एक सात्विक तांत्रिक द्वारा तामसी माने जाने वाले तंत्र और श्मशान का दार्शनिक विवेचन


मृत देह या शव, श्मशान तथा वहाँ से सम्बंधित अन्य वस्तुएँ, जिनसे सामान्यतः, सामान्य मनुष्य डरता हैं, तामसी गुण सम्पन्न देवी-देवताओं तथा साधकों हेतु महत्त्वपूर्ण हैं। तंत्र या आगम पथ, जो अधिकतर शैव तथा शक्ति संप्रदाय एवं तामसी आराधना से सम्बद्ध हैं, उनके निमित्त श्मशान तथा वहाँ से सम्बंधित वस्तुएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। शैव तथा शक्ति सम्बंधित अनेक साधन क्रियायें या साधनाएँ श्मशान में ही पूर्ण होती हैं, जैसे शव साधना, शव या मृत देह के ऊपर बैठ कर होती हैं। काली, तारा, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, इत्यादि तामसी गुण संपन्न देवियों तथा नाना शिव अवतारी भैरवों का घनिष्ठ सम्बन्ध श्मशान से हैं; भैरव, श्मशान के द्वारपाल या रक्षक हैं।

संसार के समस्त जीव पंच मूल तत्वों से निर्मित हैं | कितनी विचित्र बात है कि इन पंच तत्वों को पञ्च महा-भूत कहा गया है | सामान्य दृष्टि से देखें तो भूत अर्थात जो ना तो वर्तमान है और ना ही भविष्य | और उससे भी अधिक विचित्र बात यह है कि इन पंच महाभूतों से ही हमारे नश्वर शरीर का निर्माण होता हैं :

१. आकाश २. वायु ३. अग्नि ४. जल तथा ५. पृथ्वी। 

संभवतः यह संसार की नश्वरता प्रदर्शित करने का एक तरीका हमारे मनीषियों ने सोचा हो | आज हम जो हैं, वह भूतकाल के कर्मों के प्रभाव से हैं और भविष्य में जो होंगे वह आज अर्थात जो भविष्य का भूत होगा, उसके कर्मफल के कारण होंगे | सीधे शब्दों में प्रत्येक वस्तुओं का या भूतों का नाश, एक न एक दिन होना ही होना हैं। 

साधारणतः श्मशान वह स्थान है जहाँ मृत देह का दाह संस्कार होता हैं; सामान्य दृष्टि में श्मशान गन्दा तथा अपवित्र होता हैं, माना जाता हैं श्मशान भूत-प्रेतों का निवास स्थान हैं, चिता का दृश्य अत्यंत ही मर्मर तथा घिनौना होता हैं। जिस देह को मानव जीवन भर सर्वाधिक जतन से रखता हैं एवं मनोरम दिखाने का प्रयास करता हैं, मृत्यु पश्चात वही देह अग्नि में भस्म हो जाता हैं या सड़ कर मिट्टी में मिल जाता हैं। परन्तु, श्मशान का आध्यात्मिक, दार्शनिक या तांत्रिक महत्व और ही कुछ हैं, यहाँ इसे एक अलग ही दृष्टि से देखा जाता हैं।

तंत्र के अनुसार, यह केवल वह प्रक्रिया हैं जिससे मृत देह में व्याप्त प्रत्येक तत्व, अपने-अपने तत्वों में विलीन हो जाते हैं। तंत्रों के अनुसार, श्मशान केवल मात्र वह स्थान हैं जहाँ देह में व्याप्त तत्त्व-मिश्रण अपने-अपने तत्त्व में विलीन हो जाते हैं, चिद-ब्रह्मत्व प्राप्त कर लेते हैं। चिद-ब्रह्म साक्षात प्रकृति ही हैं तथा आदि शक्ति महामाया का एक स्वरूप हैं जो समस्त ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में व्याप्त हैं।

चिता में शव दाह के पश्चात, केवल मात्र थोड़ा सा राख ही शेष रहा जाता हैं, ठोस तत्व भस्म में परिवर्तित हो मिट्टी में विलीन हो जाता हैं। अन्य तत्व या भूत जैसे शरीर में व्याप्त जल, जल वाष्प में बदल कर हवा में विलीन हो जाता हैं, अग्नि, ताप के संयोग से ही समस्त तत्त्व अपने-अपने तत्त्व में विलीन होते हैं, वायु, वायु में विलीन हो जाता हैं तथा आकाश तत्व सर्वप्रथम तत्व हैं, आकाश से ही अन्य तत्वों का निर्माण हुआ हैं। वायु, पृथ्वी या मृदा, अग्नि तथा जल इन सारे तत्वों का निर्माण आकाश तत्व से ही हुआ हैं तथापि ये समस्त तत्व आकाश में ही विलीन हैं। 

