जनता ने सौंपा था, उन जन प्रतिनिधियों ने स्वर्णिम अतीत से प्रेरणा लेने के बजाय निजी स्वार्थों को अधिक तवज्जो दी। पाश्चात्य संस्कृति की भौतिक चकाचौध के अंधानुकरण ने देश के नीति निर्धारकों को अंग्रेजियत का पिट्ठू बना दिया। आजादी देश में जिस लोकसम्पदा एवं शक्ति का नियोजन लोकहित में गरीब, असहाय-अशिक्षित, पिछड़े एवं दलित वर्ग के उत्थान में होना था, उसकी बंदरबांट स्वार्थी एवं भ्रष्ट राजनेताओं और कालाबाजारी करने वाले व्यापारियों के बीच हो गयी। नतीजा हमारे सामने है। कभी का विश्वगुरु आज दुनिया के भ्रष्टतम देशों में शुमार है। नारी को देवी की तरह पूजने वाले देश में स्त्री भोग्या बन गयी है। समस्याएं और चुनौतियां सुरसा की तरह मुंह बाये खड़ी हैं। 

ऐसे में ज्योतिपर्व मात्र लकीर पीटने की औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं। एक ओर चमक दमक भरा बाजार इच्छाओं-कामनाओं को उकसा कर फिजूलखर्ची व विलासिता को बढ़ावा दे रहा है, दूसरी ओर गरीब की कोठरी का अंधेरा भारत की "सर्वे भवन्तु सुखिन:" अवधारणा पर तमाचा सा मारता प्रतीत होता है। कारण स्पष्ट है इस दैवीय पर्व की ज्ञान ज्योति रंच मात्र भी हमारे अंतर्मन को प्रकाशित नहीं करती। लोगों के अंतस की कालिमा निरन्तर गहराती जा रही है। नैतिकता, मर्यादा एवं उदात्त जीवन मूल्यों का पथ धुंधलके में विलीन होता जा रहा है। यही वजह है कि मनों में कुण्ठा से उपजी अर्द्धविक्षिप्त मनोदशा, पारिवारिक जीवन में वैमनस्य व सामाजिक जीवन में विघटन आज चतुर्दिक परिलक्षित हो रहा है। वट वृक्ष सरीखी राष्ट्र की सांस्कृतिक अवधारणा भी आज खतरे में है। हमारी जड़ों पर कुठाराघात हो रहा है। विश्व को धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता का पाठ पढ़ाने वाला राष्ट्र आज धार्मिक संकीर्णता एवं साम्प्रदायिक हिंसा के दावानल में सुलग रहा है। 

चेतने का वक्त है यह। अब न जागे तो पछताने के सिवा हाथ में कुछ भी न रहेगा। आइए इस दीप पर्व पर हम सब भारतवासी सामूहिक रूप से राष्ट्रोत्थान में सच्ची निष्ठा से संकल्पित हों, तभी इस दीपपर्व को मनाना सार्थक होगा। दीपावली वस्तुत: अंतरात्मा को अप्रीतिकर विचारों से मुक्तकर वहां सद्ज्ञान व प्रेम का उजास फैलाती है। यही इस पर्व का तत्वदर्शन है। इस पर्व पर सजने वाली दीपों की अवली (पंक्ति) प्रेम की परिपूर्णता का परिचायक है। नन्हें-नन्हें टिमटिमाते दीपों को देख कवींद्र रवींद्र ने बड़े भावपूर्ण उद्गार व्यक्त किये हैं, "हे विधाता! तूने सूर्य बनाया, चांद बनाया, लेकिन तूने ही इतनी काली रात भी बनायी, पर देखो तो, हमने क्या बनाया? मिट्टी का नन्हा-सा दीया, जिसे लेकर हम इतनी बड़ी काली रात से लड़ते हैं। यह बार-बार बुझता है, इसे हम बार-बार जलाते हैं। इस तरह अमावस के अंधकार को एक दीये से दूसरा, फिर तीसरा और एक-एक कर दीये का एक समूह मिलकर हर लेता है।" दीपावली का तत्वदर्शन यही है कि प्रेम बांटने से बढ़ता है। स्नेह का तेल मिलता रहे तो साधना और ज्ञान का दीपक कभी नहीं बुझता। हमारे जीवन का प्रत्येक कोना भी इस दीप साधना की ज्योति से आप्लावित हो, हमारा प्रत्येक आचरण, कर्म और चरित्र आदर्शों से मंडित हो, तभी लक्ष्मी की वैभव-विभूति, उनकी श्री संपत्ति से हम परिपूर्ण हो सकेंगे। 

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