संस्कारित पीढ़ी से ही समाज-राष्ट्र की उन्नति सम्भव - डा. राधेश्याम द्विवेदी

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संस्कारित पीढ़ी समाज राष्ट्र को उच्च शिखर पर पहुंचा सकती है। हमें संस्कारित पीढ़ी छोड़ना है। संस्कार शब्द की उत्पत्ति सम+कृ+ धञ=संस्कार अर...

संस्कारित पीढ़ी समाज राष्ट्र को उच्च शिखर पर पहुंचा सकती है। हमें संस्कारित पीढ़ी छोड़ना है। संस्कार शब्द की उत्पत्ति सम+कृ+ धञ=संस्कार अर्थात कृ धातु के पीछे सभ्यक्यत्व दर्शक उपसर्ग ‘सम व आगे ‘धञ की संधि से संस्कार शब्द बना है। गर्भधारण से अंत्येष्टि तक के काल में माता-पिता, गुरुजन तथा पुत्र-पुत्री पर उनके सम्भक (सात्विक) कृति होने हेतु वैदिक पद्धति से की जाने वाली विधियों को संस्कार कहते हैं।संस्कार का बहु विधि अर्थ है- अच्छा करना, वस्तु के दोष को दूर करना और उसे नया आकर्षक रूप देना। अर्थात जिस क्रिया के योग से मनुष्य में सदगुणों का विकास व संवर्धन तथा दोषों का निराकरण होता है वह क्रिया है-संस्कार। संस्कार शब्द का अर्थ है, शुद्धिकरण। जीवात्मा जब एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में जन्म लेना है, तो उसके पूर्व जन्म के प्रभाव उसके साथ जाते हैं। इन प्रभावों का वाहक सूक्ष्म शरीर होता है, जो जीवात्मा के साथ एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में जाता है। इन प्रभावों में कुछ बुरे होते हैं और कुछ भले। बच्चा भले और बुरे प्रभावों को लेकर नए जीवन में प्रवेश करता है। संस्कारों का उद्देश्य है कि पूर्व जन्म के बुरे प्रभावों का धीरे- धीरे अंत हो जाए और अच्छे प्रभावों की उन्नति हो।

संस्कार के दो रुप होते हैं - एक आंतरिक रुप और दूसरा बाह्य रुप। बाह्य रुप का नाम रीतिरिवाज है। यह आंतरिक रुप की रक्षा करता है। हमारा इस जीवन में प्रवेश करने का मुख्य प्रयोजन यह है कि पूर्व जन्म में जिस अवस्था तक हम आत्मिक उन्नति कर चुके हैं, इस जन्म में उससे अधिक उन्नति करें। आंतरिक रुप हमारी जीवन- चर्या है। यह कुछ नियमों पर आधारित हो तभी मनुष्य आत्मिक उन्नति कर सकता है। ॠग्वेद में संस्कारों का उल्लेख नहीं है, किन्तु इस ग्रंथ के कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है, इसलिए इस ग्रंथ के संस्कारों की विशेष जानकारी नहीं मिलती। अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि और गर्भाधान संस्कारों का पहले से अधिक विस्तृत वर्णन मिलता है। गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख मिलता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा मिलती है। इस प्रकार गृह्यसूत्रों से पूर्व हमें संस्कारों के पूरे नियम नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि गृहसूत्रों से पूर्व पारंपरिक प्रथाओं के आधार पर ही संस्कार होते थे। सबसे पहले गृहसूत्रों में ही संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में सबसे पहले विवाह संस्कार का उल्लेख है। इसके बाद गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात- कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न- प्राशन, चूड़ा- कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अधिकतर गृह्यसूत्रों में अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन नहीं मिलता, क्योंकि ऐसा करना अशुभ समझा जाता था। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से था जो किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते थे, किंतु हिंदू संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना भी था। वैदिक साहित्य में "संस्कार' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। संस्कारों का विवेचन मुख्य रुप से गृह्यसूत्रों में ही मिलता है, किंतु इनमें भी संस्कार शब्द का प्रयोग यज्ञ सामग्री के पवित्रीकरण के अर्थ में किया गया है। वैखानस स्मृति सूत्र ( 200 से 500 ई. ) में सबसे पहले शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों में स्पष्ट अंतर मिलता है।

