सनातन का स्वानुशासन - गीतिका वेदिका

सनातन धर्म वह स्वानुशासित धर्म है जिसमें "बाबावाद" जैसी मध्यस्थता की कोई गुंजाइश नहीं। "बाबावाद" अर्थात तमाम पण्डे-पुजारी, ढोंगी, पाखंडी, चमत्कार कर गुमराह करने वाले गुरुओं का वह तथाकथित निर्मित मठ है जिसमें ये 'चतुरसुज्ञान' पीड़ित को ईश्वर से मिलाने के ढोंग रच के पीड़ा हरने के वास्ते देते हैं। जिनके शिकार अधिकांश विपन्न वर्ग, महिलाएँ और अशिक्षित जन हुआ करते हैं। सनातन धर्म को ठेस पहुंचाने वाले 'मठाधीश' को परिभाषित करने के पहले 'सनातन धर्म' के मूल को जानना होगा।

किसी पारलौकिक शक्ति अथवा मत में विश्वास कर उसके द्वारा प्रतिपादित रीति-रिवाज/ नियम/ परम्परा/ पूजा-सेवा/ नियमाचार-पद्धति/ दर्शन में विश्वास रखना 'पंथ' कहलाता है। यथा सनातन, ईसाई, इस्लाम, बहावी, पारसी आदि और जब एक ही धर्म की अलग अलग परम्पराएं या विचारधाराएं विभिन्न शाखाओं में बटतीं हैं तो उन्हें 'सम्प्रदाय' कहते हैं। यथा हिन्दू धार्मिक सम्प्रदाय, बौद्ध धार्मिक सम्प्रदाय, इस्लाम सम्प्रदाय के शिया व सुन्नी, जैन धर्म के दिगम्बर व श्वेतांबर सम्प्रदाय, बौद्ध धर्म सम्प्रदाय के महायान व वज्रयान।

सनातन सम्प्रदाय सर्वाधिक विस्तार लिये है-
शैवाश्च वैष्णवाश्चैव शाक्ताः सौरास्तथैव च | गाणपत्याश्च ह्यागामाः प्रणीताःशङ्करेण तु || -देवीभागवत ७ स्कन्द

(१) शैव सम्प्रदाय(२) वैष्णव सम्प्रदाय(३) शाक्त सम्प्रदाय(४) सौर सम्प्रदाय(५) गाणपत सम्प्रदाय(क)मत्स्येन्द्रमत नाथ सम्प्रदाय(ख)शाङ्करमत दशनामी सम्प्रदाय इति।

सनातन धर्म विश्व के सभी बड़े धर्मों में सबसे प्राचीन धर्म है अस्तु इसे 'वैदिक धर्म' भी कहा जाता है। यह वेदों पर आधारित धर्म है जो अपने में विभिन्न पूजा-उपासना पद्धितियाँ व दर्शन समाहित किये है। सनातन का अर्थ है शाश्वत काल से जिसका होना है। सनातन अनादि से अनन्त होकर जड़ से चेतन में प्रवाहमय है।

साधनापथ में ओशो स्वयं को भारत का सनातनयात्री बताते हुए कहते हैं-

"भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत-पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। मैं भी उस अनंत यात्रा का छोटा-मोटा यात्री हूं। चाहता था कि जो भूल गए हैं, उन्हें याद दिला दूं जो सो गए हैं, उन्हें जगा दूं। और भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को, अपनी हिमाच्छादित ऊंचाइयों को पुन: पा लें। क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है। यह केवल किसी एक देश की बात नहीं है।"

विश्व के मैनेजमेंटगुरु और कोई नहीं स्वयं ओशो के श्रीकृष्ण हैं जिन्हें अर्जुन ने कभी दुःखी नहीं देखा, कभी उदास और विचलित नहीं देखा। कृष्ण की बासुंरी से तो बस प्रसन्नता और सकारात्मकता के ही स्वर गूँजते रहे।
-ओशो गीता दर्शन भाग३

प्रख्यात समाजसुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती वेदों के अध्यापन में बहुत भरोसा रखते थे; इन्होंने एक नारा दिया था- ‘वेदों की लौटो।'

