ख़त्म होना चाहिए वीआईपी संस्कृति |


किसी जमाने में भारतीय जनसंघ के वैचारिक अधिष्ठान का मूल तत्व था, अमीरी और गरीबी की खाई पाटना | अधिकतम और न्यूनतम आय के अंतर को कम करना | जनसंघ के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तपस्वी वत प्रचारकों की तो पहचान ही थी सादगी पूर्ण जीवन |

अतः जब जनसंघ के वर्तमान स्वरुप भारतीय जनता पार्टी की सरकार केंद्र में बनी तो माना गया कि अब शासन सत्ता की रीति नीति भी बैसी ही बनेंगी | किन्तु दुर्भाग्यजनक तथ्य यह रहा कि भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारें भी टोटकेबाजी और शिगूफों में ही उलझकर रह गई, कोई मौलिक परिवर्तन धरातल पर देखने में नहीं आया |

मसलन केंद्र सरकार ने वीआईपी कल्चर समाप्त करने के नाम पर लाल बत्ती का प्रयोग निषिद्ध तो किया, किन्तु क्या इससे वीआईपी संस्कृति लेश मात्र भी कम हुई ? नेताओं के आगे पीछे चलने वाले बड़ी बड़ी कारों के काफिले, रेलवे अधिकारियों के सेलून, जनता के धन पर आलीशान सरकारी कोठियों में ऐश करते सत्ताधीश और नौकरशाह, सब कुछ यथावत तो हैं |

अंग्रेजों के समय शासक वर्ग और निरीह आम आदमी को अलग दर्शाने के लिए दिल्ली में लुटियन जोन बनाया गया था | यह लुटियन जोन अब हर प्रदेश की हर राजधानी में दिखाई दे रहा है | बड़े बड़े सरकारी बंगलों में ठाठ से रहते सरकारी अधिकारी और नेता | और तो और इन बंगलों का रखरखाव भी शासन के धन से ही होता है |

जरा सोचिये कि अगर इन शासकीय आवासों को नीलाम कर दिया जाए तो कितने अरब ख़रब रुपये सरकारी खजाने में आयेंगे ? रख रखाव का खर्चा और मेन पॉवर बचेगी, वह अलग |

रहा सवाल कर्मचारियों और मंत्रियों के आवास का, तो उन्हें यथोचित आवास भत्ता दिया जा सकता है | वे रहें आमजन के साथ, आमजन के लिए बनी हुई कालोनियों में किराए से भवन लेकर | 

बैसे उसकी भी जरूरत नहीं होगी, ये लोग किससे कम हैं, खरीद ही डालेंगे अपने लिए आवास | बैसे भी आजकल निजी कोठियां होते हुए भी ये लोग सरकारी आवासों में डेरा जमाये रहते हैं |

लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनेगा ?

यहाँ तो कुए में ही भंग डली हुई है |


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