पाश्चात्य सभ्यता मनुष्य ’सोशल एनीमल' :- पाश्चात्य सभ्यता तो मनुष्य को ’सोशल एनीमल' अर्थात् 'सामाजिक पशु' तक स्वीकार करने में संकोच नहीं करती, पर जिस जीवन को जीन्स और क्रोमोंजोम समुच्चय के रूप में वैज्ञानिकों ने भी अजर-अमर और विराट् यात्रा के रूप में स्वीकार कर लिया हो, उसे उपेक्षा और उपहास में टालना किसी भी तरह की समझदारी नहीं है। कम से कम जीवन ऐसा तो हो, जिसे गरिमापूर्ण कहा जा सके। जिससे लोग प्रसन्न हों, जिसे लोग याद करें, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा लें, ऐसे व्यक्तित्व जो जन्म-जात संस्कार और प्रतिभा-सम्पन्न हों, उँगलियों में गिनने लायक होते हैं। अधिकांश तो अपने जन्मदाताओं पर वे अच्छे या बुरे जैसे भी हों, उन पर निर्भर करते हैं, वे चाहे उन्हें शिक्षा दें, संस्कार दें, मार्गदर्शन दें, या फिर उपेक्षा के गर्त में झोंक दें, पीड़ा और पतन में कराहने दें। 

प्राचीनकाल में महान संतों व बुजुर्गों पर दायित्व :- प्राचीनकाल में यह महान दायित्व कुटुम्बियों के साथ-साथ संत, पुरोहित और परिव्राजकों को सौंपा गया था। वे आने वाली पीढ़ियों को सोलह-सोलह अग्नि पुटों से गुजार कर खरे सोने जैसे व्यक्तित्व में ढालते थे। इस परम्परा का नाम ही संस्कार परम्परा है। जिस तरह अभ्रक, लोहा, सोना, पारस जैसी सर्वथा विषैली धातुएँ शोधने के बाद अमृत तुल्य औषधियाँ बन जाती हैं, उसी तरह किसी समय इस देश में मानवेतर योनियों में से घूमकर आई हेय स्तर की आत्माओं को भी संस्कारों की भट्ठी में तपाकर प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्तित्व के रूप में ढाल दिया जाता था। यह क्रम लाखों वर्ष चलता रहा उसी के फलस्वरूप यह देश 'स्वर्गादप गरीयसी' बना रहा, आज संस्कारों को प्रचलन समाप्त हो गया, तो पथ भूले बनजारे की तरह हमारी पीढ़ियाँ कितना भटक गयीं और भटकती जा रही हैं, यह सबके सामने है। आज के समय में जो व्यावहारिक नहीं है या नहीं जिनकी उपयोगिता नहीं रही, उन्हें छोड़ दें, तो शेष सभी संस्कार अपनी वैज्ञानिक महत्ता से सारे समाज को नई दिशा दे सकते हैं। इस दृष्टि से इन्हें क्रांतिधर्मी अभियान बनाने की आवश्यकता है। 

प्रत्येक कार्य का आरम्भ संस्कार से :- प्राचीन काल में प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।