'वेद' अर्थात सनातन का मूल।

अनादिकाल से शाश्वत सनातन धर्म के अंतर्गत निराकार की पूजा-साधना के भाव विचार भी हैं। सनातन में साधना के प्रकारों के दबाव नहीं हैं, अपितु स्वयं के विवेक पर आराध्य व आराधना चयन के भी मार्ग हैं। साधक जब मूर्ति-उपासना अपनाते हैं, तब मंदिरों के निर्माण भावभूमि पर उतरते हैं। मन्दिर, मठ, गुरुकुल के निर्माण किये गए। प्राचीन वैदिक काल में जब मन्दिर नहीं होते थे तब यज्ञ के द्वारा अग्नि की उपासना होती थी। जिसमें स्वर्ण मूर्ति समक्ष यज्ञकुंडी में मंत्रों के उच्चारण के साथ घृत-अन्नादि पंचसमिधा के मध्य प्रज्जवलित अग्नि में अर्पित किये जाते थे। तत्पश्चात मंदिरों के निर्माण हुए, गर्भगृह में इष्टदेव की स्थापना की गयी। मध्ययुगीन भारतीय कला के मंदिर विश्व के श्रेष्ठतम स्थापत्य कला के प्रदर्शन हैं।

मंदिरों का उद्देश्य समाज में समरसता, एकेश्वर के प्रति निष्ठागत और पूजापद्धति की रीतियों का प्रतिपादन करना था। गुरुकुल और मठों में ध्यान व तपस्या होती थी। यहाँ समाज के जन अपने बालक-बालिकाओं को वेदाध्ययन के साथ-साथ अन्य विधाएँ तो सीखने को भेजते ही थे, साथ ही यहाँ जीने की कला भी सिखाई जाती थी। शनैः शनैः समाज में विकृतियाँ आयीं और ये स्थान धार्मिक यात्रियों, विरक्त, त्यागियों, सन्यासियों, बाल-विधवाओं, घर से पुत्रों द्वारा सताये गये भागे व भगाए गये वृद्धों की शरण स्थली बन गयी।

मन्दिर में कई सेवक होते हैं। जिनमें इष्ट के भोर जागरण से नित्य पूजा, स्नान, भोजन, भजन के साथ पुनः शयन मंत्रोच्चार समेत कराना मन्दिर के प्रधान सेवक के दायित्व हैं। जिन्हें मुख्य-पुजारी भी कहा जाता है। मन्दिर की सफाई, दीपप्रज्ज्वलन की व्यवस्था, आरती के साज, शंख, झालर आदि बजाना आदि अन्य सेवकों के कर्तव्य हैं। पुजारी कर्मकांड में सिद्धहस्त होने के साथ मंत्रों का ज्ञाता भी होता है। जिसकी शिक्षा विधिवत प्रदान की जाती है। इनके लिये वेतन अथवा पारिश्रमिक देय रहता है। नवांकुर पुजारियों को बाल्यावस्था से मंदिरों के नियमाचार से अवगत कराना भी इनका दायित्व होता है।

कालांतर में भाग्यवादिता ने रूढ़ियों को जीवन की अनिवार्यता के रूप में इस तरह स्थापित कर दिया कि व्यक्ति की आस्था वर्तमान से हट के अतीत और भविष्य में हो गयी। मनुष्य धर्म और दर्शन के मोहजाल में इस तरह फँसा कि पुरुषार्थ और चेतना की परिकल्पना ने भाग्यवादिता की ओर करवट ली। व्यक्ति अपने दुःख-दर्द और संकटों से मुक्ति पाने के लिये पुरुषार्थ और चिकित्सा के स्थान पर आराध्य की स्तुतिगान करने लगा। अनियमित, असंयमित जीवनचक्र में मिली दुश्वारियों को पूर्वजन्मों के दुष्परिणाम के फलित मान कर, ईश्वरइच्छा मान कर समस्या के समाधान पाना बन्द चुका था। यह वही समय था जब धर्म के ठेकेदार दार्शनिक बन बैठे और विपन्न वर्ग तथा अशिक्षित को उनके दुःखों से मुक्त कराने के मनमर्जी के शुल्क लेने लगे। यथार्थ के द्वार बंद हो गए। समाज में नियति द्वारा निर्धारित दुःख, रोग, शोक व असंतोष का घनीभूत अँधेरा चहुँओर व्याप्त हो गया। दुःसमय का लाभ उच्च बुद्धिलब्धि के लोभग्रसित व्यक्ति उठाते रहे।

