विरासत को लेकर पकिस्तान में बदलाव के सुर - संजय तिवारी



क्या पाकिस्तान अपना वास्तविक इतिहास लिखेगा ? क्या वह खुद को चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक का वंशज मानेगा? क्या कट्टरपंथी उसे ऐसा करने देंगे ? तो क्या अब पकिस्तान बौद्ध पर्यटन केंद्र के रूप में खुद को स्थापित करेगा ? पाकिस्तान के खैबर पख्तून प्रदेश के एक हिस्से से प्राचीन बुद्ध प्रतिमाये मिलने के बाद एक बड़े बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं। यह बदलाव वह की राजनीति और इतिहास को लेकर है। अभी तक जो लोग पकिस्तान के लिए मोहम्मद बिन कासिम की विरासत को लेकर गर्व करते थे अब वे भी खुद को मौर्य साम्राज्य का हिस्सा मानने लगे हैं। यह बड़ा परिवर्तन है जिससे पकिस्तान गुजर रहा है। अब तो पाकिस्तान में बौद्ध पर्यटन के केंद्र विकसित करने की भी वकालत की जाने लगी है। तो क्या अब पाकिस्तान भी चाणक्य , चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक से खुद को जोड़ने के लिए तैयार है ? 

यह खबर तो पकिस्तान से ही आ रही है। अभी कल तक अपनी धरती के इतिहास की शुरुआत 1947 या फिर सिंध में मोहम्मद बिन कासिम के हमले से होने को प्रचारित करने वाले पाकिस्तान को यकायक अपनी सैकड़ों साल पुरानी विरासत याद आने लगी है। पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के हरिपुर में 1700 साल पुरानी 48 फीट की बुद्ध की प्रतिमा का सार्वजनिक प्रदर्शन पर्यटन को बढ़ावा देने और साथ ही धार्मिक सहिष्णुता को रेखांकित करने के इरादे से किया गया। इस दौरान प्रतिमा के उत्खनन स्थल-भामला को पाकिस्तान की विरासत का हिस्सा बताया गया। इस स्थल का दौरा करते हुए तहरीके इंसाफ पार्टी के प्रमुख और जाने-माने क्रिकेटर इमरान खान ने कहा कि यह विश्व विरासत स्थल है और हमें उम्मीद है कि लोग यहां धार्मिक पर्यटन के लिए भी आएंगे। भामला आर्कियोलाजी एंड म्यूजियम डिपार्टमेंट के प्रमुख अब्दुल समद के मुताबिक यह क्षेत्र हमारी विरासत का हिस्सा है।

यह रेखांकित करने वाला तथ्य है। इमरान खान ने प्रतिमा उत्खनन स्थल को धार्मिक पर्यटन केंद्र बनाने की ख्वाहिश की है। अब खैबर पख्तूनवा में बुद्ध प्रतिमा के अनावरण और उसके सार्वजनिक प्रदर्शन की पहल को पाकिस्तान की राजनीति और सोच में एक अहम बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि अभी तक पाकिस्तान के तमाम नेता, इतिहासकार, विद्वान और मौलाना आदि इस पर जोर देते रहे हैं कि उनके मुल्क का उस दौर से कोई लेना-देना नहीं जब उनकी धरती पर हिंदू और बौद्ध सभ्यता फल-फूली। यह वही पाकिस्तान है जिसके अलम्बरदार अपने इस अतीत को खारिज करने के लिए यहां तक कहते थे कि पाकिस्तान के बनने की प्रक्रिया तो उस समय से शुरु हुई जब मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया था। पाकिस्तान में हिंदू और बौद्ध सभ्यता के प्रतीकों जैसे मठ-मंदिरों, बुद्ध प्रतिमाओं और बौद्ध स्तूपों के प्रति नफरत का ही यह नतीजा रहा कि वे खंडहर में तब्दील हो गए हैं। पाकिस्तान में सैकड़ों मठ- मंदिर ऐसे हैं जो धर्मशाला, दुकानों में तब्दील हो चुके हैं। यह सिलसिला अभी भी कायम हैं।

यहाँ इसी से सटे अफगानिस्तान के बामियान की याद आनी स्वाभाविक है। बामियान या बामयान अफगानिस्तान मध्य भाग में स्थित एक प्रसिद्ध शहर है। जिस प्रान्त में यह है उसका नाम भी बामयान प्रान्त ही है।इसकी घाटी में 2001 में तालिबान ने दो विशालकाय बौद्ध प्रतिमाओं को गैर-इस्लामी कहकर डायनामाइट से उड़ा दिया था। काबुल से उत्तर-पश्चिम में प्राचीन तक्षशिला-बैक्ट्रिया मार्ग पर बामियाँ के भग्नावशेष आज भी अपने गौरव के प्रतीक है। ह्वेन त्सांग ने फ़न-येन-न (बामियाँ) राज्य का उल्लेख किया है। उसके अनुसार इसका क्षेत्र पश्चिम से पूर्व 2000 ली (लगभग 334 मील) और उत्तर से दक्षिण 300 ली (50 मील.) था। इसकी राजधानी छह-सात ली अथवा एक मील के घेरे में थी। यहाँ के निवासियों की रहन सहन तुषार देशवासियों जैसी थी। उनकी रुचि मुख्यतया बौद्ध धर्म में थी। यहाँ पर कोई 10 विहार थे जिनमें 100 भिक्षु रहते थे जो लोकोत्तरवादी संप्रदाय से संबंधित थे। नगर के उत्तर-पूर्व में पहाड़ी की ढाल पर कोई 140-150 फी. ऊँची बुद्धप्रतिमा थी। वहाँ से दो मील की दूरी पर एक विहार में बुद्ध की महापरिनिर्वाण दशा में एक बड़ी मूर्ति थी। युवान्‌ च्वाङ्‌ के कथनानुसार दक्षिण पश्चिम में 34 मील की दूरी पर एक बौद्ध संघाराम था जहाँ बुद्ध का एक दाँत सुरक्षित रखा था।

ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस वृत्तांत की पुष्टि अफगानिस्तान में हिंदूकुश पहाड़ी तथा बामियान एवं वहाँ की विशाल मूर्तियों से होती है। एक मील की लंबाई में चट्टान के दोनों छोर पर क्रमश: 120 तथा 115 फी. ऊँची बुद्ध की मूर्तियाँ हैं। छोटी मूर्ति गंधार कला की प्रतीत होती है। वेशभूषा के आधार पर इसकी तिथि ईसवी की दूसरी तीसरी शताब्दी मानी जा सकती है। बड़ी मूर्ति का निर्माण लगभग 100 वर्ष बाद हुआ। इनके पीछे आलों की छतों में चित्रकला के भी अंश मिले हैं। इनको ससानी, भारतीय तथा मध्य एशिया से संबंधित वर्गों में रखा गया है। बामियाँ के चित्र अजंता की 9वीं तथा 10वीं गुफाओं के चित्रों तथा मीरन (मध्यएशिया) की कला से मिलते जुलते हैं। यद्यपि चंगेज खाँ ने बामियान और वहाँ के निवासियों का पूर्णतया अंत कर दिया तथापि बुद्ध की इन प्रतिमाओं का उल्लेख 'आईन ए अकबरी' में भी मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि प्रथम अफगान युद्ध के अंग्रेज बंदी सैनिकों को यहाँ रखा गया था। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने इन मूर्तियों को सन 2001 में इस्लामविरोधी कहकर इन्हें ध्वस्त करा दिया था।

अब पकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के भामला इलाके में उत्खनन में मिली बुद्ध की उक्त प्रतिमा को ऐसी सबसे पुरानी प्रतिमा बताया जा रहा है जिसमें भगवान बुद्ध विश्राम की मुद्रा में दिख रहे हैं। इस तरह की प्रतिमाओं को स्लीपिंग बुद्धा के तौर पर जाना जाता है। भामला इलाके में अब तक बुद्ध से जुड़े पांच सौ से अधिक स्मृति चिन्ह मिल चुके हैं। भामला का इलाका बुद्ध कालीन सभ्यता का एक बड़ा केंद्र था। एक समय यह पूरा क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था। खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में इमरान की तहरीके इंसाफ पार्टी सत्ता में है। खैबर के कार्यक्रम में इमरान की शिरकत के पीछे यह माना जा रहा है कि वह कट्टरपंथी तत्वों के समर्थक की अपनी छवि से दूर होना चाहते हैं। ऐसे तत्वों से बातचीत के हामी होने के कारण इमरान खान को तालिबान खान भी कहा जाता है। खैबर पख्तूनवा सरकार भामला के विरासत स्थल को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन का केंद्र बनाना चाहती है। ऐसी जानकारी है कि बुद्ध प्रतिमा के अनावरण के कार्य़क्रम से श्रीलंका, कोरिया, मारीशस आदि देशों के राजदूतों को भी निमंत्रित किया गया।

यह वही पकिस्तान है जिसने अपनी धरती के हजारों साल पुराने इतिहास को खारिज करने के लिए न केवल खुद पर हमला करने वाले मोहम्मद बिन कासिम का गुणगान किया, बल्कि ऐसे ही अन्य आक्रमणकिरयों को भी अपना प्रेरणास्रोत माना। उन्हें ही इतिहास की पुस्तकों में भी जगह मिली। पाकिस्तान की मिसाइलों के नाम गोरी, गजनवी इसीलिए हैं, क्योंकि इन आक्रमणकारियों ने तत्कालीन भारत को तहस-नहस किया था। पाकिस्तान में इतिहास की किताबों में अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य आदि के बारे में कुछ नहीं पढ़ाया जाता, जबकि आज के पाकिस्तान में एक समय इन्हीं शासकों का शासन था।अब बुद्ध की इन प्रतिमाओं को लेकर दिखाई जा रही गंभीरता क्या किसी बड़े बदलाव का संकेत है ? क्या पकिस्तान अब अपनी नयी पीढ़ी को बृहत्तर भारत के इतिहास से रूबरू करने को तैयार है ? 


लेखक भारत संस्कृति न्यास , नयी दिल्ली के अध्यक्ष हैं
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