भारत पुनः विश्व गुरु की ओर अग्रसर :- भारत को पुनः एक महान राष्ट्र बनना है, विश्व गुरु का स्थान प्राप्त करना है, उसके लिए जिन श्रेष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता बड़ी संख्या में पड़ती है, उनके विकसित करने के लिए यह संस्कार प्रक्रिया अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।। प्रत्येक विचारशील एवं भावनाशील को इससे जुड़ना चाहिए। जन्म – जन्मांतर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों से यह जीव बंधा है तथा इस मनुष्य शरीर में पुन: अहंता, ममता, आसक्ति और कामना से नए – नए कर्म करके और अधिक जकड़ा जाता है । अत: यहां इस जीवात्मा को बार – बार नाना प्रकार की योनियों में जन्म – मृत्युरूप संसारचक्र में घुमाने के हेतुभूत जन्म – जन्मांतर में किए हुए शुभाशुभ कर्मों के संचित संस्कार समुदाय का वाचक ‘कर्मबंधन पद है । कर्मयोगी की विधि से समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके तथा सिद्धि और असिद्धि में सम होकर यानी राग – द्वेष और हर्ष शोक आदि विकारों से रहित होकर जो इस जन्म और जन्मांतर में किए हुए तथा वर्तमान में किये जानेवाला समस्त कर्मों के फल उत्पन्न करने की शक्ति को नष्ट कर देना – उन कर्मों को भूने हुए बीज की भांति कर देना है – यहीं समबुद्धि से कर्मबंधन को सर्वथा नष्ट कर डालना है । यदि मनुष्य इस कर्मयोग के साधन का आरंभ करके उसके पूर्ण होने के पहले बीज में ही त्याग कर दे तो जिस प्रकार किसी खेती करनेवाले मनुष्य के खेत में बीज बोकर उसकी रक्षा न करने से या उसमें जल न सींचने से वे बीज नष्ट हो जाते हैं, उस प्रकार इस कर्मयोग के साधन को आरंभ का नाश नहीं होता, इसके संस्कार साधन के अंत:करण में स्थित हो जाते हैं और वे साधकको दूसरे जन्म में जबरदस्ती साधन में लगा देते हैं । इसका विनाश नहीं होता, इसलिए भगवान ने कर्मयोग को सत् कहा है ।

वर्तमान प्रगतिशील दौर में संस्कार की बातें करना और उस पर विचार व चिन्तन करना मानव अपनी तवहीनी समझने लगता है। पाश्चात्य की अंधी दौड़ में उसकी चेतना व विवके पर भौतिकता के छद्म आवरण का पर्दा आ पड़ा है। अर्ध तथा भौतिक सुख-सुविधाओं की लालसा से ना तो वह स्वयं अपने को अलग कर पा रहा है ना ही आने आने वाली पीढ़ी के लिए एसी परिस्थितियां ही उत्पन्न कर पा रहा है। वह सनातन सात्विक मूल्यों को क्षणिक देर के लिए आत्मसात कर लेता है पर उसे स्थाई रख पाने में सक्षम नहीं कर पा रहा है। एसे में वैज्ञानिक साधन ही उसके तथा अगली पीढ़ी के विनाश के साधन बन सकते हैं। कितनी कठिन साधना व अनुभवों से हमारे पूर्वजों ,महर्षियों तथा ऋषियों ने जो कुछ ज्ञान व मानव मूल्यों की रक्षा की है वह बच पाना संभव दिखाई नहीं पड़ रहा है। हम अपने अगली पीढ़ी को सुखसुविधा तथा धन वैभव देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं पर उन्हें सुरक्षित तथा स्थाई बनाने तथा मानवता के हित में चलने व करने का ज्ञान नहीं दे पाते हैं जो एक चिन्ता का विषय है। राजनीति तथा समाज में गिरता मानव मूल्य हमारे भविष्य के लिए प्रश्न चिन्ह उत्पन्न कर सकता है। ज्ञानी संयमी पढ़े लिखे लोग केवल अच्छे संस्कारों से ही इसके भविष्य को विनाश से बचा सकते हैं।

डा. राधेश्याम द्विवेदी
लेखक परिचय - डा.राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.ए.और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी),एल.एल.बी.,सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य तथाग्रंथालय विज्ञान की डिग्री तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) की डिग्री उपार्जितकिया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए.डिग्री तथा’’बस्ती कापुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। बस्ती ’जयमानव’ साप्ताहिकका संवाददाता, ’ग्रामदूत’ दैनिक व साप्ताहिक में नियमित लेखन, राष्ट्रीय पत्रपत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, बस्ती से प्रकाशित होने वाले ‘अगौना संदेश’ के तथा‘नवसृजन’ त्रयमासिक का प्रकाशन व संपादन भी किया। सम्प्रति 2014 से भारतीयपुरातत्व सर्वेक्षण आगरा मण्डल आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारीपद पर कार्यरत हैं। प्रकाशित कृतिः ”इन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरलआफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वेआफ इण्डिया, न्यू डेलही। अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं

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