लोग सनातन के नाम पर संप्रदाय दर सम्प्रदाय में बंटते रहे हैं। वर्तमान में कितने ही सम्प्रदाय हैं जिनमें संत निरंकारी, मानव धर्म, जय गुरुदेव, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी संगठन, गायत्री परिवार, कबीर पंथ, शिरडी के साईं का पंथ, राधास्वामी, आशाराम और सच्चा सौदा सम्प्रदाय आदि। इतने सारे सम्प्रदायों में बंटा व्यक्ति भ्रम में पड़ जाता है कि मूल तो दो ही थे शैव और वैष्णव, फिर इतने सारे सम्प्रदाय क्यों और कैसे? कुशल वाणी का स्वामी जो कतिपय तथ्यों की जानकारी रखता है, कुछ चमत्कार दिखाते हुए कैसे और कब संत बन जाता है और अपनी नयी शाखा एक विद्यालय की भाँति शुरू कर देता है। और व्यक्ति इनमें एडमिशन लेता चला जाता है। समझने की बात ये है कि ऐसा होता क्यों हैं? क्या वाकई कोई व्यक्ति है जो ईश्वर के निकट है, जो आम पीड़ित को ईश्वर से मिलाकर दुःख-दरिद्रता से छुटकारा दिलाने की सामर्थ्य रखता है? नहीं! कदापि नहीं! जब अनेकता में एकता का मिलन होता है तो अच्छी तथ्यों के साथ बुरे तथ्य भी आते हैं। प्रांतीय एकता के साथ जातिवाद स्वतः चली आती है। उन शेष हृदयों में हेयता भी भावना लिए पीड़ा उठती है जब कुछ लोग स्वयं को उच्च जाति का बता के उनको अपने से दूर करते हैं। निम्न जातियाँ उच्च जातियों के प्रचार-प्रसार देखती हैं, अपनी दरिद्रता से असंतुष्ट रहती हैं। ऐसे में इनके एकाकीपन का लाभ उठा के इनको भ्रमित करने के प्रयास किये जाते हैं। इनको भोजन, वस्त्र के लालच दिखा कर कभी इनका धर्मपरिवर्तन करवा लिया जाता है तो कभी कोई तथाकथित धर्मगुरु इन्हें उच्च जातियों से अधिक सम्मान प्रदान करने के लालच देकर अपने अनुयायियों की भीड़ बढ़ाता है। इन अशिक्षित, मुसीबत के मारों और नियति के घोषित भुगतान करने वालों को बना ले जाना आसान होता है। इस संदर्भ में कुरीतियाँ भी उल्लेखनीय होंगीं जिनसे सामाजिक एकता खण्ड-खण्ड होती है।

कुरीतियों को दो स्वरूपों में विभक्त कर बेहतर समझा जा सकेगा।

१. सामाजिक कुरीति, व
२. धार्मिक कुरीति।

सामाजिक कुरीतियों में जनजीवन दिनचर्या में जिन बुराइयों को शामिल करता है वे उसके जीवन को प्रभावित कर उसके जीवनशैली का हिस्सा बनती जाती हैं। इनकी वजह से अवांछित रीतिरिवाज अपना आकार ग्रहण करते हैं, यथा सती प्रथा, बालविवाह, बालमजदूरी, बालशोषण , जातिवाद, कन्याभ्रूण हत्या व अस्पृश्यताआदि। जबकि धार्मिक कुरीतियों में मूल रूप से लिखित रूप में जो निर्देश प्राप्त होते हैं उन्हें उनके सार्थक अर्थ में ग्रहण न कर अनर्थ कर जीवन में आत्मसात कर वंशानुगत करते हैं, यथा पशुबलि, मृतभोजोत्सव, व्रत उपासना के दबाव, मध्यम अनाज उड़द आदि की दाल से परहेज करना, छींक आने पर/ बिल्ली रास्ता काटने पर यात्रा रोकना, शुभकार्य में रजस्वला स्त्री के दर्शन अशुभता का सूचक समझना आदि।