इन पञ्च महा-भूतों या तत्वों का संतुलित मात्रा में जीवित देह में रहना अत्यंत आवश्यक हैं, इन तत्वों या भूतों का असंतुलित होना ही विभिन्न रोगों को जन्म देता हैं तथा शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता को कम करता हैं। चिता भस्म, जो मानव मृत देह के दाह के पश्चात या महा-भूतों में विलय होने के पश्चात शेष रह जाता हैं, पञ्च महा-भूतों का सम्मिश्रण हैं, शिव जी तथा उनके अनुयायी इस भस्म का अपने शरीर पर लेप करते हैं। माना जाता हैं कि, चिता-भस्म, पञ्च महा-भूतों का ऐसा सम्मिश्रण हैं, जो शरीर में व्याप्त समस्त भूतों को संतुलित करता हैं तथा निरोगी रखता हैं।

दार्शनिक दृष्टि से श्मशान तथा पञ्च इंद्री का महत्व।

दार्शनिक दृष्टि से श्मशान वह स्थान हैं, जहाँ वैराग्य की उत्पत्ति होती हैं, श्मशान जाकर शव-दाह देखने पर मनुष्य एक बार तो सोचता हैं कि, जीवन भर देह हेतु मनुष्य क्या नहीं करता तथा उस देह का अंत क्या हैं? मनुष्य अपने साथ क्या लेकर आता हैं तथा क्या लेकर जाता हैं? जीवन भर जिस देह की तृप्ति हेतु वह पता नहीं अनगिनत प्रकार के कार्य करता हैं फिर वह नैतिक हो या अनैतिक, वह देह किस प्रकार अग्नि में जल कर भस्म हो जाता हैं तथा मनुष्य के शारीरिक गठन या प्रति-कृति का सर्वदा के लिए अंत हो जाता हैं। इस प्रकार के भावना उत्पन्न होने पर मनुष्य के अन्तः कारण में वैराग्य का उदय होता हैं, वह सत्य तथा असत्य के वास्तविक परिचय को समझने में सफल होता हैं तथा अपने जीवन में इसका प्रतिपादन करता हैं, सत्य के पथ पर चलता हैं।

पञ्च महा-भूतो के अनुसार ही, पञ्च इन्द्रियां भी समस्त प्राणिओं में अवस्थित हैं, इन इन्द्रियों द्वारा ही मनुष्य जीवन यापन करने में सक्षम हैं जो निम्न नामों से जाने जाते हैं। 

१. चक्षु इन्द्रिय : जो भी हम अपनी आँखों से देखते हैं, देखने से सम्बंधित इन्द्रिय। 

२. सत इन्द्रिय : कान या सुनने से सम्बंधित इन्द्रिय।

३. गंध इन्द्रिय : सूंघने की शक्ति या इन्द्रिय। 

४. जिव इन्द्रिय : स्वाद चखने से सम्बंधित इन्द्रिय।

५. स्पर्श इन्द्रिय : स्पर्श से सम्बंधित इन्द्रिय।

इन पञ्च इन्द्रियों के अलावा भी 'सोचने' की एक और इन्द्रिय मानी जाती हैं, जिसका सम्बन्ध किसी भी शारीरिक अंग से नहीं हैं।

यह सभी इन्द्रियां, काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार मनुष्य स्वभाव से सम्बद्ध, दोष या अवगुणों को उत्पन्न करती हैं। सर्वदा ऐसा नहीं है कि, यह इन्द्रियां नाना प्रकार के दोषों को ही उत्पन्न करती हैं, व्यक्ति का स्वभाव इन्हीं इन्द्रियों के द्वारा ही निर्मित होता हैं। यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता हैं की वह इन इन्द्रिओं का कैसे उपयोग या सञ्चालन करता हैं; सुकर्मों के लिये या कुकर्मों के लिये। समस्त जीवों में मनुष्य केवल मात्र एक ऐसा प्राणी हैं, जो विवेक शील हैं, अच्छा या बुरा सोचने में वह समर्थ तथा सक्षम हैं। व्यक्ति द्वारा इन्हीं पञ्च इन्द्रिय सञ्चालन के स्वरूप से ही उसके विवेक, बुद्धि का परिचय मिलता हैं; समस्त इन्द्रियों का सञ्चालन हृदय या मस्तिष्क द्वारा होता हैं। ज्ञान का प्रकाश ही एक ऐसा माध्यम हैं, जिससे व्यक्ति अपने अंदर के अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करता हैं या जलाता हैं। ज्ञान रूपी प्रकाश से व्यक्ति अपने हृदय में स्थित समस्त अवगुणों को जला-कर भस्म कर देता हैं और जब यह विकार मनुष्य के हृदय से लुप्त होते हैं तो हृदय ब्रह्म युक्त हो जाता हैं। हृदय श्मशान का प्रतीक भी हैं, हृदय में स्थित समस्त विकार जल जाने पर चिद्-ब्रह्म जो आदि शक्ति महामाया का ही स्वरूप हैं, उनका निवास स्थान होता हैं एवं वह विद्वान हो जाता हैं।

अतः श्मशान वह स्थान हैं, जहाँ महा-भूत या इन्द्रियों से उत्पन्न अवगुणों का दाह होता हैं, नष्ट होते हैं। राग द्वेष आदि अवगुणों का दाह करने पर ही हृदय पर आदि शक्ति महामाया, चिद-ब्रह्म स्वरूप में वास करती हैं, जिसे अष्ट पाशों से मुक्ति कहते हैं।