जब ये कुरीतियाँ चलन में आती हैं तो अवाँछित नियमों के निर्माण करती हैं। जिनका दुष्प्रभाव समाज के सबसे निम्न और अशिक्षित वर्ग में पैठ करता है जबकि इन्हें पोषित करने वाले समाज के उच्च वर्गीय शिक्षित जन हुआ करते हैं।

कालांतर में कई कुरीतियों और रूढिवादिताओं के विरुद्ध संघर्ष करने वाले व्यक्ति भी जन्म लेते रहे और हरसम्भव प्रयासों से समाज के सुधार में मनसा वाचा कर्मणा प्रयास किये कर आधुनिक भारत की नींव को सुदृढ़ किया। इन नामों की एक सूची बनाना तो असम्भव है, किन्तु समृद्ध इतिहास से जो नाम प्रणम्य हैं जो भारत के बाहर भी दुनिया में अपने नाम के प्रकाश को अब तक बिखेर रहे हैं-

कबीरदास, महात्मा गाँधी, जमनालाल बजाज, विनोबा भावे, बाबा आम्टे, श्रीराम शर्मा, आचार्यपांडुरंग शास्त्री, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, धोंडो केशव कर्वे, बाल गंगाधर तिलक, जांभेकर, एनी बेसेण्ट , विट्ठल रामजी शिंदेगोपाल, हरि देशमुख, कान्दुकुरी वीरेशलिंगम, विजयपाल बघेल, गोपाल गणेश आगरकर, विनायक दामोदर सावरकर, जयानन्द भारतीकेशव, सीताराम ठाकरे, रघुनन्दन भट्टाचार्य, राजा राममोहन राय, सावित्रीबाई फुले, स्वामी केशवानन्दस्वामी, स्वामी विवेकानन्द व दयानन्द सरस्वती आदि।

आज के तथाकथित धर्म को परिभाषित करते हुए प्रोफ़ेसर महावीर सरन कहते हैं कि- "आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है वास्तव में उससे बचने की जरूरत है।"

"वात्स्यायन ने धर्म और अधर्म की तुलना करके धर्म को स्पष्ट किया है। वात्स्यायन मानते हैं कि धर्म केवल क्रियों या कर्मों से सम्बन्धित नहीं है बल्कि धर्म चिन्तन में भी होता है, वाणी में भी होता है।"

किन्तु भाग्य के लिखे को अकाट्य मानते हुए तर्कसम्मत व्यवहार न होने के कारण तर्कसम्मत उत्तर नहीं मिल सके जिससे बाधा-व्याधियाँ विस्तार के आकार लेती गईं।।जिनसे बचाने की शर्त थी तथाकथित बाबाओं के अनुयायी बनकर उन बाबाओं को पूजना। विष उगलते हुए समय ने ये परिपाटियां परम्परा के रूप में परिवार को पीढ़ियों के साथ हस्तांतरित की। और इन बेड़ियों ने और भी मजबूत रूप ले लिया। जिसे उसी रूप में स्वीकार करना था, बिना कोई प्रश्न करे। होते होते ये स्थितियाँ इतनी भयावह होती चली गईं कि उन तथाकथित बाबा/ गुरु/ मठाधीशों को ही धर्म का अघोषित मुखिया मान के उन्हें ईश्वर का स्थान दे दिया गया और रहा सहा अधोपतन वामपंथी विचारधारा ने कर दिया। जिन्होंने सनातन के विरुद्ध सिर्फ और सिर्फ विषवमन ही किया।

आवश्यकता है सनातन के मूल को समझने की। क्या एकेश्वर की उपासना में कभी मध्यस्थ की भूमिका थी? नहीं थी। क्या रोग-शोक-विलाप इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के ठठकर्म क्रियाकलापों से दूर होने थे अथवा पुरुषार्थ से और ज्ञान के प्रयोग से। फिर हम कैसे अंधभक्ति में इन बाबाओं की गहरी काली सुरंगों के भीतर जा के जीवनोपचार खोजने लगे जबकि ये गुत्थियाँ तो स्वयं हमारी ही बनाई थी।

सनातन को विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसके पक्ष सर्वथा तर्कसम्मत सिद्ध हैं। जहाँ अनेक प्रश्न गुत्थियाँ बन के जटिल हो जाते हैं, वहीं सनातन उचित रूप में उनके तर्कसम्मत उत्तर देते हुए सभी पक्षों को सन्तुष्ट करता है।

जीवन के जिस सच को जानने के लिये युवा जिज्ञासु रहता है, तरह-तरह के ठठकर्म अपनाता है, जीवन से योग और प्राणायाम को निष्कासित कर, गले में बाबाओं की तस्वीर के लॉकेट पहन कर स्वयं पर अमुक बाबा की कृपा और रक्षा समझ कर अंधी अविवेकी भेड़ बन कर असत की ओर जाता है।

कई देशों से व्यक्ति जीवन के अदेखे और एकमेव सत्य की तलाश में जिस पावन भारतभू पर आता है, जो सत्य संसार की किसी किताब में नहीं, किसी तकनीकी में नहीं वह सत्य स्वयं एकमेव सत्य सनातन धर्म है। जैन, बौद्ध, सिख, और इनकी तमाम उपशाखाएँ यहाँ तक कि चार्वाक दर्शन के अनुयायी नास्तिक भी सनातनधर्मी हैं।

सनातनधर्मी होने के लिये कोई विशिष्ट योग्यता अथवा वस्त्र नहीं धारण करने होते हैं, सिवाय वह सनातन के किसी भी दर्शन को स्वीकार करता हो। सनातन में कोई पूजा-पद्धति पर विशेष जोर नहीं दिया गया है। सनातनधर्मी किसी भी तरह से अपने मन को रूचने वाली पद्धति अपना सकता है। सनातन का स्वानुशासन सर्वसत्य वाणी 'वेदवाणी' है। जिसका कोई भी शास्त्र, पुराण,उपनिषद खंडन नहीं करते। इनमें कोई विरोधाभास नहीं। यदि कभी विरोधाभास प्रतीत भी होता है तो महर्षि वेदव्यास की वाणी के अनुसार अंतिम वचन 'वेद वाणी' मान्य है। सनातन धर्म में कई देवी-देवता, उपासना-पूजा पद्धतियाँ होने के बाद भी एकेश्वरवाद की संकल्पना लिये हुए समस्त ब्रह्मांड के परिप्रेक्ष्य में "वसुधैव कुटुम्बकम"की व्याख्या करता है। इंडोनेशिया में सनातन धर्म को 'हिन्दू आगम' कहा गया है। "हिन्सायां दूयते या सा हिन्दू" अर्थात जो मन वचन कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दू, जो निज लाभ के लिये किसी को कष्ट न दे वह हिन्दू है।

श्रीमद्भागवत गीता सनातन का पवित्रतम ग्रन्थ है। महाभारत के भीष्मपर्व के अंतर्गत दिए गए उपनिषद में एकेश्वरवाद, कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग को समझाते हुए केशव ने अर्जुन को बिना मध्यस्थ के स्वयं को जोड़ा है। इन वर्षों की जकड़ी बेड़ियों से मुक्ति पा के तर्कसम्मत प्रयास कर हमें जीवन के उत्थान की दिशा में बढ़ना होगा। यह हमारा ही कर्तव्य है कि शाश्वत सत्य सनातन धर्म पर विधर्मियों, वामपंथियों, लालचियों ने जो काला कलंक लगाया है उसे ज्ञान के प्रकाशपर्व में समाहित कर लिया जाए।

दीप ज्योति नमोस्तुते

गीतिका वेदिका


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