तामसिक साधनाओं में उपयोग होने वाले वस्तुओं का महत्व।

मानव खोपड़ी, खप्पर, हड्डियां, बौद्ध तथा हिन्दू शक्ति साधनाओं तथा तांत्रिक पद्धतियों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। वीर-साधना नमक तंत्र में मृत देह से प्राप्त वस्तुओं, शव के तांत्रिक उपयोग तथा साधना पद्धति पर विशेष प्रकाश डाला गया हैं। इस प्रकार की तामसी साधनाएँ अत्यंत ही भयंकर और डरावनी होती हैं तथा एकांत में ही की जाती हैं; इस प्रकार की साधना करने वाले साधक कपाली, अघोरी इत्यादि नाम से जाने जाते हैं। अघोर पंथ एक व्रत हैं, जो सर्वाधिक सरल हैं तथा वीर पद की प्राप्ति हेतु एक साधना मात्र हैं; जिसके अंतर्गत, ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त तत्वों में भगवत भाव रखना अत्यंत आवश्यक हैं। मृत मानव एवं पशु-पक्षी देह, हड्डी, सड़ी-गली प्रत्येक वस्तु इनके लिए समान हैं, ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त तत्वों में सम भाव रखना, निर्मल तथा घृणित सभी वस्तुओं में ब्रह्म की अनुभूति करना ही इनके साधन पद्धति का मुख्य उद्देश्य हैं। घृणा, इच्छा या कामना, भय का सर्व-प्रकार से त्याग ही इस प्रकार के साधनाओं का मुख्य उद्देश्य होता हैं। इस चराचर जगत में व्याप्त प्रत्येक वस्तु फिर वह जीवित हो या मृत, पवित्र हो या अपवित्र, सड़ा हो या पुष्ट सभी में ब्रह्म तत्व या ईश्वर का अनुभव करना पड़ता हैं, प्रत्येक वस्तु ईश्वर द्वारा ही निर्मित हैं।

बहुत से तांत्रिक पुस्तकों या आगम ग्रंथों में शव-साधना का वर्णन पाया गया हैं, मृत शरीर या बच्चों की समाधी के ऊपर बैठकर साधना करना शव-साधना कहलाता हैं। नदी किनारे या श्मशान स्थित बिल्व वृक्ष के नीचे, चांडाल के मृत देह के ऊपर बैठकर, उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होने वाली नदी को वीर साधना में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बताया गया हैं। बामा खेपा, तारापीठ महा-श्मशान में ही रहते थे, तामसी शक्तिओं की आराधना करने वाले साधक सामान्यतः श्मशान में ही रहते थे; अपने इष्ट देवताओं के अनुसार उन्हें भी इष्ट प्रिय स्थानों पर वास करना पड़ता हैं। तामसी शक्ति से सम्पन्न प्रायः सभी देवी-देवता, भूत, प्रेत, योगिनिया, पिसाचनियां इत्यादि श्मशान भूमि को ही अपना निवास स्थान बनती हैं तथा उनकी अराधना करने वाले साधक भी वही भय मुक्त या निर्भीक होकर रहते हैं; इस प्रकार के तत्त्वों के सामान्य रूप में उपयोग करने का केवल मात्र यह ही उद्देश्य होता हैं।

शिव जी तथा उनकी पत्नी पार्वती, श्मशान में ही वास करते हैं, उनके निवास स्थल कैलाश पर्वत भी एक दिव्य श्मशान हैं इसके अलावा काशी या वाराणसी, उज्जैन की गिनती भी दिव्य श्मशान स्थलों में की जाती हैं। कोलकाता में गंगा नदी किनारे नीम तला महा-श्मशान में शिव जी समस्त भूतों (तत्त्व) के नाथ भूत-नाथ रूप में विराजित हैं। काशी या वाराणसी जहाँ गंगा नदी उत्तर वाहिनी हैं, के मणि-कर्णिका घाट में शिव जी सर्वदा उपस्थित रहकर, वहाँ दाह होने वाले प्रत्येक शव के कान में तारक मंत्र बोलते हैं, जिससे उन्हें सहज ही मोक्ष प्राप्त होता हैं। श्मशानों के द्वारपाल शिव जी के अवतार नाना भैरव होते हैं, काशी के द्वारपाल काल भैरव हैं, इसी प्रकार उज्जैन के द्वारपाल बटुक भैरव हैं। काशी के दक्षिण ओर स्थित राजा हरिश्चंद्र घाट में शिव जी, मसान रूप में पूजे जाते हैं, जो सर्वाधिक भयंकर रूप वाले तथा श्मशान के स्वामी हैं। शिव जी कपाल तथा खप्पर धारण करते हैं, चिता-भस्म का अपने शरीर में लेप करते हैं, वास्तव में संहार तथा विघटन से सम्बंधित वस्तुओं के वे स्वामी हैं। प्रत्येक वस्तु जिसका त्याग किया जाता हैं तथा जिसका सम्बन्ध भविष्य में विघटन से हैं, उनके स्वामी शिव जी ही हैं।

चिता भस्म रमाए हुए महाकालेश्वरम


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